Shivling Calling by Kundan Jagdish Sahu
शिवलिंग कॉलिंग – कुंदन जगदीश साहू
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हिन्दी में ऐसे आख्यान गिने-चुने ही होंगे जिन्हें हम किसी साहसिक अभियान की कथा कह सकें। इस लिहाज से कुंदन जगदीश साहू की यह कृति खासी उल्लेखनीय है। काफी पठनीय भी। लेखक के मुताबिक शिवलिंग कॉलिंग की कहानी उन्होंने मूल रूप में उत्तराखण्ड में एक होटल के एक रूमबॉय से सुनी थी जिसमें काल्पनिक अंश जोड़कर उन्होंने यह वृत्तान्त रचा। रूमबॉय वाली बात क्या पता कथा कहने का बहाना भी हो सकती है। जो हो, यह रचना लेखक की अपनी कल्पनाशीलता और रचनात्मक उद्यम की देन है। लेखक ने खुद कहा है, इसमें जिस साहसिक अभियान का वर्णन है वह पूरी तरह काल्पनिक है।
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Shivling Calling by Kundan Jagdish Sahu
शिवलिंग कॉलिंग – कुंदन जगदीश साहू
Author | Kundan Jagdish Sahu |
---|---|
Binding | Paperback |
Language | Hindi |
ISBN | 9788119127634 |
Pages | 318 |
Publication date | 10-02-2024 |
Publisher | Setu Prakashan Samuh |
गीता प्रेस और हिन्दू भारत का निर्माण – अक्षय मुकुल
अनुवाद : प्रीती तिवारी
पुस्तक के बारे में…
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जिनकी मुट्ठियों में सुराख था
जिनकी मुट्ठियों में सुराख था नीलाक्षी सिंह द्वारा लिखित कहानी-संग्रह है। नीलाक्षी सिंह की कहानियाँ अपने कथ्य और शिल्प में असाधारण हैं। इसकी बड़ी वजहों में एक यह है कि जिन विवरणों के सहारे ये कथ्य और शिल्प का निर्माण करती हैं, उसकी द्विध्रुवीयता एक पाठक के रूप में हमें आमंत्रित करती है।
Bharat Ka Swadharam By Dharampal (Paperback)
भारत का स्वधर्म – धर्मपाल
भारत का स्वधर्म औपनिवेशिक शासन और मानसिकता के कारण भारतीय समाज में आ गई विकृतियों को रेखांकित करता है।
वामपन्थी वैचारिकता से प्रतिबद्धता जोड़ लेना लेखकों-बुद्धिजीवियों में एक विश्वव्यापी रोग रहा है। प्रायः यह प्रतिबद्धता बिना अधिक सोचे-विचारे बमती रही। बुद्धिजीवियों की अफीम इसी रोग का एक संक्षिप्त, पर भूमंडलीय विश्लेषण है। यह पुस्तक लम्बे समय से महसूर की जा रही एक कमी पूरी करती है। सोवियत विघटन के बाद भी भारत में माक्र्सवादी वैचारिकता का पुनर्मूल्यांकन नितान्ना अपर्याप्त रहा है। यह उसकी भरपाई का भी प्रयास है।
यह पुस्तक साहित्य, राजनीति, इतिहास, दर्शन और मनोविज्ञान आदि सभी विषयों की सीमा में आती है। बामपन्थी विचारधारा से दुनिया भर में साहित्यकारों का सम्बा, बचकाना सम्मोहन इसका केन्द्रीय विषय है। मुख्यतः रुप्मी, भारतीय, अमेरिकी और चीनी लेखकों के अनुभवों, अवलोकनों पर आधारित यह एक प्रामाणिक विश्लेषण है। इसमें अलेक्सांद्र सोल्नलिसन हावर्ड फास्ट, अज्ञेय, अलेक्जेंडर फादेयेव, बोरिस पोलोई, राज थापर, ती ता-लिंग आदि अनेक विख्यात लेखकों, बुद्धिजीवियों के अपने आकलन और साक्ष्य के कई रोमांचक प्रसंग जुड़े हैं। सम्पूर्ण प्रस्तुति साहित्यिक शैली में होने से यह जितनी रोचक है. उतनी ही मूल्यवान और ज्ञानवर्द्धक भी। समाज-विज्ञान के विद्यार्थियों और गम्भीर अध्येताओं के लिए भी यह समान रूप से उपादेय। साम्यवाद के सिद्धान्त और व्यवहार के आलोचनात्मक अध्ययन में एक महत्वपूर्ण हिन्दी अवदान।
पुरखा पत्रकार का बाइस्कोप
यह एक अद्भुत किताब है. इतिहास, पत्रकारिता, संस्मरण, महापुरुषों की चर्चा, शासन, राजनीति और देश के विभिन्न हिस्सों की संस्कृतियों का विवरण यानि काफी कुछ. लेकिन सबसे महत्वपूर्ण है इसका कालखंड. पढ़ने की सामग्री के लिहाज से 1857 के प्रथम स्वतंत्रता संग्राम के बाद से देश के राजनैतिक क्षितिज पर गांधी के उदय तक का दौर बहुत कुछ दबा-छुपा लगता है. अगर कुछ उपलब्ध है तो उस दौर के कुछ महापुरुषों के प्रवचन, उनसे जुड़ा साहित्य और उनके अपने लेखन का संग्रह. लेकिन उस समय समाज मेँ, खासकर सामाजिक जागृति और आध्यात्मिक विकास के क्षेत्र में काफी कुछ हो रहा था. अंग्रेजी शासन स्थिर होकर शासन और समाज में काफी कुछ बदलने में लगा था तो समाज के अन्दर से भी जवाबी शक्ति विकसित हो रही थी जिसका राजनैतिक रूप गांधी और कांग्रेस के साथ साफ हुआ. यह किताब उसी दौर की आंखों देखी और भागीदारी से भरे विवरण देती है. इसीलिए इसे अद्भुत कहना चाहिए.
एक साथ तब का इतना कुछ पढ़ने को मिलता नहीं. कुछ भक्तिभाव की चीजें दिखती हैं तो कुछ सुनी सुनाई. यह किताब इसी मामले में अलग है. इतिहास की काफी सारी चीजों का आंखों देखा ब्यौरा, और वह भी तब के एक शीर्षस्थ पत्रकार का, हमने नहीं देखा-सुना था. इसमें 1857 की क्रांति के किस्से, खासकर कुँअर सिंह और उनके भाई अमर सिंह के हैं, लखनऊ ने नवाब वाजिद अली शाह को कलकता की नजरबन्दी के समय देखने का विवरण भी है और उसके बाद की तो लगभग सभी बडी घटनाएं कवर हुई हैं. स्वामी रामकृष्ण परमहंस की समाधि का ब्यौरा हो या ब्रह्म समाज के केशव चन्द्र सेन के तूफानी भाषणों का, स्वामी विवेकानन्द की यात्रा, भाषण और चमत्कारिक प्रभाव का प्रत्यक्ष ब्यौरा हो या स्वामी दयानन्द के व्यक्तित्व का विवरण. ब्रिटिश महाराजा और राजकुमार के शासकीय दरबारों का खुद से देखा ब्यौरा हो या कांग्रेस के गठन से लगातार दसेक अधिवेशनों में भागीदारी के साथ का विवरण- हर चीज ऐसे लगती है जैसे लेखक कोई पत्रकार न होकर महाभारत का संजय हो.
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विश्व की बारह स्त्री कवियों द्वारा लिखी गयी चुनिन्दा कविताओं के अनुवाद का प्रस्तुत संचयन हिन्दी में अपनी तरह का पहला संग्रह है। यहाँ प्रत्येक कवि अपने काव्य की चारित्रिक विशेषताओं के साथ उपस्थित है, और समग्रतः स्त्री-विश्व का ऐसा दृश्यालेख भी, जो मनुष्यत्व से अभिन्न व जीवनमय है।
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श्री सुशील कुमार शिन्दे की आत्मकथा का प्रकाशन बड़ी ख़ुशी की बात है। मुझे यक़ीन है कि यह पिछली आधी सदी और उससे भी ज्यादा के राजनीतिक एवं सामाजिक इतिहास को समझने में हमारी मदद करेगी।
तृतीय सेतु पाण्डुलिपि पुरस्कार योजना के तहत पुरस्कृत कृति
दक्षिण अफ्रीका से गांधी भारत वापस आए तब से ही वे भारतीय राजनीति, समाज, दर्शन और जीवन-पद्धति की केन्द्रीय धुरियों में एक रहे। इन तमाम क्षेत्रों में उनका हस्तक्षेप युगान्तकारी रहा। करीब तीन दशकों तक आजादी की लड़ाई का केन्द्रीय नेतृत्व उनके ही हाथों में रहा। गांधी लगातार खुद को परिष्कृत करते रहे। बहुत कुछ किया; जब गलती हुई तो सीखा, सुधार किया और आगे बढ़े। उनके सिद्धान्त दीखने में बहुत सरल थे- मसलन सत्य, अहिंसा, निष्काम कर्म इत्यादि, मगर उनका पालन बहुतों के लिए मुश्किलों में डालने वाला भी रहा। सत्याग्रह और संघर्ष के ये औजार आजादी के बाद पायी गयी सत्ता के समीकरण में बाधक प्रतीत होने लगे। ‘गांधी के बहाने’ पुस्तक गांधीवादी सिद्धान्तों का पुनराविष्कार या पुनश्चर्या या पारायण नहीं है, वह उन सिद्धान्तों के मर्म की खोज करते हुए उन्हें आज के व्यावहारिक जीवन के आलोक में जाँचती है। पराग मांदले के इस गम्भीर प्रयास का पाठकों द्वारा स्वागत होगा, ऐसी उम्मीद की जानी चाहिए।
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मुहम्मद अली जिन्ना भारत विभाजन के सन्दर्भ में अपनी भूमिका के लिए निन्दित और प्रशंसित दोनों हैं। साथ ही उनकी मृत्यु के उपरान्त उनके इर्द- गिर्द विभाजन से जुड़ी अफवाहें खूब फैलीं।
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यह पुस्तक एक जीवनी है और इस विधा में अपनी विशिष्ट जगह बना चुकी है। समकालीन भारत के सबसे जाने-पहचाने इतिहासकार रामचन्द्र गुहा की लिखी महात्मा गांधी की जीवनी कितनी बार पढ़ी गयी और चर्चित हुई। लेकिन गुहा की कलम से रची गयी पहली जीवनी वेरियर एल्विन (1902- 1964) की थी। यह एक ऐसे व्यक्ति की कहानी है जो ऑक्सफोर्ड विश्वविद्यालय से पढ़ाई समाप्त करके ईसाई प्रचारक के रूप में भारत आया। फिर यहीं का होकर रह गया। वह धर्म प्रचार छोड़कर गांधी के पीछे चल पड़ता है। उसने भारतीय आदिवासियों के लिए अपना जीवन समर्पित कर दिया। वह उन्हीं में विवाह करता है। भारत की नागरिकता लेता है और अपने समर्पित कार्यों की बदौलत भारत के प्रथम प्रधानमन्त्री पण्डित जवाहरलाल नेहरू का विश्वास जीतता है। साथ ही उस विश्वास पर खरा उतरता है।
एल्विन का जीवन आदिवासियों के लिए समर्पण की वह गाथा है जिसमें एक बुद्धिजीवी अपने तरीके का ‘एक्टिविस्ट’ बनता है तथा अपनी लेखनी और करनी के साथ आदिवासियों के बीच उनके लिए जीता है। यहाँ तक कि स्वतन्त्रता सेनानियों में भी ऐसी मिसाल कम ही है।
रामचन्द्र गुहा ने वेरियर एल्विन की जीवनी के साथ पूर्ण न्याय किया है। मूल अँग्रेजी में लिखी गयी पुस्तक आठ बार सम्पादित हुई। मशहूर सम्पादक रुकुन आडवाणी के हाथों और निखरी। जीवनी के इस उत्तम मॉडल में एल्विन के जीवन को उसकी पूर्णता में उभारा गया है और शायद ही कोई पक्ष अछूता रहा है।
एल्विन एक बहुमुखी प्रतिभा के व्यक्तित्व थे। वे मानव विज्ञानी, कवि, लेखक, गांधीवादी कार्यकर्ता, सुखवादी, हर दिल अजीज दोस्त और आदिवासियों के हितैषी थे। भारत को जानने और चाहने वाले हर व्यक्ति को एल्विन के बारे में जानना चाहिए ! यह पुस्तक इसमें नितान्त उपयोगी है।
राम गुहा ने इस पुस्तक के द्वितीय संस्करण में लिखा है कि किसी लेखक के लिए उसकी सारी किताबें वैसे ही हैं जैसे किसी माता- पिता के लिए उनके बच्चे। यानी किसी एक को तरजीह नहीं दी जा सकती और न ही कोई एक पसन्दीदा होता है। फिर भी वो अपनी इस किताब को लेकर खुद का झुकाव छुपा नहीं पाये हैं। ऐसा लगता है गुहा अपील करते हैं कि उनकी यह किताब जरूर पढ़ी जानी चाहिए। और क्यों नहीं ?
1970-80 के दशक में बनायी गयी समान्तर सिनेमा की पिक्चरें ‘कला फ़िल्में’ कहलाती थीं। नसीरुद्दीन शाह, स्मिता पाटिल, शबाना आजमी, ओम पुरी, फारूख शेख, पंकज कपूर, अनन्त नाग, गिरीश कर्नाड आदि के चेहरे नियमित रूप से उनमें नजर आते। उन फ़िल्मों ने दर्शकों की सामाजिक चेतना और कलात्मक रुचियों को जगाया था और फ़िल्म माध्यम से उनकी अपेक्षाओं को उठाया था। यह किताब भारत के उसी समान्तर सिनेमा आन्दोलन के प्रति अनुराग और अतीत-मोह का परिणाम है और उस भूले-बिसरे पैरेलल सिनेमा के प्रति आदरांजलि है। उसकी भावभीनी याद आज भी अनेक फ़िल्म-प्रेमियों के मन में बसी होगी, और यह किताब उसी याद को पुकारती है। किताब की एक विशिष्टता उसमें भारतीय कला- सिनेमा के शलाका-पुरुष मणि कौल की फ़िल्मों पर एकाग्र पूरा खण्ड है। मणि की 12 फ़िल्मों पर लिखी इन टिप्पणियों को उनके रूपवादी-सिनेमा पर एक सुदीर्घ- निबन्ध की तरह भी पढ़ा जा सकता है।
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औपनिवेशिक भारत में स्तूपों की खुदाई, शिलालेखों और पाण्डुलिपियों के अध्ययन ने बुद्ध को भारत में पुनर्जीवित किया। वरना एक समय यूरोप उन्हें मिस्त्र या अबीसीनिया का मानता था। 1824 में नियुक्त नेपाल के ब्रिटिश रेजिडेण्ट हॉजसन बुद्ध और उनके धर्म का अध्ययन आरम्भ करने वाले पहले विद्वान थे। महान बौद्ध धर्म भारत से ऐसे लुप्त हुआ जैसे वह कभी था ही नहीं। ऐसा क्यों हुआ, यह अभी भी अनसुलझा रहस्य है। चंद्रभूषण बौद्ध धर्म की विदाई से जुड़ी ऐतिहासिक जटिलताओं को लेकर इधर सालों से अध्ययन-मनन में जुटे हैं। यह पुस्तक इसी का सुफल है। इस यात्रा में वह इतिहास के साथ-साथ भूगोल में भी हैं। जहाँ वेदों, पुराणों, यात्रा-वृत्तान्तों, मध्यकालीन साक्ष्यों तथा अद्यतन अध्ययनों से जुड़ते हैं, वहीं बुद्धकालीन स्थलों के सर्वेक्षण और उत्खनन को टटोलकर देखते हैं। वह विहारों में रहते हैं, बौद्ध भिक्षुओं से मिलते हैं, उनसे असुविधाजनक सवाल पूछते हैं और इस क्रम में समाज की संरचना नहीं भूलते। जातियाँ किस तरह इस बदलाव से प्रभावित हुई हैं, इसकी अन्तर्दृष्टि सम्पन्न विवेचना यहाँ आद्योपान्त है।
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वैश्विक आतंकवाद और भारत की अस्मिता – राम पुनियानी (सम्पादक रविकान्त)
जरूरत इस बात की है कि हम केवल आतंकवाद के लक्षणों को न देखें बल्कि उस रोग का पता लगाने की कोशिश करें, जो आतंकवाद के उदय का मूल कारण है। केवल सुरक्षा व्यवस्था को कड़ा करने से काम नहीं चलेगा क्योंकि अधिकतर आतंकवादी अपने लक्ष्य की प्राप्ति के लिए अपना जीवन खोने के लिए तत्पर रहते हैं। हमने यह भी देखा है कि कुछ वैश्विक ताकतें आतंकवाद को प्रोत्साहन देती हैं और आतंकी संगठनों की मदद करती हैं। इसलिए यह आवश्यक है कि वैश्विक स्तर पर संयुक्त राष्ट्र संघ को और मजबूत बनाया जाए ताकि यह संगठन उन देशों के विरुद्ध कार्रवाई कर सके जो आतंकवादियों को शरण दे रहे हैं। अपने देश के स्तर पर हमें यह सुनिश्चित करना होगा कि आतंकी हमलों के सभी दोषियों को बिना किसी भेदभाव के उनके किये की सजा मिले। हमें यह भी सुनिश्चित करना होगा कि हमारी राजनीति नैतिक मूल्यों पर आधारित हो। जो तत्त्व व शक्तियाँ यह दावा कर रही हैं कि ये किसी धर्म विशेष या धर्म-आधारित राष्ट्रवाद की रक्षक हैं, उन्हें हमें सिरे से खारिज करना होगा। धर्म एक निजी मसला है और उसका राजनीति से घालमेल किसी तरह भी उचित नहीं कहा जा सकता। हमारी राजनीतिक व्यवस्था का आधार स्वतन्त्रता, समानता व बन्धुत्व के मूल्य होने चाहिए। अन्तरराष्ट्रीय स्तर पर वैश्विक प्रजातन्त्र की स्थापना की जरूरत है जिससे चन्द देश पूरी दुनिया पर अपनी दादागिरी न चला सकें।
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Safar mein dhoop to hogi By Nida Fazli
उन के जैसी प्यारी और फ़ौरन एक लतीफ़ घण्टियों के से बज उठने का रद्दे-अमल (प्रतिक्रिया) पैदा करने वाली शाइरी किसी की नहीं है।
– शम्स उर रहमान फारुकी
मेरे खयाल में जदीद शाइरी कल जिन नामों से जानी जायेगी उन में एक नाम निदा फाजली होगा। निदा ने अपना रिश्ता खड़ी बोली की रिवायत से जोड़ा है। उन्होंने अरबी-फ़ारसी के मुश्किल अल्फाज से दामन बचाया है। बेतकल्लुफ जबान में पते की बात कहने का हुनर उन्होंने भक्ति-अहद के कवियों से हासिल किया है। निदा रहते तो शहर में हैं लेकिन बसे हुए हैं गांव में, इसलिये अगर उन्हें गुम होते हुए घरों का शाइर कहें तो गलत नहीं होगा।
– शीन काफ निजाम
यह संयोग की बात नहीं है कि उर्दू के कुछ जदीद शायरों ने तो हिंदी और उर्दू की दीवार ही ढहाकर रख दी और ऐसे जदीदियों में निदा फ़ाजली का नाम सब से पहले लिया जायेगा।
— शानी
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Balram Kohad
BEHAD HI SHANDAR KAHANI JO APNI PAKAD SHURU SE ANT TAK BANAYE RAKHTI HAI….ISPAR YAKINAN FILM BAN SAKTI HAI… JO BADE PARDE PAR KAMAL KAR SAKTI HAI…..KAHANIKAAR KUNDANJI SAHOO NE EK EK CHARTIRA KO BAKHUBI PIROYA HAI….KAHANI PADH KAR MAJA AA GAYA…..NAI RACHNA KI PRATIKSHA RAHEGI…