Bhartiya Chintan Ki Bahujan Parampra By Om Prakash Kashyap
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सत्ता चाहे किसी भी प्रकार की और कितनी ही महाबली क्यों न हो, मनुष्य की प्रश्नाकुलता से घबराती है। इसलिए वह उसको अवरुद्ध करने के लिए तरह-तरह के टोटके करती रहती है। वैचारिकता के ठहराव या खालीपन को भरने के लिए कर्मकाण्डों का सहारा लेती है। उन्हें धर्म का पर्याय बताकर उसका स्थूलीकरण करती है। कहा जा सकता है कि धर्म की आवश्यकता जनसामान्य को पड़ती है। उन लोगों को पड़ती है, जिनकी जिज्ञासाएँ या तो मर जाती हैं अथवा किसी कारणवश वह उनपर ध्यान नहीं दे पाता है। यही बात उसके जीवन में धर्म को अपरिहार्य बनाती है। दूसरे शब्दों में धर्म मनुष्य की मूलभूत आवश्यकता न होकर, परिस्थितिगत आवश्यकता है। जनसाधारण अपने बौद्धिक आलस्य तथा जीवन की अन्यान्य उलझनों में घिरा होने के कारण धार्मिक बनता है। न कि धर्म को अपने लिए अपरिहार्य मानकर उसे अपनाता है। फिर भी मामला यहीं तक सीमित रहे तो कोई समस्या न हो। समस्या तब पैदा होती है जब वह खुद को कथित ईश्वर का बिचौलिया बताने वाले पुरोहित को ही सब कुछ मानकर उसके वाग्जाल में फँस जाता है। अपने सभी फैसले उसे सौंपकर उसका बौद्धिक गुलाम बन जाता है।
– इसी पुस्तक से
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गीता प्रेस और हिन्दू भारत का निर्माण – अक्षय मुकुल
अनुवाद : प्रीती तिवारी
पुस्तक के बारे में…
मुहम्मद अली जिन्ना भारत विभाजन के सन्दर्भ में अपनी भूमिका के लिए निन्दित और प्रशंसित दोनों हैं। साथ ही उनकी मृत्यु के उपरान्त उनके इर्द- गिर्द विभाजन से जुड़ी अफवाहें खूब फैलीं।
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आमतौर पर यात्राएँ जान लेने की हुड़क में की जाती हैं। कहते हैं जान लेना मुक्त करता है। मुक्ति का तो नहीं पता पर यात्राएँ कैथार्सिस करती चलती हैं। इस वजह से बेहद मोहती हैं हमें। यात्राओं के दौरान अतीत और भविष्य अधिक मुखर हो उठते हैं, वर्तमान कुछ कट जाता है। महज़ जगहों से गुज़रना यात्रा को कमतर करता है। यात्रा माने इतिहास से एकरूप हो जाना। इतिहास के गर्व और शर्म को दोनों हाथों से थाम लेना । जहाँ काट-छाँट का इतिहास किंकर्तव्यविमूढ़ हो दूरी बना लेता है, वर्तमान रूठ जाता है और भविष्य अपने रास्ते से भटक जाता है। दरअसल, यात्राएँ जगहों से, लोगों से मिलने का सिर्फ एक बहाना हैं। असल मुलाक़ात तो हम अपने आप से करते चलते हैं। हर यात्रा के दौरान हम अपनी ही एक नयी पहचान से मुखातिब होते हैं। ये पहचान रूह की खरोंचों का मरहम है जिसे ख़ुद ही हासिल करना होता है।
– भूमिका से
कभी पूर्णिया में” डॉ. आशोक कुमार झा,
एक महत्त्वपूर्ण किताब है जो केवल पूर्णिया क्षेत्र में रहने वाले ब्रिटिश नागरिकों के जीवन के दस्तावेजीकरण तक सीमित नहीं है बल्कि इसकी वास्तविक प्रासंगिकता औपनिवेशिक भारत में यूरोपीय आबादी और स्थानीय समाज के मध्य बुने गये सम्बन्धों के उस जटिल ताने-बाने को उजागर करने में है जिसके स्रोत आज भी पूर्णिया क्षेत्र में देखे जा सकते हैं।
Adrika Sharma
“भारतीय चिंतन की बहुजन परम्परा” ओम प्रकाश कश्यप जी की अद्वितीय किताब है जो हमें समाज में धर्म के महत्वपूर्ण और व्यापक प्रभावों को समझने में मदद करती है। इस पुस्तक में उन्होंने मनुष्य की धार्मिकता और धर्म से संबंधित विविध मुद्दों को व्याख्यात किया है और उन्हें एक नई दृष्टिकोण से देखने का मौका दिया है।