Mitne Ka Adhikaar By Prachand Praveer

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इस अप्रतिम प्रेम कथा में चित्रकार रघु विवाहिता और अपूर्व सुन्दरी गौरी के प्रेम में पड़कर अपने जीवन को उलझा लेता है। पुस्तक के पहले हिस्से में रघु प्रेम के आरम्भ में ही प्रेम से छुटकारा पा लेना चाहता है किन्तु वह गौरी के प्रणय को अस्वीकार नहीं कर पाता। इस कशमकश में गौरी ही हारकर रघु को छोड़कर चली जाती है। दूसरे हिस्से में पराजित और लज्जित रघु संन्यासियों जैसे भटकने के लिए निकल पड़ता है। भारतीय दर्शन से जुड़ी यह कथा इक्कीसवीं सदी के भारत से जुड़कर नये आयाम खोलती है तथा पाठक को बहुत कुछ विचारने पर विवश करती है।

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    ‘रचना प्रक्रिया के पड़ाव’ प्रसिद्ध रंगकर्मी और विद्वान् श्री देवेन्द्र राज अंकुर की नव्यतम पुस्तक है। रंगमंच को मुख्यतः और प्राथमिक रूप से नाटकों के मंचन से सन्दर्भित माना गया है। नाटकों और एकांकियों की सफलता का एक आधार उनके मंचन की अनुकूलता भी है। इसके अतिरिक्त महाकाव्यों के मंचन की भी सुदीर्घ और समृद्ध परम्परा भारत में रही है। परन्तु प्रस्तुत पुस्तक का सन्दर्भ कहानी के रंगमंच से है। ‘कहानी का रंगमंच’ नामक पुस्तक इस सन्दर्भ की पहली व्यवस्थित पुस्तक थी जिसका सम्पादन महेश आनन्द ने किया था। इसके बावजूद यह पुस्तक उस पुस्तक से कई मायनों में विशिष्ट है। पहली तो यह एक लेखक द्वारा रचित है। दूसरे इसको पहली पुस्तक से लगभग 50 वर्ष बाद लिखा गया है। तो इस लम्बी समयावधि में रंगमंच, ज्ञान-सरणी और कहानी विधा में जो विस्तार हुआ, उसे पुस्तक समेटती है।

    प्रस्तुत पुस्तक को छह हिस्सों में बाँटा गया है- प्रस्तुति, विचार, प्रक्रिया, संवाद, दृश्यालेख और कथासूची। यह बँटवारा अध्ययन की सुविधा के लिए तो है ही, साथ ही यह रचनाकार की उस दृष्टि का महत्तम समापवर्तक भी है जिससे वह चीजों को देखता- जाँचता है।
    इस पुस्तक से रंगमंच के दर्शन का ज्ञान तो होगा ही साथ ही ‘छात्रों, शोधार्थियों और रंगकर्मियों के लिए एक ही दिशा में किये गये काम कहानी का रंगमंच से सम्बद्ध लगभग सारी जानकारियाँ’ भी मुहैया हो सकेंगी। ऐसा हमें विश्वास है।
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  • Ek Raat Ka Mauqif : Ek Raat Ka Sath by Dr. Shakeel

    डॉ. शकील के अफ़साने खुशगवार झोंके की तरह सामने आए हैं।… उनकी बड़ी ख़ासियत यह है कि वह अच्छी तरह जानते हैं, उन्हें क्या नहीं लिखना है। लिखना तो बहुत लोग जानते हैं, मगर इसकी जानकारी कम लोगों को होती है कि उन्हें क्या नहीं लिखना है। डॉ. शकील के यहाँ मुझे एक तरह का CRAFTMANSHIP दिखाई देता है। यह खसूसीयत बहुत रियाज के बाद आती है… मुझे खुशी है कि उर्दू अफ़सानानिगारी में एक ऐसे नाम का इजाफा हो रहा है, जिनके अफ़साने नये रंगो-आहंग (बिम्ब) से मुजय्यन (सुसज्जित) हैं।

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    डॉ. शकील साहब की कहानियाँ हमारे समय की नब्ज़ पर उँगली रखती हैं। ये कहानियाँ हमारे समय और हमारी दुनिया का कार्डियोग्राम हैं।… यहाँ बहुत बारीकी और संवेदना से हिंसा और अमानवीय स्थितियों में छटपटाते स्त्री-पुरुष, उनके संघर्ष और कई बार जीत को प्रस्तुत किया गया है जो समकालीन कथा जगत् के लिए एक विरल घटना है। मूलतः उर्दू में लिखी यह कहानियाँ उर्दू और हिन्दी दोनों ही परम्पराओं से रस ग्रहण करती हैं… डॉ. शकील इन कहानियों के साथ डॉक्टर-कथाकारों की उस महान् परम्परा को आगे बढ़ाते हैं, जिसमें पहले चेखव, समरसेट मॉम, बनफूल सरीखे कथाकार हो गये हैं।
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    JINNAH: His Successes, Failures and Role in History का हिन्दी अनुवाद
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    केदारनाथ सिंह की कविताएँ माँग करती हैं कि उनपर अनेक तरह से विचार किया जाए। उनकी कविता के भी कई पते हैं जिनमें मेरी समझ से स्थायी पता चकिया ही है। लेकिन अन्त में होता यह है कि आप सिर्फ़ कवि का नाम लिख दें और यही उसका स्थायी पता होगा। जब किसी कवि के साथ ऐसा हो जाए तब वह कवि समूची मनुष्यता का कवि हो जाता है। केदार जी के बारे में भी शायद यही हो कि कल हम कहें, केदारनाथ सिंह – कवि । भोजपुरी, हिन्दी, बनारस, चकिया, दिल्ली सब छूट जाएँ।

    येवतुशेंको ने कथाकार शूक्शिन के लिए कहा है कि- “उसकी एक हथेली पर गाँव की कील ठुकी थी और दूसरे पर शहर की।” केदारनाथ सिंह के लिए भी शायद यह बात सही हो।
    – अरुण कमल (इसी पुस्तक से)
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    मुक्तिबोध के हमारे बीच भौतिक रूप से न रहने के छः दशक पूरे होने के वर्ष में इस लम्बी जीवनी को हम, इस आशा के साथ, प्रकाशित कर रहे हैं कि वह मुक्तिबोध को फिर एक जीवन्त उपस्थिति बना सकने में सफल होगी।
    – अशोक वाजपेयी

     

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    औपनिवेशिक भारत में स्तूपों की खुदाई, शिलालेखों और पाण्डुलिपियों के अध्ययन ने बुद्ध को भारत में पुनर्जीवित किया। वरना एक समय यूरोप उन्हें मिस्त्र या अबीसीनिया का मानता था। 1824 में नियुक्त नेपाल के ब्रिटिश रेजिडेण्ट हॉजसन बुद्ध और उनके धर्म का अध्ययन आरम्भ करने वाले पहले विद्वान थे। महान बौद्ध धर्म भारत से ऐसे लुप्त हुआ जैसे वह कभी था ही नहीं। ऐसा क्यों हुआ, यह अभी भी अनसुलझा रहस्य है। चंद्रभूषण बौद्ध धर्म की विदाई से जुड़ी ऐतिहासिक जटिलताओं को लेकर इधर सालों से अध्ययन-मनन में जुटे हैं। यह पुस्तक इसी का सुफल है। इस यात्रा में वह इतिहास के साथ-साथ भूगोल में भी हैं। जहाँ वेदों, पुराणों, यात्रा-वृत्तान्तों, मध्यकालीन साक्ष्यों तथा अद्यतन अध्ययनों से जुड़ते हैं, वहीं बुद्धकालीन स्थलों के सर्वेक्षण और उत्खनन को टटोलकर देखते हैं। वह विहारों में रहते हैं, बौद्ध भिक्षुओं से मिलते हैं, उनसे असुविधाजनक सवाल पूछते हैं और इस क्रम में समाज की संरचना नहीं भूलते। जातियाँ किस तरह इस बदलाव से प्रभावित हुई हैं, इसकी अन्तर्दृष्टि सम्पन्न विवेचना यहाँ आद्योपान्त है।


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    कभी पूर्णिया में” डॉ. आशोक कुमार झा,

    एक महत्त्वपूर्ण किताब है जो केवल पूर्णिया क्षेत्र में रहने वाले ब्रिटिश नागरिकों के जीवन के दस्तावेजीकरण तक सीमित नहीं है बल्कि इसकी वास्तविक प्रासंगिकता औपनिवेशिक भारत में यूरोपीय आबादी और स्थानीय समाज के मध्य बुने गये सम्बन्धों के उस जटिल ताने-बाने को उजागर करने में है जिसके स्रोत आज भी पूर्णिया क्षेत्र में देखे जा सकते हैं।

    -देवेन्द्र चौबे,
    भारतीय भाषा अध्ययन केन्द्र,
    जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय
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  • Fakira By Anna Bhau Sathe

    फकीरा’ उपन्यास अण्णा भाऊ साठे का मास्टरपीस उपन्यास माना जाता है। यह 1959 में प्रकाशित हुआ तथा इसे 1961 में राज्य शासन का सर्वोत्कृष्ट उपन्यास पुरस्कार प्रदान किया गया। इस उपन्यास पर फ़िल्म भी बनी। ‘फकीरा’ एक ऐसे नायक पर केन्द्रित उपन्यास है, जो अपने ग्राम-समाज को भुखमरी से बचाता है, अन्धविश्वास और रूढ़िवाद से मुक्ति का पुरजोर प्रयत्न करता है तथा ब्रिटिश शासन के विरुद्ध विद्रोह करता है। एक दलित जाति के नायक का बहुत खुली मानवीय दृष्टि रखना, ब्रिटिश शासन द्वारा थोपे गये अपराधी जाति के ठप्पे से जुड़ी तमाम यन्त्रणाओं का पुरजोर विरोध करना, अपने आसपास के लोगों को अन्धविश्वास के जाल से निकालने की जद्दोजहद करना तथा बहुत साहस और निर्भयता के साथ अनेक प्रतिमान स्थापित करना ‘फकीरा’ की विशेषता है। उपन्यास का नायक ‘फकीरा’ एक नायक मात्र नहीं है, विषमतामूलक समाज के प्रति असहमति का बुलन्द हस्ताक्षर है।

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