Nishad Samaj Ka Vrihat Itihas
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निषाद समाज का वृहत इतिहास — चौधरी लौटन राम निषाद
‘निषाद जाति का वृहत् इतिहास’ भारतीय संस्कृति और इतिहास की उन प्राचीनतम परतों की पड़ताल है, जिन्हें आर्य संस्कृति के नीचे दबा दिया गया है। या यूँ कहें कि सांस्कृतीकरण की प्रक्रिया के दौरान हड़प लिया गया है। इसकी पुष्टि सुनीति कुमार चटर्जी, कुबेरनाथ राय, रांगेय राघव, आचार्य चतुरसेन सहित विदेशी मूल के अनेक ख्यातिनाम लेखकों/इतिहासकारों के अलावा उन धर्म-ग्रन्थों से भी होती है, जिन्हें आज भारतीय संस्कृति का आधार माना जाता है।
सुनीति कुमार चटर्जी के अनुसार जिसे आज भारतीय संस्कृति के नाम से जाना जाता है, उसका 70 प्रतिशत हिस्सा आग्नेय जातियों की देन है। भारत में निषाद उस जाति-समूह की सबसे बड़ी कड़ी रहे हैं। अपनी पुस्तक ‘इण्डोआर्यन एण्ड हिन्दी’ में उन्होंने बताया है कि आग्नेय लोग आदिम रूप से खेती-बाड़ी करते थे, बीस-बीस करके गिनती करते थे, हिन्दी में ‘कोड़ी’, बंगाली में ‘कुड़ी’ या ‘कुरी’ जैसे शब्द इसी से निकले हैं। उन्होंने ही चावल और शाक-सब्जियों की खेती की शुरुआत की। आधुनिक भारतीय सभ्यता और संस्कृति का पर्याय बन चुके अनेक शब्द जैसे ‘कुदाल’, ‘हरिद्रा’ (हल्दी), अदरक, बैंगन, कद्दू (लौकी, कुम्हड़ा), पान, सिन्दूर जैसे शब्द आग्नेय (निषाद जाति समूह) भाषाओं की ही देन हैं। यही नहीं, ‘गंगा’ शब्द भी उन्हीं की जनभाषा से आया है, मूल शब्द ‘खोंग’, ‘किंयांग’ हैं। नदियों को देवी की तरह पूजना भी उन्होंने ही सिखाया। मातृदेवी की पूजा के जनक भी वही माने गये।
हिन्दू पंचांग चन्द्रमा की बढ़ती घटती कलाओं पर टिका है, यह भी निषाद संस्कृति की ही देन रहा है। निषाद संस्कृति के लोकगीत, रीति-रिवाज, जनविश्वास, आर्य-संस्कृति में इतने ज्यादा घुलमिल गये हैं कि उन्हें खोजकर अलग कर पाना असम्भव है। आर्य-संस्कृति की धारा दक्षिण भारत की जमीन पर कदम रखते-रखते विरल होती जाती है, किन्तु निषादों की संस्कृति का प्रभाव उत्तर से दक्षिण और पूर्व से पश्चिम तक समान रूप से देखा जा सकता है।
सिन्धु सभ्यता के जन्मदाताओं में शबर लोग शामिल थे। संस्कृत ग्रन्थों में उन्हें असुर का दर्जा दिया गया। उनके बनाये किलों को तोड़कर इन्द्र को ‘पुरन्दर’ का दर्जा मिला। रामायण और महाभारत में बड़ी हिस्सेदारी निषादों की है। यदि व्यास को निकाल दिया जाए तो भारतीय संस्कृति न केवल महाभारत जैसे विराट काव्य, बल्कि उपनिषदों और पुराणों की विपुल साहित्यिक सम्पदा से वंचित हो जाएगी। राजाओं में सबसे पहले सम्राट वेन से लेकर रानी विलासा देवी, जिनके नाम पर विलासपुर बसाया गया, तथा बंगाल में दक्षिणेश्वर काली मन्दिर की संस्थापिका तथा स्वामी रामकृष्ण परमहंस की मुख्य पृष्ठपोषिका रानी रासमणि देवी- इसी समाज के गौरव रहे हैं।
पुस्तक के लेखक चौधरी लौटनराम निषाद, लेखक और पत्रकार के साथ-साथ सामाजिक और राजनीतिक क्षेत्र के अतिसक्रिय कार्यकर्ता हैं। वे अपनी बेबाक राजनीतिक टिप्पणियों के लिए भी जाने जाते हैं। यह पुस्तक उनके वर्षों के अनथक श्रम का नतीजा है। पुस्तक की खूबी है कि घोषित इतिहास की शैली में न लिखी होने के बावजूद यह अपने एक-एक शब्द के लिए इतिहास की प्रामाणिकता लिये हुए है। उसी के बल पर यह पाठकों के मानस में जगह बनाएगी; तथा भारतीय समाज और संस्कृति के अनछुए पहलुओं पर व्यापक विमर्श का रास्ता तैयार करेगी।

Description
Nishad Samaj Ka Vrihat Itihas By Cho. Lautanram Nishad (चौधरी लौटन राम निषाद)
निषाद समाज का वृहत इतिहास
About the Author
चौ. लौटनराम निषाद
चौधरी लौटनराम निषाद उत्तर प्रदेश के राजनीतिक हलके में जाना-पहचाना नाम है। 8 मार्च 1971 को सरौली, नन्दगंज, गाजीपुर में इनका जन्म हुआ। स्व. बनताराम चौधरी और सरस्वती देवी इनके पिता-माता हैं।
चौधरी लौटनराम निषाद सामाजिक न्याय और सरोकार को अपनी राजनीति के केन्द्र में रखते हैं। अपनी प्रतिबद्धतापरक राजनीति के कारण इन्होंने मुख्यधारा की राजनीति के समक्ष कई बार जटिल प्रश्न भी खड़े किये हैं।
प्रारम्भिक शिक्षा के उपरान्त इन्होंने महात्मा गांधी काशी विद्यापीठ विश्वविद्यालय, वाराणसी से पत्रकारिता में स्नातक (बी.ए. बीजे) की उपाधि प्राप्त की।OF
ये ‘निषाद ज्योति’ मासिक पत्रिका का सम्पादन भी करते हैं। सामाजिक न्याय से सम्बन्धित मुद्दों पर लेखन व सामाजिक-राजनीतिक समीक्षा इनकी विशेष अभिरुचि के क्षेत्र रहे हैं।
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