हिन्दू धर्म :जीवन में सनातन की खोज – विद्या निवास मिश्रा
Hindu Dharma : jeevan mein sanatan ki khoj – Vidhya Niwas Mishra
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Hindu Dharma : jeevan mein sanatan ki khoj -Vidhya Niwas Mishra
हिन्दू धर्म: जीवन में सनातन की खोज – विद्या निवास मिश्रा
हिन्दू धर्म पर इतनी पुस्तकों के होते हुए भी एक और पुस्तक लिखने का उद्देश्य मेरे सामने यही था कि हम अपने को आज के विश्व के सन्दर्भ में फिर जाँचें, इसलिए भी जाँचें कि निरन्तर अपने धर्म को जाँचते रहना इस धर्म की पहली माँग है। हिन्दू धर्म दुनिया में फैले, दूसरों को आलोक दे, इसकी चिन्ता न करके हम केवल यह चिन्ता कर सकें कि हम इससे क्यों नहीं आलोकित हो रहे हैं, हम क्यों दूसरों का मुँह जोह रहे हैं कि वे हिन्दू धर्म की तारीफ़ करें तो हम अपनी पीठ ठोंकें, हम क्यों सतही और कभी-कभी द्वेष या आत्महीनता से प्रेरित आलोचनाओं से घबराकर अपने धर्म से उदासीन बने हुए हैं, हम क्यों नहीं अपने हाथ से, अपनी कुल्हाड़ी से अपने निरन्तर परिवर्तनशील धर्म की सूखी डालें काटने के लिए क़दम बढ़ाते हैं, दूसरों द्वारा काटी गयी फल-फूल से लदी डाल के सूखे हुए रूप को धर्म मानकर क्यों कुण्ठित हैं- इसी भाव को उकसाने के लिए यह छोटा-सा संकल्प मैंने लिया।
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हिन्दू धर्म :जीवन में सनातन की खोज – विद्या निवास मिश्रा
Hindu Dharma : jeevan mein sanatan ki khoj – Vidhya Niwas Mishra
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ISBN | 9788187482819 |
---|---|
Author | Vidhya Niwas Mishra |
Binding | Paperback |
Publisher | Setu Prakashan Samuh |
Imprint | Vagdevi |
Language | Hindi |
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गीता प्रेस और हिन्दू भारत का निर्माण – अक्षय मुकुल
अनुवाद : प्रीती तिवारी
पुस्तक के बारे में…
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हिन्दू धर्म के भीतर सामाजिक संरचना के गठन की प्रक्रिया में एक ऐसे वर्ग की उत्पत्ति हुई जिसे न केवल समाज में सबसे हेय दृष्टि से देखा गया बल्कि उसे सामान्य मानवीय व्यवहार से भी वंचित रखा गया। डॉ. भीमराव अम्बेडकर की यह पुस्तक’ अछूत कौन और कैसे’ समाज के इसी वर्ग अर्थात् अछूतों की उत्पत्ति और उनकी स्थिति का ऐतिहासिक तथ्यों के आधार पर विश्लेषण करती है। इसमें न सिर्फ भारत में बल्कि सम्पूर्ण विश्व में अछूतों के अस्तित्व की जाँच-परख की गयी है। यह पुस्तक स्पष्ट करती है कि अछूतों और हिन्दुओं में नस्लीय आधार पर किसी प्रकार की भिन्नता नहीं है लेकिन ब्राह्मणों की घृणा और स्वयं को श्रेष्ठ समझने की भावना अछूतों की उत्पत्ति और उनकी बदतर स्थिति का कारण बनी। इसमें स्पष्ट किया गया है कि ब्राह्मणों द्वारा बौद्धों के प्रति घृणा और एक समूह विशेष के द्वारा गौमांस खाने के कारण उस वर्ग को ब्राह्मणवादी समाज से बहिष्कृत कर दिया गया और उन्हें अछूत के रूप में एक अलग समूह में स्थापित कर दिया गया। यह पुस्तक समाज की विभेदकारी प्रवृत्तियों का मूल्यांकन करते हुए वर्तमान व्यवस्था को समझने का स्पष्ट और व्यापक दृष्टिकोण प्रदान करती है।
हिन्दू धर्म की सामाजिक संरचना में चातुर्वर्ण्य व्यवस्था की प्रभावकारी भूमिका रही है। इन वर्षों में शूद्रों की स्थिति सबसे निम्न थी और विभिन्न प्रकार के प्रतिबन्धों के कारण उनका विकास बाधित रहा। शूद्रों के सम्बन्ध में आवश्यक अध्ययन के अभाव में उनकी समस्याओं और उनके निराकरण पर गम्भीरता से विचार नहीं किया गया। इसी को ध्यान में रखते हुए डॉ. भीमराव अम्बेडकर ने गहन अध्ययन के पश्चात इस पुस्तक ‘शूद्रों की खोज अर्थात् शूद्र कौन थे?’ की रचना की। यह पुस्तक शूद्रों की उत्पत्ति के पौराणिक सिद्धान्तों का विश्लेषण करने के अलावा विभिन्न वर्षों के साथ शूद्रों की स्थिति का मूल्यांकन भी करती है और विद्यमान अव्यवस्था के कारणों को समझने का प्रयास भी। इस पुस्तक के माध्यम से अम्बेडकर ने यह स्थापित करने का प्रयास किया है कि प्रारम्भ में शूद्र भी आर्यों के तीन वर्षों में शामिल थे लेकिन ब्राह्मणवादी मानसिकता के कुचक्र के कारण उनकी स्थिति निम्न हो गयी और ये क्षत्रिय वर्ण से अलग होकर एक नये वर्ण ‘शूद्र’ के रूप में समाज में अस्तित्व में आए। यह पुस्तक मूलतः समाज को इतिहास के आईने से देखने का प्रयास है जिसमें समावेशी और समता आधारित समाज के निर्माण की सम्भावनाओं के बीज विद्यमान हैं।
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तुलसीदास का महाकाव्य ‘रामचरितमानस’ एक अप्रतिम क्लैसिक है। वह सदियों पहले लिखी गयी काव्य-गाथा भर नहीं है – वह आज भी सन्दर्भ, पाठ, प्रस्तुति, जनव्याख्या, संगीत-नृत्य-नाट्य में सजीव, सक्रिय और प्रासंगिक कविता है। हिन्दी में जितने पाठक, रसिक, व्याख्याकार, अध्येता, भक्त इस काव्य के हैं उतने किसी और काव्य के नहीं। लोकप्रियता और महत्त्व दोनों में तुलसीदास अद्वितीय हैं।
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मिट्टी की देह से बना मनुष्य जब पश्चात्ताप की अग्नि में झुलसता है, तो उसके कर्म की स्वीकारोक्ति के मार्ग भी स्वयं प्रशस्त हो जाते हैं। मेरी मानसिक स्थिति तो कोई नहीं समझ पाया किन्तु अवचेतन अवस्था में किसी अबोध के लिए घृणा का भाव तो उपजा ही था। कोई मेरे साथ कैसा व्यवहार करता है, वह उसका चरित्र था किन्तु मैं अपना चरित्र धूल-धूसरित नहीं कर सकती। इसलिए चाहती हूँ कि उसकी सुखद गृहस्थी हो, इसलिए उसकी ब्याह की जिम्मेदारी मैंने अपने हाथ ले ली है। हम लड़की देखकर घर आए ही थे कि मम्मी मुझे कोने में खींच लायी, ‘ऐय अबोली। सुन! उस लड़की के छाती थी क्या ? कमर भी दो बित्ते की थी न ?’
– इसी पुस्तक से
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चारों तरफ अँधेरा है-जीवन में भी। ऐसे समय में जब हर तरफ निराशा, गाली-गलौच और खून-खच्चर फैला हो, आशा जगाने वाली कहानियाँ महत्त्वपूर्ण हो जाती हैं। यह संग्रह इस घुटन भरे माहौल में भरोसा दिलाता है कि कहीं कुछ जीने लायक बचा हुआ है।
अम्मा बूढ़ी हो चुकी हैं। खेत-खलिहान, अड़ोस-पड़ोस, सभी की नजर उनकी वृद्ध जर्जर काया पर है। एकमात्र सहारा पति भी दिवंगत हो चुके हैं। ऐसे अँधेरे में भी उजाले ढूँढ़कर लाना, आत्मविश्वास की डगमगाती काया का सहारा, आँखों में रोशनी भरना योगिता यादव जैसी एक कुशल कहानीकार का ही कमाल है। अमूमन चारों तरफ जहाँ दुख ही दुख झरते हैं, वहाँ सुख की हठात् चमक जैसे रात में बिजली काँध गयी हो, जैसे जीवन और जगत् में अब भी बहुत कुछ जीने लायक बचा हुआ है। ऐसी कहानी है’ नये घर में अम्मा’।
ग्राम्य जीवन की यह कथा आम ग्राम प्रधान और आम महिलाओं से भिन्न है। इस मायने में वह ग्राम प्रधान आमतौर पर है तो अन्य महिला ग्राम प्रधानों की तरह ही, लेकिन शिक्षित और विवेक सम्पन्न होने के नाते अपने कर्तव्य का निर्वाह करती है। और सर्वथा उपेक्षिता बूढ़ी अम्मा को घर, वृद्धावस्था पेंशन और जीवन निर्वाह के अन्य साधन मुहैया कराती है। छल-कपट और अँधेरों, निराशाओं के बीच आशा और सम्बल की ज्योति जगाने वाली यह विरल कहानी है। मानवीय गरिमा से निष्पन्न कहानियों के इस संग्रह में तस्कीन साम्प्रदायिक माहौल में भरोसा बचाये रखती है। साम्प्रदायिकता किस तरह हमारे घर के अभ्यन्तर तक घुसपैठ कर चुकी है, हमारी रगों में, हमारे शैक्षिक संस्थानों और बच्चों तक में नफरत और विभाजन का जहर बोती जा रही है। ऐसे में एक सहृदय विवेक सम्मत श्रीमती वर्मा सब कुछ सँभालने में परेशान हुई जा रही हैं। घर से बाहर तक फैले इस अँधेरे से जूझती महिला की अनोखी कहानी है ‘तस्कीन’। किंचित् लम्बी। सम्भवतः विषय के लिहाज से लम्बा होना लाजमी है।
प्रारम्भ में अपने प्रतीक और व्यंजना की व्याप्ति में, जबकि सारा स्टाफ, उस अकेली मुस्लिम बालिका तस्कीन को छोड़कर जा चुका है, वह उसकी रक्षा में खड़ी होती है। इस तरह यह एक बेहतरीन कहानी है। कहानी के प्रारम्भ में आया हुआ गड़ासा लेखिका के प्रतिभा कौशल का दिग्दर्शन है।
इस संग्रह में कुल आठ कहानियाँ हैं और प्रायः कहानियाँ औपन्यासिक विस्तार में पगी हुई हैं। योगिता के इस तीसरे कहानी संग्रह ‘नये घर में अम्मा’ का स्वागत किया जाना चाहिए।
– संजीव (वरिष्ठ कथाकार)
सम्मुख रश्मि भारद्वाज का चौथा कविता संग्रह है। आकांक्षा और आकांक्ष्य के द्वन्द्व से यथार्थ की जो जमीन दरकती है, उन्हीं दरकनों में स्वप्नों के नये पीपल उग आते हैं। पीपल पूज्य है, परन्तु उन दरारों, दरकनों में उपजे पीपल की कोई जरूरत नहीं समाज को। ऐसे ही समाज की नयी स्थिति में बनी या विकसित हुई स्त्री या उसका व्यक्तित्व लोक लुभावना तो हो सकता है, परन्तु उसे समाज अधिकांशतः धकियाता ही है अपनी सीमाओं से। इसीलिए कवयित्री रश्मि भारद्वाज ‘उस अँधेरे की बात करना चाहती’ हैं, ‘जिसे किसी रोशनी की प्रतीक्षा नहीं होती/ माँ के गर्भ सा निस्सीम अन्धकार/आत्मा को पोषित करता है।’ अर्थात् उसका व्यक्तित्व तमाम विरोधों, विकट स्थितियों में विकसित होने की क्षमता रखता है।
इन कविताओं को पढ़ते हुए पाठकों का सामना उस दुनिया से होता है, जो स्त्री जीवन का भोगा यथार्थ है। इस भोगे यथार्थ में उसका शरीर भी है और वह समाज, उसकी रीति-नीति भी। परन्तु इससे भी बड़ी चीज है उसका वह व्यक्तित्व जो इन दोनों के समानान्तर विकसित होता। खुद उसका अपना शरीर भी उसके व्यक्तित्व के विरुद्ध दीख सकता है। स्त्री व्यक्तित्व की सच्चाई या उसका निर्माण इन कविताओं की छौंक नहीं, उसका अविभाज्य आस्वाद है। इसीलिए इस व्यक्तित्व के सामने ‘महानता के सब रंग उतर आए हैं।’
इन कविताओं में रचने वाली स्त्री, भोगने वाली स्त्री से न सिर्फ पृथक् है अपितु उससे एक निरपेक्ष दूरी भी बरत सकी है। इससे कविता की धार, उसका सौन्दर्य और व्यंग्यार्थ ज्यादा मुखर हो सका है।
– अमिताभ राय
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यह पुस्तक एक जीवनी है और इस विधा में अपनी विशिष्ट जगह बना चुकी है। समकालीन भारत के सबसे जाने-पहचाने इतिहासकार रामचन्द्र गुहा की लिखी महात्मा गांधी की जीवनी कितनी बार पढ़ी गयी और चर्चित हुई। लेकिन गुहा की कलम से रची गयी पहली जीवनी वेरियर एल्विन (1902- 1964) की थी। यह एक ऐसे व्यक्ति की कहानी है जो ऑक्सफोर्ड विश्वविद्यालय से पढ़ाई समाप्त करके ईसाई प्रचारक के रूप में भारत आया। फिर यहीं का होकर रह गया। वह धर्म प्रचार छोड़कर गांधी के पीछे चल पड़ता है। उसने भारतीय आदिवासियों के लिए अपना जीवन समर्पित कर दिया। वह उन्हीं में विवाह करता है। भारत की नागरिकता लेता है और अपने समर्पित कार्यों की बदौलत भारत के प्रथम प्रधानमन्त्री पण्डित जवाहरलाल नेहरू का विश्वास जीतता है। साथ ही उस विश्वास पर खरा उतरता है।
एल्विन का जीवन आदिवासियों के लिए समर्पण की वह गाथा है जिसमें एक बुद्धिजीवी अपने तरीके का ‘एक्टिविस्ट’ बनता है तथा अपनी लेखनी और करनी के साथ आदिवासियों के बीच उनके लिए जीता है। यहाँ तक कि स्वतन्त्रता सेनानियों में भी ऐसी मिसाल कम ही है।
रामचन्द्र गुहा ने वेरियर एल्विन की जीवनी के साथ पूर्ण न्याय किया है। मूल अँग्रेजी में लिखी गयी पुस्तक आठ बार सम्पादित हुई। मशहूर सम्पादक रुकुन आडवाणी के हाथों और निखरी। जीवनी के इस उत्तम मॉडल में एल्विन के जीवन को उसकी पूर्णता में उभारा गया है और शायद ही कोई पक्ष अछूता रहा है।
एल्विन एक बहुमुखी प्रतिभा के व्यक्तित्व थे। वे मानव विज्ञानी, कवि, लेखक, गांधीवादी कार्यकर्ता, सुखवादी, हर दिल अजीज दोस्त और आदिवासियों के हितैषी थे। भारत को जानने और चाहने वाले हर व्यक्ति को एल्विन के बारे में जानना चाहिए ! यह पुस्तक इसमें नितान्त उपयोगी है।
राम गुहा ने इस पुस्तक के द्वितीय संस्करण में लिखा है कि किसी लेखक के लिए उसकी सारी किताबें वैसे ही हैं जैसे किसी माता- पिता के लिए उनके बच्चे। यानी किसी एक को तरजीह नहीं दी जा सकती और न ही कोई एक पसन्दीदा होता है। फिर भी वो अपनी इस किताब को लेकर खुद का झुकाव छुपा नहीं पाये हैं। ऐसा लगता है गुहा अपील करते हैं कि उनकी यह किताब जरूर पढ़ी जानी चाहिए। और क्यों नहीं ?
कविता के भीतर मैं की स्थिति जितनी विशिष्ट और अर्थगर्भी है, वह साहित्य की अन्य विधाओं में कम ही देखने को मिलती है। साहित्य मात्र में ‘मैं’ रचनाकार के अहं या स्व का तो वाचक है ही, साथ ही एक सर्वनाम के रूप में रचनाकार से पाठक तक स्थानान्तरित हो जाने की उसकी क्षमता उसे जनसुलभ बनाती है। कवि हरे प्रकाश उपाध्याय की इन कविताओं में ‘मैं’ का एक और रंग दीखता है। दुखों की सान्द्रता सिर्फ काव्योक्ति नहीं बनती। वह दूसरों से जुड़ने का साधन (और कभी-कभी साध्य भी) बनती है। इसीलिए ‘कबहूँ दरस दिये नहीं मुझे सुदिन’ भारत के बहुत सारे सामाजिकों की हकीकत बन जाती है। इसकी रोशनी में सम्भ्रान्तों का भी दुख दिखाई देता है-‘दुख तो महलों में रहने वालों को भी है’। परन्तु इनका दुख किसी तरह जीवन का अस्तित्व बचाये रखने वालों के दुख और संघर्ष से पृथक् है। यहाँ कवि ने व्यंग्य को जिस काव्यात्मक टूल के रूप में रखा है, उसी ने इन कविताओं को जनपक्षी बनाया है। जहाँ ‘मैं’ उपस्थित नहीं है, वहाँ भी उसकी एक अन्तर्वर्ती धारा छाया के रूप में विद्यमान है।
कविता का विधान और यह ‘मैं’ कुछ इस तरह समंजित होते हैं, इस तरह एक-दूसरे में आवाजाही करते हैं कि बहुधा शास्त्रीय पद्धतियों से उन्हें अलगा पाना सम्भव भी नहीं रह पाता। वे कहते हैं- ‘मेरी कविता में लगे हुए हैं इतने पैबन्द / न कोई शास्त्र न छन्द / मेरी कविता वही दाल भात में मूसलचन्द/ मैं भी तो कवि सा नहीं दीखता / वैसा ही दीखता हूँ जैसा हूँ लिखता’ ।
हरे प्रकाश उपाध्याय की इन कविताओं में छन्द तो नहीं है, परन्तु लयात्मक सन्दर्भ विद्यमान है। यह लय दो तरीके से इन कविताओं में प्रोद्भासित होती है। पहला स्थितियों की आपसी टकराहट से, दूसरा तुकान्तता द्वारा। इस तुकान्तता से जिस रिद्म का निर्माण होता है, वह पाठकों तक कविता को सहज सम्प्रेष्य बनाती है।
हरे प्रकाश उपाध्याय उस समानान्तर दुनिया के कवि हैं या उस समानान्तर दुनिया का प्रतिनिधित्व करते हैं जहाँ अभाव है, दुख है, दमन है। परन्तु उस दुख, अभाव, दमन के प्रति न उनका एप्रोच और न उनकी भाषा-आक्रामक है, न ही किसी प्रकार के दैन्य का शिकार हैं। वे व्यंग्य, वाक्पटुता, वक्रोक्ति के सहारे अपने सन्दर्भ रचते हैं और उन सन्दर्भों में कविता बनती चली जाती है।
– अभिताभ राय
राकेश कुमार सिंह की यह किताब कुछ तिनके, कुछ बातें उनके रचनात्मक वैविध्य का साक्ष्य तो है ही, विधाओं के बहुप्रचलित स्वरूप का अतिक्रमण करने की कोशिश भी इसमें दिखाई देती है।
राकेश कुमार सिंह आकांक्षा और प्रेम, अहसास और आत्मान्वेषण के रचनाकार हैं। उनके यहाँ विगत की परछाईं है तो आगत की आहट और अनागत की कल्पना भी। अधीर और जल्दबाज कतई नहीं हैं, बल्कि धीरे रचने में यकीन करते हैं। यह ऐसी रचनाशीलता है जो हलकी आँच पर धीमे-धीमे सीझते हुए अपना आस्वाद तैयार करती है। चाहे इस पुस्तक में संकलित भाव-टिप्पणियाँ हों, कथा के आवरण में लिखा गद्य हो या कविताएँ, सब पर यह बात लागू होती है। इसलिए लेखक का यह कथन एकदम स्वाभाविक लगता है कि ‘यह पुस्तक मेरे एक दशक से भी अधिक के लेखन और दशकों के अनुभवों का निचोड़ है।’
विधागत वैविध्य के साथ ही यह पुस्तक अपनी अन्तर्वस्तु में भी ढेर सारे रंग समेटे हुए है। इनमें प्रेम, वियोग, स्मृति और कल्पना, मनोमन्थन और अन्तर्द्वन्द्व से लेकर जीवन के प्रति रुख और खान-पान तक बहुत सारी बातें समाहित हैं। लेकिन सबसे ज्यादा जो खूबी पाठक को खींचती और बाँधे रखती है वह है अहसासों का प्रवाह। जैसा कि राकेश कुमार सिंह स्वयं कहते हैं “मन की वे बातें, जो कभी किसी से कह नहीं पाया, मेरे अधूरे सपने, जिन्हें जीना चाहता था, और वे कल्पनाएँ, जो मन में उमड़ती-घुमड़ती रहती थीं- इन्हें ही मैंने शब्दों में ढालने का प्रयास किया है।” उनके इस प्रयास ने जिस अभिनवता को रचा है उसका स्वागत किया जाना चाहिए।
आँगन – खदीजा मस्तूर – हिंदी अनुवाद खुर्शीद आलम
उर्दू के प्रसिद्ध आलोचक उस्लूब अहमद अंसारी इस उपन्यास की गिनती उर्दू के 15
श्रेष्ठ उपन्यासों में करते हैं जबकि शम्सुर्रहमान फ़ारूक़ी का कहना है कि इस नॉवेल
पर अब तक जितनी तवज्जो दी गयी है वो इससे ज्यादा का मुस्तहिक़ है। भारत
विभाजन के विषय पर यह बहुत ही सन्तुलित उपन्यास अपनी मिसाल आप है।
अतिवादी विचारों से विमर्शों को सबसे ज्यादा खतरा पैदा होता है जब वे ऐसे तर्कों की ओर ले जाते हैं जो आपको बेसहारा करके समुद्र में फेंक देते हैं। समुद्र-मन्थन हमारा काम नहीं। हमें अनमोल, अदेखे, विस्मयकारी पत्थर नहीं इस दुनिया में काम आने वाले विचार चाहिए।
वहीं एक जरूरी मिर्श को अतिवादी कहकर कुछ लोग आपत्ति करते हैं कि जिस तेजी से विमर्श वाले लोग यौन-अभिरुचियों पर आधारित अस्मिताएँ हर रोज़ कोई नयी ले आते हैं उससे तो अन्त में भयानक गड़बड़झाला हो जाएगा। कुछ पता ही नहीं चलेगा कि कौन क्या है! (जनसंख्या प्रबन्धन के उद्देश्य से सख्ती करने के लिए सत्ता इसे ही एक तर्क की तरह इस्तेमाल करती आयी है) लेकिन जरा ध्यान से देखिए तो इस विमर्श के पीछे मूल उद्देश्य क्या है? इस बात को स्वीकार करना कि हम सब भिन्न हैं और भिन्न होते हुए भी बराबर हैं इसलिए जगहों और भाषा को ऐसा बनाया जाए जो समावेशी हों। सब अपने खानपान, वेश-भूषा, यौन अभिरुचि और प्रेम पात्र के चयन के लिए स्वतन्त्र हों। समानता और गरिमा से जी सकें।
सबसे मुश्किल यही है। इसलिए भी इतना भ्रम और धुंधलापन छाया हुआ है कि हम भूल गये कि हमने शुरुआत कहाँ से की थी। इस किताब का खयाल तभी दिमाग में आया था जब कुछ युवाओं को स्त्रीवाद के कुछ आधारभूत सवालों पर बेहद उलझा हुआ पाया। इसी किताब के लिए मैंने भी पहली बार मातृसत्ता के मिथक को ठीक से समझने की कोशिश की।
– इसी पुस्तक से
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मुहम्मद अली जिन्ना भारत विभाजन के सन्दर्भ में अपनी भूमिका के लिए निन्दित और प्रशंसित दोनों हैं। साथ ही उनकी मृत्यु के उपरान्त उनके इर्द- गिर्द विभाजन से जुड़ी अफवाहें खूब फैलीं।
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आरएसएस और हिन्दुत्व की राजनीति – राम पुनियानी (सम्पादक रविकान्त)
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तृतीय सेतु पाण्डुलिपि पुरस्कार योजना के तहत पुरस्कृत कृति
दक्षिण अफ्रीका से गांधी भारत वापस आए तब से ही वे भारतीय राजनीति, समाज, दर्शन और जीवन-पद्धति की केन्द्रीय धुरियों में एक रहे। इन तमाम क्षेत्रों में उनका हस्तक्षेप युगान्तकारी रहा। करीब तीन दशकों तक आजादी की लड़ाई का केन्द्रीय नेतृत्व उनके ही हाथों में रहा। गांधी लगातार खुद को परिष्कृत करते रहे। बहुत कुछ किया; जब गलती हुई तो सीखा, सुधार किया और आगे बढ़े। उनके सिद्धान्त दीखने में बहुत सरल थे- मसलन सत्य, अहिंसा, निष्काम कर्म इत्यादि, मगर उनका पालन बहुतों के लिए मुश्किलों में डालने वाला भी रहा। सत्याग्रह और संघर्ष के ये औजार आजादी के बाद पायी गयी सत्ता के समीकरण में बाधक प्रतीत होने लगे। ‘गांधी के बहाने’ पुस्तक गांधीवादी सिद्धान्तों का पुनराविष्कार या पुनश्चर्या या पारायण नहीं है, वह उन सिद्धान्तों के मर्म की खोज करते हुए उन्हें आज के व्यावहारिक जीवन के आलोक में जाँचती है। पराग मांदले के इस गम्भीर प्रयास का पाठकों द्वारा स्वागत होगा, ऐसी उम्मीद की जानी चाहिए।
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