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  • Adyawadhi : Shambhu Maharaj Ki Jeevani

    शम्भू महाराज की जीवनी “अद्यावधि”

    जोशना बैनर्जी आडवानी 

    रज़ा फ़ाउण्डेशन पिछले कुछ वर्षों से, मुख्यतः हिन्दी में, हमारे समय के साहित्य और कलाओं के कुछ मूर्धन्यों की जीवनियाँ लिखवाने और प्रकाशित करने का एक प्रोजेक्ट चला रहा है। कवि जोशना बैनर्जी आडवानी ने कथक मूर्धन्य शम्भू महाराज की यह जीवनी मनोयोग, अध्यवसाय और अपने कथक प्रशिक्षण का सदुपयोग करते हुए लिखी है। प्रामाणिक सामग्री का, ऐसे प्रकरणों में, अभाव सर्वविदित है पर जीवनीकार ने बहुत सारे लोगों से, उनके संस्मरणों आदि के सहारे जो जीवनी लिखी है वह संयोगवश एक मूर्धन्य कलाकार और गुरु पर पहली प्रामाणिक पुस्तक भी है। – अशोक वाजपेयी


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  • Nainsukh : Samantar Cinema Ka Punaravalokan By Sushobhit

    नैनसुख

    समान्तर सिनेमा का पुनरावलोकन  (लेखक:सुशोभित)


    1970-80 के दशक में बनायी गयी समान्तर सिनेमा की पिक्चरें ‘कला फ़िल्में’ कहलाती थीं। नसीरुद्दीन शाह, स्मिता पाटिल, शबाना आजमी, ओम पुरी, फारूख शेख, पंकज कपूर, अनन्त नाग, गिरीश कर्नाड आदि के चेहरे नियमित रूप से उनमें नजर आते। उन फ़िल्मों ने दर्शकों की सामाजिक चेतना और कलात्मक रुचियों को जगाया था और फ़िल्म माध्यम से उनकी अपेक्षाओं को उठाया था। यह किताब भारत के उसी समान्तर सिनेमा आन्दोलन के प्रति अनुराग और अतीत-मोह का परिणाम है और उस भूले-बिसरे पैरेलल सिनेमा के प्रति आदरांजलि है। उसकी भावभीनी याद आज भी अनेक फ़िल्म-प्रेमियों के मन में बसी होगी, और यह किताब उसी याद को पुकारती है। किताब की एक विशिष्टता उसमें भारतीय कला- सिनेमा के शलाका-पुरुष मणि कौल की फ़िल्मों पर एकाग्र पूरा खण्ड है। मणि की 12 फ़िल्मों पर लिखी इन टिप्पणियों को उनके रूपवादी-सिनेमा पर एक सुदीर्घ- निबन्ध की तरह भी पढ़ा जा सकता है।


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  • Janrav Edited by Vishal Srivastava

    जनरव

    (जनवादी लेखक संघ, उत्तर प्रदेश के कवियों की कविताओं का साझा संग्रह)

    इस पूरे संग्रह में हिन्दी के समकालीन परिदृश्य में मौजूद प्रतिबद्ध कवियों के काव्य-वैविध्य का एक व्यापक जायज़ा मिलता है। न केवल वय की दृष्टि से बल्कि जीवनानुभवों और अभिव्यक्ति के दृष्टिकोण से भी एक विपुल वैविध्य यहाँ उपस्थित है। आशा है कि यह संग्रह अपनी कविताओं के माध्यम से समकालीन हिन्दी कविता के व्यापक परिदृश्य में एक सार्थक हस्तक्षेप करने में समर्थ होगा। – भूमिका से


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  • Purkha Patrkaar Ka Bioscope By Nagendra Nath Gupta

    पुरखा पत्रकार का बाइस्कोप

    यह एक अद्भुत किताब है. इतिहास, पत्रकारिता, संस्मरण, महापुरुषों की चर्चा, शासन, राजनीति और देश के विभिन्न हिस्सों की संस्कृतियों का विवरण यानि काफी कुछ. लेकिन सबसे महत्वपूर्ण है इसका कालखंड. पढ़ने की सामग्री के लिहाज से 1857 के प्रथम स्वतंत्रता संग्राम के बाद से देश के राजनैतिक क्षितिज पर गांधी के उदय तक का दौर बहुत कुछ दबा-छुपा लगता है. अगर कुछ उपलब्ध है तो उस दौर के कुछ महापुरुषों के प्रवचन, उनसे जुड़ा साहित्य और उनके अपने लेखन का संग्रह. लेकिन उस समय समाज मेँ, खासकर सामाजिक जागृति और आध्यात्मिक विकास के क्षेत्र में काफी कुछ हो रहा था. अंग्रेजी शासन स्थिर होकर शासन और समाज में काफी कुछ बदलने में लगा था तो समाज के अन्दर से भी जवाबी शक्ति विकसित हो रही थी जिसका राजनैतिक रूप गांधी और कांग्रेस के साथ साफ हुआ. यह किताब उसी दौर की आंखों देखी और भागीदारी से भरे विवरण देती है. इसीलिए इसे अद्भुत कहना चाहिए.

    एक साथ तब का इतना कुछ पढ़ने को मिलता नहीं. कुछ भक्तिभाव की चीजें दिखती हैं तो कुछ सुनी सुनाई. यह किताब इसी मामले में अलग है. इतिहास की काफी सारी चीजों का आंखों देखा ब्यौरा, और वह भी तब के एक शीर्षस्थ पत्रकार का, हमने नहीं देखा-सुना था. इसमें 1857 की क्रांति के किस्से, खासकर कुँअर सिंह और उनके भाई अमर सिंह के हैं, लखनऊ ने नवाब वाजिद अली शाह को कलकता की नजरबन्दी के समय देखने का विवरण भी है और उसके बाद की तो लगभग सभी बडी घटनाएं कवर हुई हैं. स्वामी रामकृष्ण परमहंस की समाधि का ब्यौरा हो या ब्रह्म समाज के केशव चन्द्र सेन के तूफानी भाषणों का, स्वामी विवेकानन्द की यात्रा, भाषण और चमत्कारिक प्रभाव का प्रत्यक्ष ब्यौरा हो या स्वामी दयानन्द के व्यक्तित्व का विवरण. ब्रिटिश महाराजा और राजकुमार के शासकीय दरबारों का खुद से देखा ब्यौरा हो या कांग्रेस के गठन से लगातार दसेक अधिवेशनों में भागीदारी के साथ का विवरण- हर चीज ऐसे लगती है जैसे लेखक कोई पत्रकार न होकर महाभारत का संजय हो.


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    176.00235.00
  • Vimarsh Aur Vyaktitva By Virendra Yadav

    वीरेन्द्र यादव हमारे समय के हिन्दी के प्रख्यात समालोचक हैं, खासकर कथा आलोचना में वह बराबर सक्रिय रहे हैं। साथ ही वे जुझारू, निर्भीक बौद्धिक हैं, जो अपनी बात बेहद साफगोई से रखते हैं। उनके ये दोनों गुण इस पुस्तक में एकसाथ हैं। इसलिए उनकी यह पुस्तक आलोचना तक सीमित नहीं है। इसमें जहाँ मूल्यांकनपरक लेख और व्याख्यान शामिल हैं, वहीं कुछ समकालीनों तथा अग्रज पीढ़ी के लेखकों के संस्मरण भी हैं। जैसा कि किताब के नाम से भी जाहिर है, इसमें हमः विमर्श से भी रूबरू होते हैं और व्यक्तित्वों से भी। विमर्श का दायरा विस्तृत है। इसमें प्रेमचन्द, गुण्टर ग्रास, नीरद चौधरी, पूरन चन्द जोशी, कृष्णा सोबती, राजेन्द्र यादव, डॉ धर्मवीर और अरुन्धति राय के चिन्तन की पड़ताल है तो गीतांजलि श्री के कथा सरोकार की भी। कहना न होगा कि पुस्तक में शामिल निबन्ध, साक्षात्कार आदि सन्दर्भित विषय के बारे में पाठक को पर्याप्त सूचनाएँ भी देते हैं और अधिक गहराई से सोचने-समझने में मदद भी करते हैं। अनेक व्यक्तित्वों के बारे में वीरेन्द्र यादव ने अपनी यादें यहाँ साझा की हैं। स्वाभाविक ही इन्हें पढ़ते हुए अधिकतर लखनऊ और कहीं-कहीं इलाहाबाद के उन दिनों के साहित्यिक परिवेश की झाँकी भी मिलती चलती है। लेकिन अनेक संस्मरण ऐसे भी हैं जो सम्बन्धित रचनाकार के विशिष्ट योगदान को भी रेखांकित करते चलते हैं। जहाँ भी जरूरी लगा, लेखक ने अपनी असहमतियाँ भी दो टूक दर्ज की हैं। इसमें दो राय नहीं कि लेखों, व्याख्यानों, संस्मरणों तथा भेंटवार्ताओं से बनी यह किताब बेहद पठनीय है।


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  • …Hajir Ho : Adhunik Nyayik Dayre Mein Ramayana Ki Punaryatra

    यह किताब प्रयोग और मौलिकता के पैमाने पर बहुत उच्चस्तर पर दिखाई देती है। मेरी जानकारी में किसी भी व्यक्ति ने इससे पहले प्राचीन काल के नायकों या पात्रों को आधुनिक जगत् के आपराधिक कानूनों की कसौटी पर नहीं परखा है। इसमें अहिल्या और मन्थरा जैसे पात्रों का चयन किया गया है, जिनके नाम हर बच्चे और आम आदमी की जुबान पर हैं। उनके लिए वास्तविक जीवन की कल्पना भी जीवन्त की गयी है। भारतीय दण्ड संहिता (इसका नाम 01 जुलाई 2024 से भारतीय न्याय संहिता कर दिया गया है)- की धाराओं का शायद इस पुस्तक में बहुत महत्त्व नहीं है, हालाँकि कुछ लोग इस बिन्दु पर मुझसे असहमति जता सकते हैं। मेरे विचार में सबसे ज्यादा महत्त्व विभिन्न प्रकार के मूल्यवान निर्णयों का है, जिन्हें लेखक ने प्रत्येक पात्र के चरित्र को गढ़ने के लिए कुशलता से बाँधा है। इन पात्रों को पूरी तरह मानवीय दिखाया गया है। यही दोनों महाकाव्यों-रामायण और महाभारत का केन्द्र बिन्दु है कि भले ही ये हमारे आदर्शों की कमियों को पूरी तरह ढकते नहीं हैं, लेकिन नैतिक, राजनीतिक और सामाजिक सन्देश जरूर देते हैं। व्यक्तिपरकता के माध्यम से इस प्रकार के मूल्यवान निर्णय तैयार करने में लेखक बोर नहीं हुआ है। उदाहरण के लिए, मन्थरा को अपना धर्म निभाने के लिए प्रशंसा हासिल हो सकती है, भले ही इसका परिणाम बुराई था। उसकी निष्ठा कभी नहीं डगमगायी और लक्ष्य कभी आँखों से दूर नहीं हुआ। इसी तरह, रावण भी असाधारण योग्यताओं का स्वामी था। मृत्युकारक दोषों के साथ इन योग्यताओं ने उसके जीवन को ‘ग्रे’ बना दिया था, न ज्यादा खराब और न ज्यादा अच्छा। मेरा धर्म, जैन धर्म है, जिसने समय और दूरी के आपसी सम्बन्ध के बारे में सबसे पहले बताया और यही सम्बन्ध वास्तविक दुनिया की चीज है और वास्तविक कहानियों को सामने लाता है; व्यावहारिक ज्ञान के बिना सुनाई जाने वाली कहानियों के विपरीत ! विवाह और आधुनिक कानून की कमियाँ, प्राचीन पौराणिक व्यक्तित्व और प्रतिदिन होने वाली गम्भीर भूलें हमारे कानून की कमी के बारे में बताने वाले कुछ बिन्दु हैं। ऐसी कमियाँ कि यह कानून असली अपराधी को नहीं ढूँढ़ पाता और सजा का निपटारा प्रभावशाली तरीके से करता है। क्या शूर्पणखा, उसपर आरोप लगाने वालों से अधिक दोषी थी ? क्या सीता पर मुकदमा वाकई समाज पर मुकदमा चलाने के बराबर है? भले ही इन प्रश्नों को कभी खुलकर नहीं पूछा गया, लेकिन पुस्तक में कहीं न कहीं इशारे में मिल जाते हैं; सतह के नीचे बमुश्किल दबे हुए, पाठकों को लगातार गुद‌गुदाते और कष्ट देते हुए।

    -प्रस्तावना से


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  • Hindi Sahitya Ke 75 Varsh : Nehru Yug Se Modi Yug Tak By Sudhish Pachauri

    हिन्दी साहित्य के 75 वर्ष नेहरू युग से मोदी युग तक (एक उत्तर आधुनिकतावादी पाठ) सुधीश पचौरी

    पिछले सत्तर-अस्सी बरस के साहित्य का इतिहास सीधी लाइन में नहीं चला बल्कि उसमें अनेक टूट-फूट हुई हैं और अनेक विच्छेद आए हैं। ऐसी बहुत सी ‘फॉल्ट लाइनें’ और विच्छेद आज की ‘उत्तर आधुनिक स्थितियों’ में और ‘उत्तर संरचनावादी’ समीक्षा पद्धति के बाद इसलिए और भी अधिक उत्कट होते दीखते हैं क्योंकि आज साहित्य में एक अर्थ, एक प्रातिनिधिक यथार्थ और एकान्विति को नहीं पढ़ा जा सकता क्योंकि अब उसका न कोई एक ‘सेण्टर’ है, न ‘एक यथार्थ’ है और न शब्द का ‘एक अर्थ’ सम्भव है। जब अमेरिका में काले आदमी औरत का ‘पाठ’ गोरे आदमी औरत के ‘पाठ’ से अलग हो सकता है, जब अपने यहाँ दलित ‘पाठ’ गैरदलित ‘पाठ’ से अलग और विपरीत हो सकता है तब एक दिन हिन्दी साहित्य का ‘हिन्दू’ पाठ भी होगा, ‘मुस्लिम’ पाठ भी होगा, ‘सिख’ या ‘बौद्ध’ या ‘ईसाई’ या ‘जैन’ या अन्य पाठ भी सम्भव हैं। जितनी भी अस्मितामूलक पहचानें हैं उन सबके पाठ अलग-अलग हो सकते हैं और कई बार एक-दूसरे के विपरीत और लड़ते- झगड़ते नजर आ सकते हैं। इतना ही नहीं जब दलित विमर्श हो सकते हैं तब ब्राह्मणवादी, वैश्यवादी और क्षत्रियवादी विमर्श भी हो सकते हैं और होंगे और इनके अतिरिक्त, हर ‘अस्मितामूलक समूह’ के ‘स्त्रीत्ववादी’ तथा ‘एलजीबीटीक्यू वादी’ पाठ भी सम्भव हैं। सवाल यह भी है कि आज के ‘उत्तर आधुनिकतावादी’ दौर में जब साहित्य के ‘एक केन्द्रवाद’ का पतन हो चुका हो, तब कौन सा ‘साहित्य शास्त्र’ अथवा कौन सी ‘साहित्यिक सिद्धान्तिकियाँ’ कारगर हो सकती हैं? कहने की जरूरत नहीं कि ऐसे सवालों से टकराये बिना आगे के साहित्य व साहित्य शास्त्र का विकास सम्भव नहीं दीखता।


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  • Lucknow : Nawabi-badshahi Kaal Aur 1857 Ki Kranti Ki Gatha By Rajgopal Singh Verma

    नवाबी-बादशाही काल और 1857 की क्रान्ति की गाथा – लखनऊ – राजगोपाल सिंह वर्मा

    अवध का इतिहास एक वृहद् विषय है। यह शून्य से शुरू होकर उत्कर्ष और ईस्ट इण्डिया कम्पनी से ब्रिटिश साम्राज्य के महत्त्वपूर्ण प्रक्षेत्र में बदलने की कहानी है तो शेखजादाओं से आरम्भ होकर नवाबी युग और फिर बादशाहत, 1857 के लम्बे चले संघर्ष का घटनाक्रम भी है। यह उत्तर भारत की उस ऐतिहासिक विरासत, संस्कृति और तहजीब का जीवन्त और विशद आख्यान है, जिसे इतिहास के किसी कालखण्ड में अनदेखा नहीं किया जा सकता। यह पुस्तक अवध के पूरे इतिहास को समेटने का प्रयास न होकर उसके बनने, बिगड़ने, सँभलने और नवाबी युग से बादशाहत के साम्राज्य में फैलने/संकुचित होने की वह कहानी है, जिसे हम जानने की उत्कण्ठा रखते हैं। इस पुस्तक में शेखजादाओं के बाद से सआदत खान और सफदरजंग के गौरवशाली इतिहास का वर्णन है, उनके शून्य से शिखर तक पहुँचने और चर्चित आखिरी बादशाह वाजिद अली शाह के शासन काल तक दरक कर विस्मृत हो जाने के समय की कथा के मुख्य बिन्दुओं का लेखन किया गया है। सन् 1801 के बाद से, जब ब्रिटिश ईस्ट इण्डिया कम्पनी अपनी निश्चितता के साथ उत्तर भारत की प्रमुख रियासतों में पाँव पसार रही थी तो अवध पर उनकी सतर्क निगाह शुरू से ही बनी हुई थी। ऐसा एक तो इस प्रान्त की सामरिक स्थिति के कारण था, तो यहाँ की समृद्धि, सामरिक स्थिति और दिल्ली से निकटता के कारण। इसीलिए यह किताब उन घटनाक्रमों का अनायास ही इतिहास सम्मत विश्लेषण करने की कोशिश भी करती है, जिनके माध्यम से ईस्ट इण्डिया कम्पनी की सत्ता अवध को अपने साम्राज्य का अभिन्न अंग बनाने को बेचैन थी।


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  • Hua Karte the Raadhe by Meena Gupta


    हुआ करते थे राधे – मीना गुप्ता


    कई कथाकृतियाँ अपने समय के यथार्थ को बुनने और सामान्य जीवन का अक्स बन जाने की कामयाबी के कारण ही महत्त्वपूर्ण हो उठती हैं। मीना गुप्ता का उपन्यास ‘हुआ करते थे राधे’ भी इसी सृजनात्मक सिलसिले की एक कड़ी है। जैसा कि नाम से ही संकेत मिलता है, उपन्यास के केन्द्र में राधे नामक चरित्र है। उपन्यास शुरू से आखीर तक उसकी जिजीविषा और जद्दोजहद की दास्तान है। एक साधारण वैश्य परिवार में जन्मे राधे को, पिता की असामयिक मृत्यु हो जाने के कारण, बचपन से ही घर-परिवार का बोझ उठाना पड़ा। लेकिन राधे का जीवन संघर्ष यहीं तक सीमित नहीं है। अपने जीवन की दुश्वारियों के साथ-साथ उसे समाज के संकुचित व प्रगतिविरोधी मानसिकता वाले लोगों से भी जूझना पड़ता है। मसलन, घर में शौचालय बनवाने का राधे का निर्णय कुछ उच्चवर्णीय लोगों को रास नहीं आता। उनके विरोध के आगे झुकने के बजाय राधे गाँव छोड़ देता है। नयी जगह उसकी मेहनत और लगन रंग लाती है, परिवार में समृद्धि आती है। लेकिन यह समृद्धि टिकाऊ साबित नहीं होती, बेटे की गैरजिम्मेवारियों की भेंट चढ़ जाती है। उसकी हरकतों से आजिज आकर राधे सारी वसीयत पुत्रवधू के नाम कर देता है। वह पढ़ने- लिखने के लिए अपनी पोतियों को बराबर प्रेरित करता रहता है। बेटे की नालायकी से टूट चुके राधे की निगाह में लड़कियाँ ज्यादा जिम्मेदार और भरोसे के काबिल हैं। उपन्यास में व्यक्ति और समाज के द्वन्द्व को जितने तीखे ढंग से उकेरा गया है उतनी ही शिद्दत से परिवार के भीतर के द्वन्द्व को भी। कथ्य के साथ-साथ कहन शैली के लिहाज से भी यह उपन्यास महत्त्वपूर्ण बन पड़ा है।


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  • Srikrishna Uwach Edited By Shakuntala Mishra

    श्रीकृष्ण उवाच… सम्पादक : शकुन्तला मिश्रा

    भगवद्‌गीता हिन्दू समाज के लिए सर्वाधिक पूज्य ग्रन्थ रही है। लेकिन इसकी मान्यता और प्रतिष्ठा एक धर्मग्रन्थ होने तक सीमित नहीं है। हिन्दू समाज के अलावा बाकी दुनिया के लिए भी यह सदियों से दार्शनिक चिन्तन-मनन और आध्यात्मिक मार्गदर्शन की एक प्रेरणास्पद पुस्तक रही है। शायद यही कारण है कि धर्मग्रन्थ मानी जाने वाली पुस्तकों में जितना भगवद्‌गीता पर विचार और प्रतिपादन हुआ है उतना किसी और पुस्तक पर नहीं। हो भी क्यों न, भगवद्‌गीता न सिर्फ आध्यात्मिक साधकों को मार्ग दिखाती रही है बल्कि सांसारिक कर्म क्षेत्र में जुटे लोगों में भी इसने बहुतों का आत्म-बल बढ़ाया है, बहुतों को जीवन जीने की दृष्टि दी है। जीवन की कठिन परीक्षा की घड़ियों में यह बात और भी लागू होती है। जैसा कि सब जानते हैं, भगवद्‌गीता महाभारत में कुरुक्षेत्र के युद्धक्षेत्र में अर्जुन को भगवान कृष्ण का दिया हुआ उपदेश है। इसका केन्द्र बिन्दु तो निष्काम कर्म है लेकिन इसमें स्थिप्रज्ञता से लेकर योग मार्ग, भक्तियोग, कर्मयोग, ज्ञान योग जैसे उतने ही महत्तर अन्य आयामों का भी गहन उद्घाटन है। गीता के अनेक भाष्यकारों ने, अपने रुझान के अनुसार, किसी एक आयाम को अपेक्षाकृत अधिक महत्त्व दिया है। लेकिन डॉ. शकुन्तला मिश्रा ने श्रीकृष्ण उवाच में सभी अध्यायों और सभी आयामों को समान महत्त्व दिया है। दरअसल, उन्होंने स्वयं का कोई दृष्टिकोण या आग्रह न थोपकर गीता का मर्म- सार प्रस्तुत करने की कोशिश की है। इसकी उपयोगिता से कौन इनकार करेगा !


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  • Ramcharitmanas Ki Lokvyapkta By Ravishankar Pandey

    रामचरितमानस की लोकव्यापकता * रविशंकर पाण्डेय

    भारतीय उपमहाद्वीप के इतिहास, भूगोल से लेकर साहित्य, संस्कृति, ज्ञान-विज्ञान, धर्म और दर्शन के अलावा भी ऐसा कौन सा क्षितिज है जिसे आजानुबाहु राम ने न बाँध रखा हो। आदिकवि महर्षि वाल्मीकि से लेकर गोस्वामी तुलसीदास तक न जाने कितने कवि इन पर अपनी लेखनी चलाकर अमर हो गये किन्तु सिलसिला है कि आज भी थमने का नाम नहीं ले रहा है। यदि हम बात करें गोस्वामी तुलसीदास की तो उन्होंने संवत् 1631 में राम की कथा पर आधारित रामचरितमानस का लेखन प्रारम्भ किया और इसे दो साल सात माह में पूरा किया। आज तुलसीकृत रामचरितमानस के लगभग साढ़े चार सौ साल पूरे हो चुके हैं। किन्तु महर्षि वाल्मीकि से लेकर आज तक रामायण के बाद जो लोकप्रियता रामचरितमानस को मिली वह अद्भुत और अद्वितीय है। अब तो रामचरितमानस भारतीय लोकजीवन और लोकमानस में इतने गहरे रच-बस गया है कि साहित्य, संस्कृति, धर्म, दर्शन, ज्ञान-विज्ञान जैसे जीवन के सभी क्षेत्र बिना इसके सन्दर्भ के अधूरे लगते हैं। यद्यपि इस ग्रन्थ के धार्मिक, आध्यात्मिक, साहित्यिक और सांस्कृतिक विमर्श को लेकर बहुत कुछ लिखा गया है किन्तु लोकजीवन में इसके इस रचाव बसाव और लोकव्यापकता के कारणों पर बहुत कम विचार किया गया है। क्या कारण हैं कि मुगल बादशाह अकबर के राज से लेकर आज के आधुनिक लोकतन्त्र तक विभिन्न ऐतिहासिक, राजनीतिक और सामाजिक विभिन्नताओं और विरोधाभासों के बीच रामचरितमानस निरन्तर लोकप्रियता और लोकव्यापकता की सीढ़ियों को लाँघता हुआ देश-काल की सीमा से परे आज सम्पूर्ण मानवीय सभ्यता और संस्कृति का कण्ठहार बन चुका है। प्रस्तुत अध्ययन में एक क्षुद्र प्रयास करते हुए इस विषय की पड़ताल की गयी है कि रामचरितमानस के अन्दर ऐसी कौन सी विशेषताएँ हैं जो उसे इतना लोकप्रिय और लोकव्यापक बनाने के लिए जिम्मेदार हैं… आज यदि हम तुलसी के इस कार्य का मूल्यांकन पूर्वग्रह मुक्त होकर करें तो पाएँगे कि समाज में कोई परिवर्तन केवल उखाड़-पछाड़ के बल पर नहीं बल्कि साहित्य के सहारे शान्ति से ही सम्भव हो सकता है। तत्कालीन समय और शासन की वक्री गति के दृष्टिगत तुलसी अपने लेखन में प्रकटतः परम्पराओं का निर्वाह करते दीखते हैं किन्तु वे जड़ हो चुके तत्कालीन समाज में चुपचाप एक ऐसी हलचल पैदा कर रहे थे जिसकी लहरें आज भी दीख रही हैं।

    – प्राक्कथन से


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  • Kuchh Ummid Kuchh Vichar Aur Kuchh Batein By Apurva

    कुछ उम्मीद, कुछ विचार और कुछ बातें – अपूर्व

    सूक्ष्म-शब्दजाल उन्मुख अकादमिक विमर्श और आसानी से समझ में आने वाले अखबारी लेखन के बीच अक्सर एक विभाजन रेखा बनायी जाती है। यह विभाजन रेखा हमारे बौद्धिक जुड़ाव के गिरते स्तर के मुख्य कारणों में से एक रही है। सार्वजनिक टिप्पणीकारों का एक वर्ग- जो अक्सर समाचारपत्रों और वेब पोर्टलों में योगदान करते हैं- गम्भीर शैक्षणिक कार्यों के प्रति उदासीन रहते हैं। यह उदासीनता उनके स्पष्टीकरण को उथला और सतही बनाती है। दूसरी ओर, शिक्षाविद् समकालीन प्रश्नों के महत्त्व को समझने में विफल रहते हैं। वे हमेशा सामाजिक मुद्दों का जवाब देने में देर करते हैं। अपूर्व जी के लेख इस सम्बन्ध में बेहद प्रासंगिक हैं। इन लेखों में सामाजिक मुद्दों की समीक्षा इस अन्दाज से की गयी है कि न केवल उस विषय की तात्कालिकता को स्पष्ट किया जा सके अपितु उसके व्यापक ऐतिहासिक प्रभाव को भी विश्लेषण की परिधि में बाँधा जा सके।
    – हिलाल अहमद (प्रस्तावना से)


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