सिनेमा का आरम्भ से संगीत से गहरा, अविभाज्य नाता रहा है। जहाँ सिनेमा की सृजनात्मक समृद्धि और लोकप्रियता में गीत-संगीत की महती भूमिका रही है, वहीं सिनेमा ने भी गीत-संगीत के प्रसार को जनव्यापी बनाने में अहम योगदान दिया है। लेकिन इसी के साथ धीरे-धीरे संगीत का एक नया मिज़ाज भी विकसित हुआ, एक नयी शैली या एक नयी विधा ही चल पड़ी जिसे आज हम अमूमन फ़िल्म संगीत के नाम से जानते हैं। सदियों से भारतीय संगीत मोटे तौर पर दो हिस्सों में विभाजित रहा है। एक, शास्त्रीय संगीत, और दूसरा, लोक संगीत। एकदम आरम्भ में फिल्में मूक होती थीं। जैसे ही वे बोलने लगीं, गीत-संगीत से उनका जुड़ाव शुरू हो गया। एक समय था कि अभिनेता-अभिनेत्री ही गाते थे। लेकिन रिकार्डिंग की तकनीक आने के बाद पार्श्व गायन का सिलसिला शुरू हुआ और तब से सिनेमा को एक से एक उम्दा गायकों और एक से एक माहिर संगीतकारों के फ़न का लाभ मिलता रहा है। इस प्रक्रिया में जहाँ फिल्मों को शास्त्रीय संगीत ने सजाया, वहीं लोक धुनों, लोक गीतों और गायकी की लोक शैलियों को भी फिल्मों में बेझिझक प्रवेश मिला।
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अनिरुद्ध शर्मा अनिरुद्ध का जन्म मध्यप्रदेश के देवास जिले की बागली तहसील में हुआ था। स्कूली शिक्षा बागली से पूरी करके इन्होंने इन्दौर के गुजराती विज्ञान महाविद्यालय से स्नातक किया। कंप्यूटर में मास्टर डिग्री लेने के बाद कैपजेमिनी सॉफ्टवेयर, पुणे में बतौर सॉफ्टवेयर डेवलपर 7 वर्षों तक कार्य किया। तकनीक के बजाय अनिरुद्ध को कला की दुनिया लुभाती थी, फिर चाहे वो संगीत हो, सिनेमा हो या साहित्य हो । गाने का शौक़ भी था, साथ ही एक ऑनलाइन पत्रिका में फ़िल्म समीक्षाएँ भी लिखना शुरू किया। कुछ फ़िल्मों के लिए गीत लिखे जो बन नहीं पायीं, टीवी सीरीज़ भी लिखी, वो भी प्रसारित नहीं हुईं, पर फ़िल्म बनाने का जुनून बढ़ता ही गया।
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