Hindi Ki Prem Kahaniyan By Ed. Dr. Suchitra Kashyap (PaperBack)

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Hindi Ki Prem Kahaniyan By Ed. Dr. Suchitra Kashyap

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    तुमने अपने घर की तन्हाई का जिक्र किया है। मैं जानता हूँ कि यह तन्हाई कितनी कड़ी और जुदाई के यह लम्हे कितने गरौं हैं। इनको दिल से धोया नहीं जा सकता लेकिन इनका बोझ इस तसव्वुर से कम ज़रूर किया जा सकता है कि बीते हुए दिन कितने अच्छे थे और आने वाले दिन कितने बेहतर होंगे। मैं तो यही करता हूँ, जब से जेलखाने का दरवाजा बन्द हुआ है मैं कभी माज़ी (अतीत) के पैरहन को तार- तार करके उसे मुख्तलिफ़ सूरतों में दुबारा बुनता रहता हूँ। और कभी आने वाले दिनों को दामे तसव्वुर में कैद करके उनसे अपनी मर्जी और पसन्द के मुख्तलिफ़ एलबम तरतीब देता रहता हूँ। जानता हूँ कि यह बेकार सा शगल है इसलिए कि ख़्वाबों को हक़ीक़त की जंजीरों से आज़ाद नहीं किया जा सकता लेकिन इतना जरूर है कि थोड़ी देर के लिए आदमी तख्य्युल (कल्पना) के बल पर गिर्दो-पेश की दलदल से पाँव छुड़ा सकता है। फ़रारियत (पलायन) बुरी बात है लेकिन जब हाथ-पाँव जकड़े हुए हों तो आज़ादी की वाहिद सूरत यही रह जाती है। इसी नुस्खे के तुफैल मुझे जेल की सलाखें बहुत ही हक़ीर और बेहक़ीक़त दिखाई देने लगी हैं और बेशतर औक़ात उनकी तरफ़ ध्यान ही नहीं जाता।

    – इसी पुस्तक से

     

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  • Kavita Bhavita – Gyanendrapati (Hindi Hardcover Edition)

    Kavita Bhavita – Gyanendrapati

    कविता क्या है’ का ठीक-ठीक उत्तर न आलोचकप्रवर रामचंद्र शुक्ल ढूँढ पाये न अन्य विदग्ध जन, कोशिशें तो निरंतर की जाती रहीं-न जाने कब से। सो परिभाषाएँ तो ढेरों गढ़ी गईं, लेकिन वे अधूरी लगती रहीं। पारे को अंगुलियों से उठाना संभव न हो सका। नई कविता-आंदोलन के साथ कविता की रचना-प्रक्रिया साहित्य-संबंधी चिंतन के केंद्र में आ गई। बहसों, वक्तव्यों और कवियों के आत्म-अवलोकन-विश्लेषण का लंबा दौर अविराम चलता रहा। लगा कि आधुनिकता से हासिल वैज्ञानिक दृष्टि-संपन्नता कविता के गिर्द लिपटे दिव्यता के प्रभामंडल को भेद कर उसे एक पार्थिव वस्तु की तरह समझने में मदद करेगी; उत्स तक पहुँच कर, जहाँ से और जैसे कविता उपजती है उसे जान कर, कविता के आस्तित्विक रहस्य को बोधगम्य बनाया जा सकेगा। उस उन्मंथन के गर्भ से मुक्तिबोध की ‘एक साहित्यिक की डायरी’ और अज्ञेय की ‘भवन्ति’ तथा ‘आत्मनेपद’ जैसी कृतियाँ निकलीं। लेकिन … लेकिन यह भी कि अपने समय के संघर्षों-स्वप्नों-विडंबनाओं-विरोधाभासों के साथ-साथ उपेक्षित-अलक्षित सचाइयों को दर्ज करते हुए सहस्राक्ष कविता की एक आँख अपने बनने को भी देखती रही, आकृत होते अपने अस्तित्व को आँकती रही, अचूक। कविता केवल बाह्य सत्य को उजागर करने का माध्यम ही नहीं रही, लेखकीय अंत:करण भी उसकी दिदक्षा की ज़द में बना रहा। ‘मत्त हैं जो प्राण’ शीर्षक प्रगीत में निराला की उक्ति है: है व्यथा में स्नेह-निर्भर जो, सुखी; जो नहीं कुछ चाहता, सच्चा दुखी; एक पथ ज्यों जगत् में, है बहुमुखी; सर्वदिक् प्रस्थान। सर्वदिक् प्रस्थान वाले कविता के बहुमुखी पथ के एक अथक यात्री हैं ज्ञानेन्द्रपति-फ़क़त कविता-लेखन को अपनी जीवन-चर्या बनाने वाले। उनका यह नया कविता-संग्रह कविता की पारिस्थितिकी को-उसके सुरम्य और बीहड़ को-परेपन में प्रस्तुत करने का एक अनूठा प्रयत्न है कि जिसके क्रम में हमारे समाज-समय की ढँकी-तुपी परतें भी उघरती चलती हैं और कहीं तपती रेत के कूपकों में ठण्ढा पानी उबह आता है, आत्मिक तृषा को तृप्त करता हुआ। कविता-कर्मियों और मर्मियों के लिए काम की चीज़-कवि-दृष्टि को उन्मीलित करता हुआ-और कविता-प्रेमियों के लिए प्रेम की चीज़-साबित होगा यह संग्रह; हमें विश्वास है हमारी यह आशा फलवती होगी, क्योंकि, आशाओं की इस अवसान-वेला में, अंततः, कविता ही आशा का अंतिम ठिकाना है।

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