Hindu Dharma : jeevan mein sanatan ki khoj – Vidhya Niwas Mishra

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Hindu Dharma : jeevan mein sanatan ki khoj -Vidhya Niwas Mishra
हिन्दू धर्म: जीवन में सनातन की खोज – विद्या निवास मिश्रा

हिन्दू धर्म पर इतनी पुस्तकों के होते हुए भी एक और पुस्तक लिखने का उद्देश्य मेरे सामने यही था कि हम अपने को आज के विश्व के सन्दर्भ में फिर जाँचें, इसलिए भी जाँचें कि निरन्तर अपने धर्म को जाँचते रहना इस धर्म की पहली माँग है। हिन्दू धर्म दुनिया में फैले, दूसरों को आलोक दे, इसकी चिन्ता न करके हम केवल यह चिन्ता कर सकें कि हम इससे क्यों नहीं आलोकित हो रहे हैं, हम क्यों दूसरों का मुँह जोह रहे हैं कि वे हिन्दू धर्म की तारीफ़ करें तो हम अपनी पीठ ठोंकें, हम क्यों सतही और कभी-कभी द्वेष या आत्महीनता से प्रेरित आलोचनाओं से घबराकर अपने धर्म से उदासीन बने हुए हैं, हम क्यों नहीं अपने हाथ से, अपनी कुल्हाड़ी से अपने निरन्तर परिवर्तनशील धर्म की सूखी डालें काटने के लिए क़दम बढ़ाते हैं, दूसरों द्वारा काटी गयी फल-फूल से लदी डाल के सूखे हुए रूप को धर्म मानकर क्यों कुण्ठित हैं- इसी भाव को उकसाने के लिए यह छोटा-सा संकल्प मैंने लिया।

हिन्दू धर्म का महत्त्व मेरे लिए इसी से है कि वह चरम मानव-मूल्य स्वाधीनता की खोज के लिए एक नक़्शा प्रस्तुत करता है, इस नक़्शे के अनुसार चलकर अन्वेषण करने वाला इस नक़्शे में तरमीम करता चलता है, साथ ही वह स्वयं नक़्शा बनता चलता है। हिन्दू धर्म इस अन्वेषण को रसमय भी बनाता है, उसकी भक्ति भोग- विमुख भोग और काम-विजयी काम का आस्वादन कराती है।
– भूमिका से

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हिन्दू धर्म :जीवन में सनातन की खोज – विद्या निवास मिश्रा
Hindu Dharma : jeevan mein sanatan ki khoj – Vidhya Niwas Mishra



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SKU: hindu-dharma-jeevan-mein-sanatan-ki-khoj-PB
Category:
ISBN

9788187482819

Author

Vidhya Niwas Mishra

Binding

Paperback

Publisher

Setu Prakashan Samuh

Imprint

Vagdevi

Language

Hindi

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    इस संग्रह में कुल आठ कहानियाँ हैं और प्रायः कहानियाँ औपन्यासिक विस्तार में पगी हुई हैं। योगिता के इस तीसरे कहानी संग्रह ‘नये घर में अम्मा’ का स्वागत किया जाना चाहिए।

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    श्री पटनायक कोई लेखक नहीं हैं-सक्रिय और गम्भीर राजनीतिकर्मी हैं। बहुत कम उम्र में 1962 में सांसद बनकर उन्होंने चीन के हाथों हुई पराजय का सवाल हो या प्रधानमन्त्री जवाहरलाल नेहरू के खर्च का, सरकार और संसद के अँग्रेजी की प्रधानता का सवाल हो या तत्कालीन काँग्रेसी नीतियों पर पहली बार सार्थक सवाल खड़े करने का, सभी पर खुलकर बोला और पूरे देश का ध्यान अपनी ओर खींचा। उस संसद में समाजवादी पार्टी के सिर्फ़ दो ही सांसद गये थे-डॉ. राममनोहर लोहिया और मधु लिमये जैसे लोग बाद में उप चुनाव जीत कर आए थे। लेकिन नौजवान किशन पटनायक ने विपक्ष की भूमिका बखूबी निभायी थी।

    वे डॉ. लोहिया के उन कुछेक शिष्यों में से एक हैं जिन्होंने उनकी मृत्यु के बाद लोहिया विचार मंच चलाया और लोहिया के बाद देश में हुए लगभग सभी बड़े आन्दोलनों में सक्रिय रूप से भाग लिया। पर वे सत्ता की होड़ वाली किसी पार्टी में नहीं गये और लगातार देश-समाज की समस्याओं, नयी प्रवृत्तियों पर गम्भीर चिन्तन-मनन करते रहे। नये राजनैतिक कार्यकर्ताओं के प्रशिक्षण का काम भी उन्होंने बखूबी किया है। लोहिया विचार मंच हो या 1974 का आन्दोलन, फिर समता संगठन और अब समाजवादी जन परिषद से जुड़कर वे लगातार एक आदर्शवादी वैकल्पिक राजनैतिक संगठन खड़ा करने की कोशिश में जुटे हुए हैं।

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    सम्मुख रश्मि भारद्वाज का चौथा कविता संग्रह है। आकांक्षा और आकांक्ष्य के द्वन्द्व से यथार्थ की जो जमीन दरकती है, उन्हीं दरकनों में स्वप्नों के नये पीपल उग आते हैं। पीपल पूज्य है, परन्तु उन दरारों, दरकनों में उपजे पीपल की कोई जरूरत नहीं समाज को। ऐसे ही समाज की नयी स्थिति में बनी या विकसित हुई स्त्री या उसका व्यक्तित्व लोक लुभावना तो हो सकता है, परन्तु उसे समाज अधिकांशतः धकियाता ही है अपनी सीमाओं से। इसीलिए कवयित्री रश्मि भारद्वाज ‘उस अँधेरे की बात करना चाहती’ हैं, ‘जिसे किसी रोशनी की प्रतीक्षा नहीं होती/ माँ के गर्भ सा निस्सीम अन्धकार/आत्मा को पोषित करता है।’ अर्थात् उसका व्यक्तित्व तमाम विरोधों, विकट स्थितियों में विकसित होने की क्षमता रखता है।
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    इन कविताओं में रचने वाली स्त्री, भोगने वाली स्त्री से न सिर्फ पृथक् है अपितु उससे एक निरपेक्ष दूरी भी बरत सकी है। इससे कविता की धार, उसका सौन्दर्य और व्यंग्यार्थ ज्यादा मुखर हो सका है।
    – अमिताभ राय


     

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  • Sabhyata Ke Kone By Ramachandra Guha

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    – अनुवादक अनिल माहेश्वरी

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    यह पुस्तक एक जीवनी है और इस विधा में अपनी विशिष्ट जगह बना चुकी है। समकालीन भारत के सबसे जाने-पहचाने इतिहासकार रामचन्द्र गुहा की लिखी महात्मा गांधी की जीवनी कितनी बार पढ़ी गयी और चर्चित हुई। लेकिन गुहा की कलम से रची गयी पहली जीवनी वेरियर एल्विन (1902- 1964) की थी। यह एक ऐसे व्यक्ति की कहानी है जो ऑक्सफोर्ड विश्वविद्यालय से पढ़ाई समाप्त करके ईसाई प्रचारक के रूप में भारत आया। फिर यहीं का होकर रह गया। वह धर्म प्रचार छोड़कर गांधी के पीछे चल पड़ता है। उसने भारतीय आदिवासियों के लिए अपना जीवन समर्पित कर दिया। वह उन्हीं में विवाह करता है। भारत की नागरिकता लेता है और अपने समर्पित कार्यों की बदौलत भारत के प्रथम प्रधानमन्त्री पण्डित जवाहरलाल नेहरू का विश्वास जीतता है। साथ ही उस विश्वास पर खरा उतरता है।

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  • Har Jagah Se Bhagaya Gaya Hoon By Hare Prakash Upadhyay

    हर जगह से भगाया गया हूँ – हरे प्रकाश उपाध्याय

    कविता के भीतर मैं की स्थिति जितनी विशिष्ट और अर्थगर्भी है, वह साहित्य की अन्य विधाओं में कम ही देखने को मिलती है। साहित्य मात्र में ‘मैं’ रचनाकार के अहं या स्व का तो वाचक है ही, साथ ही एक सर्वनाम के रूप में रचनाकार से पाठक तक स्थानान्तरित हो जाने की उसकी क्षमता उसे जनसुलभ बनाती है। कवि हरे प्रकाश उपाध्याय की इन कविताओं में ‘मैं’ का एक और रंग दीखता है। दुखों की सान्द्रता सिर्फ काव्योक्ति नहीं बनती। वह दूसरों से जुड़ने का साधन (और कभी-कभी साध्य भी) बनती है। इसीलिए ‘कबहूँ दरस दिये नहीं मुझे सुदिन’ भारत के बहुत सारे सामाजिकों की हकीकत बन जाती है। इसकी रोशनी में सम्भ्रान्तों का भी दुख दिखाई देता है-‘दुख तो महलों में रहने वालों को भी है’। परन्तु इनका दुख किसी तरह जीवन का अस्तित्व बचाये रखने वालों के दुख और संघर्ष से पृथक् है। यहाँ कवि ने व्यंग्य को जिस काव्यात्मक टूल के रूप में रखा है, उसी ने इन कविताओं को जनपक्षी बनाया है। जहाँ ‘मैं’ उपस्थित नहीं है, वहाँ भी उसकी एक अन्तर्वर्ती धारा छाया के रूप में विद्यमान है।
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    – अभिताभ राय


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    संस्कृति’ – आलोक टण्डन

    आलोक टण्डन की ‘संस्कृति’, ‘सेतु शब्द श्रृंखला’ की पहली किताब है। इस श्रृंखला में इतिहास, दर्शन, आलोचना सम्बन्धी तकनीकी और पारिभाषिक शब्दों पर पुस्तकों के निर्माण की योजना है। ऐसी पुस्तकें किसी भी भाषा को अकादमिक और बौद्धिक जरूरतों का अनिवार्य हिस्सा होती हैं। आशा है इस पुस्तक और इस श्रृंखला का हिन्दी में स्वागत होगा।

    स्वतन्त्र शोधकर्ता। तीन विषयों में परास्नातक और दर्शनशास्त्र में पो एच.डी.। प्रोजेक्ट’ धर्म और हिंसा’ के लिए आई.सी.एस.एस.आर. जनरल फेलोशिप और आई.सी.पी. आर. रेजिडेण्ट तथा प्रोजेक्ट फेलोशिप प्राप्त। शताधिक सेमिनारों/सम्मेलनों में भागीदारी और पचास से अधिक शोधपत्र प्रकाशित। दर्शनशास्त्र के क्षेत्र में योगदान के लिए अखिल भारतीय दर्शन परिषद् द्वारा ‘नागर पुरस्कार’ से सम्मानित। ‘लिविंग टुगेदर रिथिकिग आइडेण्टिटी एण्ड डिफरेंस इन मॉडर्न कांटेक्स्ट’ को इण्डियन फिलोसोफिकल काँग्रेस 2023 द्वारा सर्वश्रेष्ठ पुस्तक के लिए ‘प्रणवानन्द पुरस्कार’। लेखक की अन्य पुस्तकें ‘मैन एण्ड हिज डेस्टिनी’ (अँग्रेजी में) और शेष तीन हिन्दी में हैं- ‘विकल्प और विमर्श’, ‘समय से संवाद’ एवं अस्मिता और अन्यता’।


     

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    “यह पुस्तक एक तरह से बहुआयामी संवाद के लिए आग्रह है। दर्शनों के बीच संवाद, दार्शनिकों और आम लोगों के बीच संवाद, लोक परम्परा और शास्त्रीय परम्परा के बीच संवाद, पश्चिम और पूरब के बीच संवाद, संस्कृतियों के बीच संवाद, अलग-अलग धर्मों के बीच संवाद और बुद्धिजीवियों और आम जन के बीच संवाद के लिए आग्रह है।


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    कुछ तिनके, कुछ बातें – राकेश कुमार सिंह


    राकेश कुमार सिंह की यह किताब कुछ तिनके, कुछ बातें उनके रचनात्मक वैविध्य का साक्ष्य तो है ही, विधाओं के बहुप्रचलित स्वरूप का अतिक्रमण करने की कोशिश भी इसमें दिखाई देती है।
    राकेश कुमार सिंह आकांक्षा और प्रेम, अहसास और आत्मान्वेषण के रचनाकार हैं। उनके यहाँ विगत की परछाईं है तो आगत की आहट और अनागत की कल्पना भी। अधीर और जल्दबाज कतई नहीं हैं, बल्कि धीरे रचने में यकीन करते हैं। यह ऐसी रचनाशीलता है जो हलकी आँच पर धीमे-धीमे सीझते हुए अपना आस्वाद तैयार करती है। चाहे इस पुस्तक में संकलित भाव-टिप्पणियाँ हों, कथा के आवरण में लिखा गद्य हो या कविताएँ, सब पर यह बात लागू होती है। इसलिए लेखक का यह कथन एकदम स्वाभाविक लगता है कि ‘यह पुस्तक मेरे एक दशक से भी अधिक के लेखन और दशकों के अनुभवों का निचोड़ है।’
    विधागत वैविध्य के साथ ही यह पुस्तक अपनी अन्तर्वस्तु में भी ढेर सारे रंग समेटे हुए है। इनमें प्रेम, वियोग, स्मृति और कल्पना, मनोमन्थन और अन्तर्द्वन्द्व से लेकर जीवन के प्रति रुख और खान-पान तक बहुत सारी बातें समाहित हैं। लेकिन सबसे ज्यादा जो खूबी पाठक को खींचती और बाँधे रखती है वह है अहसासों का प्रवाह। जैसा कि राकेश कुमार सिंह स्वयं कहते हैं “मन की वे बातें, जो कभी किसी से कह नहीं पाया, मेरे अधूरे सपने, जिन्हें जीना चाहता था, और वे कल्पनाएँ, जो मन में उमड़ती-घुमड़ती रहती थीं- इन्हें ही मैंने शब्दों में ढालने का प्रयास किया है।” उनके इस प्रयास ने जिस अभिनवता को रचा है उसका स्वागत किया जाना चाहिए।


     

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  • Aangan By Khadeeja Mastoor

    आँगन – खदीजा मस्तूर – हिंदी अनुवाद खुर्शीद आलम

    उर्दू के प्रसिद्ध आलोचक उस्लूब अहमद अंसारी इस उपन्यास की गिनती उर्दू के 15
    श्रेष्ठ उपन्यासों में करते हैं जबकि शम्सुर्रहमान फ़ारूक़ी का कहना है कि इस नॉवेल
    पर अब तक जितनी तवज्जो दी गयी है वो इससे ज्यादा का मुस्तहिक़ है। भारत
    विभाजन के विषय पर यह बहुत ही सन्तुलित उपन्यास अपनी मिसाल आप है।

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  • Pitrisatta Yaunikta aur Samlaingikta By Sujata

    पितृसत्ता यौनिकता और समलैंगिकता – सुजाता


    अतिवादी विचारों से विमर्शों को सबसे ज्यादा खतरा पैदा होता है जब वे ऐसे तर्कों की ओर ले जाते हैं जो आपको बेसहारा करके समुद्र में फेंक देते हैं। समुद्र-मन्थन हमारा काम नहीं। हमें अनमोल, अदेखे, विस्मयकारी पत्थर नहीं इस दुनिया में काम आने वाले विचार चाहिए।

    वहीं एक जरूरी मिर्श को अतिवादी कहकर कुछ लोग आपत्ति करते हैं कि जिस तेजी से विमर्श वाले लोग यौन-अभिरुचियों पर आधारित अस्मिताएँ हर रोज़ कोई नयी ले आते हैं उससे तो अन्त में भयानक गड़बड़झाला हो जाएगा। कुछ पता ही नहीं चलेगा कि कौन क्या है! (जनसंख्या प्रबन्धन के उद्देश्य से सख्ती करने के लिए सत्ता इसे ही एक तर्क की तरह इस्तेमाल करती आयी है) लेकिन जरा ध्यान से देखिए तो इस विमर्श के पीछे मूल उद्देश्य क्या है? इस बात को स्वीकार करना कि हम सब भिन्न हैं और भिन्न होते हुए भी बराबर हैं इसलिए जगहों और भाषा को ऐसा बनाया जाए जो समावेशी हों। सब अपने खानपान, वेश-भूषा, यौन अभिरुचि और प्रेम पात्र के चयन के लिए स्वतन्त्र हों। समानता और गरिमा से जी सकें।

    सबसे मुश्किल यही है। इसलिए भी इतना भ्रम और धुंधलापन छाया हुआ है कि हम भूल गये कि हमने शुरुआत कहाँ से की थी। इस किताब का खयाल तभी दिमाग में आया था जब कुछ युवाओं को स्त्रीवाद के कुछ आधारभूत सवालों पर बेहद उलझा हुआ पाया। इसी किताब के लिए मैंने भी पहली बार मातृसत्ता के मिथक को ठीक से समझने की कोशिश की।

    – इसी पुस्तक से


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  • Jinna : Unki Safaltayein, Vifaltayein Aur Itihas Me Unki Bhoomika by Ishtiaq Ahmed

    मुहम्मद अली जिन्ना भारत विभाजन के सन्दर्भ में अपनी भूमिका के लिए निन्दित और प्रशंसित दोनों हैं। साथ ही उनकी मृत्यु के उपरान्त उनके इर्द- गिर्द विभाजन से जुड़ी अफवाहें खूब फैलीं।

    इश्तियाक अहमद ने कायद-ए-आजम की सफलता और विफलता की गहरी अन्तर्दृष्टि से पड़ताल की है। इस पुस्तक में उन्होंने जिन्ना की विरासत के अर्थ और महत्त्व को भी समझने की कोशिश की है। भारतीय राष्ट्रवादी से एक मुस्लिम विचारों के हिमायती बनने तथा मुस्लिम राष्ट्रवादी से अन्ततः राष्ट्राध्यक्ष बनने की जिन्ना की पूरी यात्रा को उन्होंने तत्कालीन साक्ष्यों और आर्काइवल सामग्री के आलोक में परखा है। कैसे हिन्दू मुस्लिम एकता का हिमायती दो-राष्ट्र की अवधारणा का नेता बना; क्या जिन्ना ने पाकिस्तान को मजहबी मुल्क बनाने की कल्पना की थी-इन सब प्रश्नों को यह पुस्तक गहराई से जाँचती है। आशा है इस पुस्तक का हिन्दी पाठक स्वागत करेंगे।
    JINNAH: His Successes, Failures and Role in History का हिन्दी अनुवाद
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  • RSS Aur Hindutva Ki Rajneeti By Ram Puniyani

    आरएसएस और हिन्दुत्व की राजनीति – राम पुनियानी  (सम्पादक रविकान्त)


    आरएसएस जितना साम्प्रदायिक है, उससे भी ज्यादा वर्ण और जातिवादी है। आरएसएस का हिन्दुत्व दरअसल नया ब्राह्मणवाद है। गोलवलकर ने एक तरफ मुसलमानों और ईसाइयों को भारत से बाहर निकालने की बात की तो दूसरी तरफ वर्ण व्यवस्था की प्रशंसा करते हुए इसे कठोरता से लागू करने का सन्देश दिया। संघ के मुखपत्र ऑर्गनाइजर (2 जनवरी 1961) के अनुसार गोलवलकर ने अपने एक सम्बोधन में कहा था कि, ‘आज हम अपनी नासमझी की वजह से वर्ण व्यवस्था को नीचा दिखाने की कोशिश कर रहे हैं। जबकि यही वह व्यवस्था है जिसकी वजह से अधिकारात्मकता पर नियन्त्रण करने की महान् कोशिश की गयी है… हमारे समाज में कुछ लोग बौद्धिक, कुछ लोग पैदावार में माहिर, कुछ लोग दौलत कमाने में और कुछ मेहनत करने की क्षमता रखते हैं। हमारे पूर्वजों ने मोटे तौर पर ये चार विभाजन किये थे। वर्ण व्यवस्था कुछ और नहीं बल्कि उन चार विभाजनों के बीच सन्तुलन स्थापित करना है, इसके जरिये हर आदमी समाज की सेवा अपनी बेहतरीन क्षमता द्वारा कर सकता है जो उसने वंशानुगत रूप से विकसित की है। अगर यह व्यवस्था जारी रहती है तो हर व्यक्ति के जीवनयापन के लिए उसके जन्म से ही कार्य सुरक्षित रहेगा।’
    – भूमिका से

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  • Gandhi Ke Bahane By Parag Mandle

    तृतीय सेतु पाण्डुलिपि पुरस्कार योजना के तहत पुरस्कृत कृति

    गांधी के बहाने – पराग मांदले

    दक्षिण अफ्रीका से गांधी भारत वापस आए तब से ही वे भारतीय राजनीति, समाज, दर्शन और जीवन-पद्धति की केन्द्रीय धुरियों में एक रहे। इन तमाम क्षेत्रों में उनका हस्तक्षेप युगान्तकारी रहा। करीब तीन दशकों तक आजादी की लड़ाई का केन्द्रीय नेतृत्व उनके ही हाथों में रहा। गांधी लगातार खुद को परिष्कृत करते रहे। बहुत कुछ किया; जब गलती हुई तो सीखा, सुधार किया और आगे बढ़े। उनके सिद्धान्त दीखने में बहुत सरल थे- मसलन सत्य, अहिंसा, निष्काम कर्म इत्यादि, मगर उनका पालन बहुतों के लिए मुश्किलों में डालने वाला भी रहा। सत्याग्रह और संघर्ष के ये औजार आजादी के बाद पायी गयी सत्ता के समीकरण में बाधक प्रतीत होने लगे। ‘गांधी के बहाने’ पुस्तक गांधीवादी सिद्धान्तों का पुनराविष्कार या पुनश्चर्या या पारायण नहीं है, वह उन सिद्धान्तों के मर्म की खोज करते हुए उन्हें आज के व्यावहारिक जीवन के आलोक में जाँचती है। पराग मांदले के इस गम्भीर प्रयास का पाठकों द्वारा स्वागत होगा, ऐसी उम्मीद की जानी चाहिए।


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