Lay : Bhav-Bhaav-Anubhav Ki – Purwa Bharadwaj

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पूर्वा भारद्वाज इस पुस्तक के पहले साहित्य में नहीं रही हैं, वे उसके इर्द-गिर्द लम्बे समय से हैं-साहित्य से उनका सम्बन्ध पारिवारिक है। ‘लय’ के गद्य में भव, भाव और अनुभव की ऐसी छवियाँ, अहसास और बखान हैं जो अक्सर साहित्य के भूगोल में दाखिल नहीं हो पाते हैं। वे ‘लगना’ ‘हलकापन’ और ‘फालतूपन’ पर विचार करती हैं, ‘इमली की खटास’, ‘सिटकनी’ ‘हवाई चप्पल’ पर लिखती हैं और मर्मदृष्टि से ‘बाबा’, ‘नानाजी’, ‘माँ’, नीलाभ मिश्र, रमाबाई आदि को याद करती हैं। सीधा सच्चा बयान और बखान वे, बिना किसी लच्छेदार मुद्रा के, सहज भाव से करती हैं। एक ऐसे समय में जब भव्यता और वैभव क्रूरता को छुपा रहे हैं तब साधारण जीवन में मानवीय ऊष्मा, सहानुभूति और सहकार की अलक्षित उपस्थिति और सम्भावना के दस्तावेज़ के रूप में यह पुस्तक प्रासंगिक है।

– अशोक वाजपेयी

 

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    – आमुख से

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