Setu Samagra – Kahani By Devendra
Setu Samagra – Kahani By Devendra – Hardcover
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चर्चित कहानीकार देवेन्द्र की अब तक की सभी कहानियाँ एकसाथ प्रकाशित करना हमारे लिए खुशी का अवसर है। देवेन्द्र की कहानियों ने बार-बार इस बात की पुष्टि की है कि वह एक सधे हुए कथाशिल्पी हैं। जैसा कि कई आलोचकों ने भी लक्षित किया है, दृश्य-बन्ध का रचाव उनकी कहानियों की ताकत है और यह पाठक को बरबस खींचे रहती है। वह एक आत्मसजग कथाकार हैं। जाहिर है, देवेन्द्र के यहाँ जितना रचाव से सरोकार है उतना ही सरोकार का रचाव भी। उनकी कहानियों की अन्तर्वस्तु का दायरा काफी विस्तृत है। कहीं शिक्षा जगत में भाई-भतीजावाद, भ्रष्टाचार और भेदभाव का बोलबाला है तो कहीं सत्ता की शह पर साम्प्रदायिक हिंसा का नंगा नाच और कहीं जातिगत विषमता का दंश। यही नहीं, इस सब से निजात दिलाने का दम भरती प्रगतिशील राजनीति की कमजोरियों की शिनाख्त करने में भी देवेन्द्र ने संकोच नहीं किया है। क्रान्ति की तड़प में निकले युवा के मोहभंग को भी उन्होंने उतनी ही शिद्दत से चित्रित किया है जितनी प्रतिगामी राजनीति की शातिर चालों को। वह विद्रूप का महज मखौल नहीं उड़ाते, स्थितियों के विद्रूप बनते जाने के कारणों को भी चिह्नित करते हैं। हर लिहाज से वह हमारे समय के एक महत्त्वपूर्ण कथाकार जानी चाहिए कि 'सेतु समग्र ' के रूप में उनकी सभी कहानियों की एकसाथ उपलब्धता का उत्साहपूर्ण स्वागत होगा।
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परिंदे का इंतजार-सा कुछ –नीलाक्षी सिंहनीलाक्षी सिंह हिन्दी के विशिष्ट कहानीकारों में हैं। वे अपने समय की संवेदना को मौलिक ढंग से परखते हुए उसे उसकी बेलौस सान्द्रता के साथ अभिव्यक्त करती हैं। वे उन विरल रचनाकारों में हैं जिन्होंने ‘ग्लोबल’ और ‘लोकल’ के सम्बन्ध एवं संघात को सफलतापूर्वक अपनी कहानियों में पिरोया है। युवा-सम्बन्ध, प्रेम, परिवार, बाजार, साम्प्रदायिकता को विषय बनाते हुए कहीं भी उनमें सेकण्डरी इमेजिनेशन नहीं झलकता है। हमारे निकट अतीत से नितान्त वर्तमान तक बाजार तथा धर्म ने जिस तरह आमूल रूप से जीवन को बदल दिया है; लालसा और भोग का विकट विस्तार हुआ है; हर सम्बन्ध विषम जद्दोजहद में फँस गया है उसकी फर्स्ट हैण्ड अभिव्यक्ति नीलाक्षी के यहाँ है। भूमण्डलीकरण को विषय बनाती उनकी ‘प्रतियोगी’ शीर्षक कहानी क्लासिक की ऊँचाई को छूती है। इस कहानी को जहाँ अभिधा में पढ़ा जा सकता है वहीं समय के मेटाफर के रूप में भी। कहानी में नये आक्रामक बाजार के प्रतिनिधि ‘फास्ट फूड’ के बरअक्स जलेबी, कचरी और पिअजुआ स्थानीय संस्कृति और प्रतिरोध का मेटाफर बन जाते हैं। इस भूमण्डलवादी बाजार की जद में वस्तु की सत्ता ही नहीं नितान्त मानवीय भावनात्मक सत्ता भी है। दो मूल्य दृष्टियों के बीच बँट गये दम्पति यहाँ परस्परता खोकर प्रतियोगी बन जाते हैं।
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