Jitendra Shrivastava Books

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SKU: Jitendra Shrivastava Combo
Category:
Author

Jitendra Shrivastava

Language

Hindi

Publisher

Setu Prakashan Samuh

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  • Dalit Kavita – Prashana aur Paripekshya – Bajrang Bihari Tiwari

    दलित साहित्यान्दोलन के समक्ष बाहरी चुनौतियाँ तो हैं ही, आन्तरिक प्रश्न भी मौजूद हैं। तमाम दलित जाति-समुदायों के शिक्षित युवा सामने आ रहे हैं। ये अपने कुनबों के प्रथम शिक्षित लोग हैं। इनके अनुभव कम विस्फोटक, कम व्यथापूरित, कम अर्थवान नहीं हैं। इन्हें अनुकूल माहौल और उत्प्रेरक परिवेश उपलब्ध कराना समय की माँग है। वर्गीय दृष्टि से ये सम्भावनाशील रचनाकार सबसे निचले पायदान पर हैं। यह ज़िम्मेदारी नये मध्यवर्ग पर आयद होती है कि वह अपने वर्गीय हितों के अनपहचाने, अलक्षित दबावों को पहचाने और उनसे हर मुमकिन निजात पाने की कोशिश करे। ऐसा न हो कि दलित साहित्य में अभिनव स्वरों के आगमन पर वर्गीय स्वार्थ प्रतिकूल असर डालने में सफल हों।

    – इसी पुस्तक से

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  • SADAK PAR MORCHA (Poems) Edited by Ramprakash Kushwaha, Rajendra Rajan

    दिल्ली बार्डर पर चले किसान मोर्चे के दौरान एक अद्भुत बात हुई। अनगिनत शहरी हिन्दुस्तानियों को पहली बार एहसास हुआ कि ‘मेरे अन्दर एक गाँव है’। जो किसान नहीं थे उन्हें महसूस हुआ कि ‘आन्दोलन सिर्फ किसानों का नहीं है। किसान सिर्फ खेत में ही नहीं हैं।’ इसकी पहली सांस्कृतिक अभिव्यक्ति पंजाब में हुई। लोकगीतों और गायकों के समर्थन के सहारे यह आन्दोलन खड़ा हुआ और दिल्ली के दरवाजे पहुँचने की ताक़त जुटा सका। आन्दोलन के दौरान लोकमानस से जुड़ी इस रस्सी ने किसान मोर्चे के टेण्ट को टिकाये रखा। इस अन्तरंग रिश्ते ने आन्दोलन को वह ताक़त दी जो हमारे समय के अन्य जन आन्दोलनों- मसलन नागरिकता क़ानून विरोधी आन्दोलन या फिर मज़दूर आन्दोलन- को हासिल नहीं हो पायी। इसी बल पर किसान आन्दोलन पुलिसिया दमन, सत्ता की तिकड़म, गोदी मीडिया के दुष्प्रचार और प्रकृति की मार का मुक़ाबला कर सरकार को घुटने टेकने पर मजबूर कर पाया।

    सड़क पर मोर्चा इस अनूठे रिश्ते का एक ऐतिहासिक दस्तावेज है। इसमें किसान आन्दोलन के दौरान उसके साथ खड़े हुए गीत हैं, मुक्त छन्द की कविताएँ हैं, तो दोहे और ग़ज़लें भी। यह कविताएँ हमारे दृष्टिपटल से विलुप्त होते किसान को हमारी आँख के सामने खड़ा करती हैं-‘ अनथक बेचैन हूँ। आपका और अपना चैन हूँ।
    अन्न के ढेर लगाता हुआ।’ हमारे मानस को झकझोरती हैं- ‘क्या तुम्हारे भीतर उतनी सी भी नमी नहीं बची है। जितनी बची रहती है ख़बर / इन दिनों अखबारों में।’ मीडिया की ठगनी भाषा पर कटाक्ष करती हैं- ‘ये किस तरह के किसान हैं। ये किसान हैं भी या नहीं ?’ कवि किसान को ललकारता है- ‘जो अपनी जमीन को नहीं बचा सकता/ उसे जमीन पर रहने का कोई हक़ नहीं।’ गणतन्त्र दिवस की ट्रैक्टर परेड के बाद जब पूरा निजाम किसान आन्दोलन पर पिल पड़ता है, तब कविता किसान के साथ खड़ी होती है- ‘वे बैल थे पहले / अब ट्रैक्टर हैं। वे श्रोता थे पहले / अब फ़ैक्टर हैं/ सूरज दे रहा है सलामी।’ कविता याद दिलाती है कि- ‘जवान और किसान / दोनों की जगह अब बार्डर पर है’, कि हम एकदम क़रीब से इतिहास बनते हुए देख रहे हैं और कविता पूछती है- ‘किस ओर हो तुम ?’ राज का राज़ खोलती हुई कविता हमारा आह्वान करती है- ‘इस निजाम से लड़ना आसान नहीं/ पर इससे जरूरी कोई काम नहीं।’ निराशा के इस दौर में शब्द किसान के साथ खड़ा हमें आश्वस्त करता है- ‘अन्न की तरह पकेगी सद्बुद्धि।’
    – योगेन्द्र यादव
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    साथ रहकर विलग रहने का अर्थ
    फूल बेहतर जानते हैं मनुष्यों से

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    निर्बाध बहती है छुपी हुई नदी की तरह
    स्पर्श की भाषा में फूल झर जाते हैं छूने से
    सच तो यह है कि वे सह नहीं पाते
    और गिर जाते हैं एक दिन
    हमें फूलों से सीखनी चाहिए विदा !
    – इसी पुस्तक से
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