SADAK PAR MORCHA (Poems)
Edited by Ramprakash Kushwaha, Rajendra Rajan
उन किसानों की स्मृति को समर्पित
जिन्होंने तीन कृषि क़ानूनों के ख़िलाफ़
चले आन्दोलन के दौरान
अपनी जान गँवायी
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दिल्ली बार्डर पर चले किसान मोर्चे के दौरान एक अद्भुत बात हुई। अनगिनत शहरी हिन्दुस्तानियों को पहली बार एहसास हुआ कि ‘मेरे अन्दर एक गाँव है’। जो किसान नहीं थे उन्हें महसूस हुआ कि ‘आन्दोलन सिर्फ किसानों का नहीं है। किसान सिर्फ खेत में ही नहीं हैं।’ इसकी पहली सांस्कृतिक अभिव्यक्ति पंजाब में हुई। लोकगीतों और गायकों के समर्थन के सहारे यह आन्दोलन खड़ा हुआ और दिल्ली के दरवाजे पहुँचने की ताक़त जुटा सका। आन्दोलन के दौरान लोकमानस से जुड़ी इस रस्सी ने किसान मोर्चे के टेण्ट को टिकाये रखा। इस अन्तरंग रिश्ते ने आन्दोलन को वह ताक़त दी जो हमारे समय के अन्य जन आन्दोलनों- मसलन नागरिकता क़ानून विरोधी आन्दोलन या फिर मज़दूर आन्दोलन- को हासिल नहीं हो पायी। इसी बल पर किसान आन्दोलन पुलिसिया दमन, सत्ता की तिकड़म, गोदी मीडिया के दुष्प्रचार और प्रकृति की मार का मुक़ाबला कर सरकार को घुटने टेकने पर मजबूर कर पाया।
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SADAK PAR MORCHA (Poems)
Edited by Ramprakash Kushwaha, Rajendra Rajan
उन किसानों की स्मृति को समर्पित
जिन्होंने तीन कृषि क़ानूनों के ख़िलाफ़
चले आन्दोलन के दौरान
अपनी जान गँवायी
Language | Hindi |
---|---|
Binding | Paperback |
ISBN | 978-93-6201-629-4 |
Pages | 168 |
Publisher | Setu Prakashan Samuh |
Editor | Ramprakash Kushwaha, Rajendra Rajan |
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कुंदन सिद्धार्थ की कविता कम शब्दों में अपने तरक़्क़ीपसन्द मन्तव्यों की स्पष्ट, मार्मिक एवं सार्थक अभिव्यक्ति है। इन कविताओं के मूल में मानवीय संवेदन और उपचार में मानवीय सरोकार हैं। कवि के इस पहले संग्रह का हिन्दी जगत् में इसलिए भी स्वागत किया जाना चाहिए क्योंकि ये कविताएँ वे आँखें हैं जो जितना देखती हैं उससे कहीं अधिक हैं।
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दलित साहित्यान्दोलन के समक्ष बाहरी चुनौतियाँ तो हैं ही, आन्तरिक प्रश्न भी मौजूद हैं। तमाम दलित जाति-समुदायों के शिक्षित युवा सामने आ रहे हैं। ये अपने कुनबों के प्रथम शिक्षित लोग हैं। इनके अनुभव कम विस्फोटक, कम व्यथापूरित, कम अर्थवान नहीं हैं। इन्हें अनुकूल माहौल और उत्प्रेरक परिवेश उपलब्ध कराना समय की माँग है। वर्गीय दृष्टि से ये सम्भावनाशील रचनाकार सबसे निचले पायदान पर हैं। यह ज़िम्मेदारी नये मध्यवर्ग पर आयद होती है कि वह अपने वर्गीय हितों के अनपहचाने, अलक्षित दबावों को पहचाने और उनसे हर मुमकिन निजात पाने की कोशिश करे। ऐसा न हो कि दलित साहित्य में अभिनव स्वरों के आगमन पर वर्गीय स्वार्थ प्रतिकूल असर डालने में सफल हों।
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सपना भट्ट की कविताओं से गुजरते हुए वाल्टर पीटर होराशियो का यह कथन कि ‘All art constantly aspires towards the condition of music’ बराबर याद आता है। समकालीन कविता में ऐसी संगीतात्मकता बिरले ही दिखाई पड़ती है। यह कविताएँ एक मद्धम सिम्फनी की तरह शुरू होती हैं, अन्तर्निहित संगीत और भाषा का सुन्दर वितान रचती हैं और संगीत की ही तरह कवि मन के अनन्त मौन में तिरोहित हो जाती हैं। पूरे काव्य में ध्वनि, चित्र, संकोच, करुणा, विनय और ठोस सच्चाइयाँ ऐसे विन्यस्त कि कुछ भी अतिरिक्त नहीं। यह कविताएँ ठण्डे पर्वतों और उपत्यकाओं के असीमित एकान्त के बीच से जैसे तैरती हुई हमारी ओर आती हैं। इन सुन्दर कविताओं में कामनाहीन प्रेम की पुकारें, रुदन, वृक्षों से झरती पत्तियाँ और इन सब कुछ पर निरन्तर गिरती बर्फ जैसे अनगिनत विम्ब ऐसे घुले मिले हैं कि चित्र और राग संगीत, एकसाथ कविताओं से पाठक के मन में कब चले आते हैं पता ही नहीं चलता। यह कविताएँ किस पल आपको अपने भीतर लेकर बदल देती हैं यह जानना लगभग असम्भव है।
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