Baraf Mahal Translated by Neelakshi Singh

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वह एक सम्मोहक महल था। उसमें प्रवेश करने का रास्ता जल्द खोज लेना था। वह भूलभुलैया, उत्कण्ठा जगाने वाले रास्तों और विशाल दरवाजों से भरा होने वाला था और उसे उसमें दाखिले का रास्ता खोजकर ही दम लेना था। यह कितनी अजीब बात थी कि उसके सामने आते ही उन्न बाकी का सबकुछ बिल्कुल ही बिसरा चुकी थी। उस महल के भीतर समा जाने की इच्छा के सिवा हर दूसरी चीज का अस्तित्व उसके लिए समाप्त हो चुका था। आह। पर क्या वह सब इतना आसान था ! कितनी तो जगहें थीं, जो दूर से अब खुलीं कि तब खुलीं दिखती थीं, पर जैसे ही उन्न वहाँ पहुँचती, वे धोखा देने पर उतर आतीं। पर वह भी कहाँ हार मानने वाली थी !

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    रचना प्रक्रिया के पड़ाव – देवेन्द्र राज अंकुर

    Rachna Prakriya Ke Padav (Thought on Theatre Work) By Devendra Raj Ankur

    ‘रचना प्रक्रिया के पड़ाव’ प्रसिद्ध रंगकर्मी और विद्वान् श्री देवेन्द्र राज अंकुर की नव्यतम पुस्तक है। रंगमंच को मुख्यतः और प्राथमिक रूप से नाटकों के मंचन से सन्दर्भित माना गया है। नाटकों और एकांकियों की सफलता का एक आधार उनके मंचन की अनुकूलता भी है। इसके अतिरिक्त महाकाव्यों के मंचन की भी सुदीर्घ और समृद्ध परम्परा भारत में रही है। परन्तु प्रस्तुत पुस्तक का सन्दर्भ कहानी के रंगमंच से है। ‘कहानी का रंगमंच’ नामक पुस्तक इस सन्दर्भ की पहली व्यवस्थित पुस्तक थी जिसका सम्पादन महेश आनन्द ने किया था। इसके बावजूद यह पुस्तक उस पुस्तक से कई मायनों में विशिष्ट है। पहली तो यह एक लेखक द्वारा रचित है। दूसरे इसको पहली पुस्तक से लगभग 50 वर्ष बाद लिखा गया है। तो इस लम्बी समयावधि में रंगमंच, ज्ञान-सरणी और कहानी विधा में जो विस्तार हुआ, उसे पुस्तक समेटती है।

    प्रस्तुत पुस्तक को छह हिस्सों में बाँटा गया है- प्रस्तुति, विचार, प्रक्रिया, संवाद, दृश्यालेख और कथासूची। यह बँटवारा अध्ययन की सुविधा के लिए तो है ही, साथ ही यह रचनाकार की उस दृष्टि का महत्तम समापवर्तक भी है जिससे वह चीजों को देखता- जाँचता है।
    इस पुस्तक से रंगमंच के दर्शन का ज्ञान तो होगा ही साथ ही ‘छात्रों, शोधार्थियों और रंगकर्मियों के लिए एक ही दिशा में किये गये काम कहानी का रंगमंच से सम्बद्ध लगभग सारी जानकारियाँ’ भी मुहैया हो सकेंगी। ऐसा हमें विश्वास है।
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  • Durgawati : Garha Ki Parakrami Rani

    उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान के बेचन शर्मा ‘उग्र’ पुरस्कार से सम्मानित कृति


    दुर्गावती

    गढ़ा की पराक्रमी रानी – राजगोपाल सिंह वर्मा

    न केवल गोंड राजवंश के इतिहास में बल्कि समकालीन इतिहास में जितनी कीर्ति दुर्गावती ने अर्जित की उतनी शायद ही किसी शासक ने की हो। संग्राम शाह और फिर दुर्गावती के शासनकाल में ही गोंड सत्ता की जड़ें इतनी गहरी हो गयी थीं कि आगामी दो सौ साल की पतनावस्था में भी राज्य का अस्तित्व बना रहा। यह गढ़ा-कटंगा राज्य की जीवनीशक्ति का प्रमाण है। अकबर की सेना के आक्रमण और दुर्गावती के शौर्य की कहानी जनमानस में इस तरह अंकित हुई कि उसकी याद शताब्दियों के बाद तक अक्षुण्ण है। लोक गीतों में सजकर आज भी उसकी स्मृति सुदूर अंचलों के लोगों के मन में जीवित है।
    इस पुस्तक को जीवनीपरक उपन्यास का रूप अवश्य दिया गया है, पर इतिहास के उन्हीं तथ्यों, स्थलों और तिथियों को मान्यता दी गयी है, जो शोधकर्ताओं ने हमारे सामने रखे हैं। यह पुस्तक उपन्यास रूप में है ताकि पाठकों को उस कालखण्ड की राजनीति, युद्ध और रानी के कृतित्व को समझने में सुगमता रहे। इसके बावजूद यह ध्यान रखा गया है कि घटनाओं, ऐतिहासिक तथ्यों और व्यक्तियों की बाबत प्रामाणिकता बनी रहे। आवश्यकतानुसार किये गये इस औपन्यासिक रूपान्तरण में कतिपय स्थानों पर काल्पनिकता का पुट दिया गया है, पर प्रयास किया गया है कि उससे इस वीरांगना तथा तत्कालीन परिस्थितियों की ऐतिहासिकता अक्षुण्ण बनी रहे। साथ ही एक प्रयोग और भी किया गया है। रानी दुर्गावती के युद्ध मैदान में आत्मघात के बाद उपन्यास अवश्य खत्म हुआ है, लेकिन गढ़ा साम्राज्य की इस नायिका द्वारा पल्लवित यह साम्राज्य बाद के सैकड़ों वर्षों तक अक्षुण्ण रहा, कभी थोड़ा निर्बल हुआ, तो फिर उभरकर शक्तिशाली बना। इस परिवर्तन और विवरण के ऐतिहासिक पक्ष को पुस्तक के दूसरे भाग में सामने लाया गया है। इसके लिए प्रोफेसर सुरेश मिश्र के शोध को आधार माना गया है।

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    हिन्दी साहित्य के 75 वर्ष नेहरू युग से मोदी युग तक (एक उत्तर आधुनिकतावादी पाठ) सुधीश पचौरी

    पिछले सत्तर-अस्सी बरस के साहित्य का इतिहास सीधी लाइन में नहीं चला बल्कि उसमें अनेक टूट-फूट हुई हैं और अनेक विच्छेद आए हैं। ऐसी बहुत सी ‘फॉल्ट लाइनें’ और विच्छेद आज की ‘उत्तर आधुनिक स्थितियों’ में और ‘उत्तर संरचनावादी’ समीक्षा पद्धति के बाद इसलिए और भी अधिक उत्कट होते दीखते हैं क्योंकि आज साहित्य में एक अर्थ, एक प्रातिनिधिक यथार्थ और एकान्विति को नहीं पढ़ा जा सकता क्योंकि अब उसका न कोई एक ‘सेण्टर’ है, न ‘एक यथार्थ’ है और न शब्द का ‘एक अर्थ’ सम्भव है। जब अमेरिका में काले आदमी औरत का ‘पाठ’ गोरे आदमी औरत के ‘पाठ’ से अलग हो सकता है, जब अपने यहाँ दलित ‘पाठ’ गैरदलित ‘पाठ’ से अलग और विपरीत हो सकता है तब एक दिन हिन्दी साहित्य का ‘हिन्दू’ पाठ भी होगा, ‘मुस्लिम’ पाठ भी होगा, ‘सिख’ या ‘बौद्ध’ या ‘ईसाई’ या ‘जैन’ या अन्य पाठ भी सम्भव हैं। जितनी भी अस्मितामूलक पहचानें हैं उन सबके पाठ अलग-अलग हो सकते हैं और कई बार एक-दूसरे के विपरीत और लड़ते- झगड़ते नजर आ सकते हैं। इतना ही नहीं जब दलित विमर्श हो सकते हैं तब ब्राह्मणवादी, वैश्यवादी और क्षत्रियवादी विमर्श भी हो सकते हैं और होंगे और इनके अतिरिक्त, हर ‘अस्मितामूलक समूह’ के ‘स्त्रीत्ववादी’ तथा ‘एलजीबीटीक्यू वादी’ पाठ भी सम्भव हैं। सवाल यह भी है कि आज के ‘उत्तर आधुनिकतावादी’ दौर में जब साहित्य के ‘एक केन्द्रवाद’ का पतन हो चुका हो, तब कौन सा ‘साहित्य शास्त्र’ अथवा कौन सी ‘साहित्यिक सिद्धान्तिकियाँ’ कारगर हो सकती हैं? कहने की जरूरत नहीं कि ऐसे सवालों से टकराये बिना आगे के साहित्य व साहित्य शास्त्र का विकास सम्भव नहीं दीखता।


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  • Bharat Se Kaise Gaya Buddh Ka Dharm By Chandrabhushan

    औपनिवेशिक भारत में स्तूपों की खुदाई, शिलालेखों और पाण्डुलिपियों के अध्ययन ने बुद्ध को भारत में पुनर्जीवित किया। वरना एक समय यूरोप उन्हें मिस्त्र या अबीसीनिया का मानता था। 1824 में नियुक्त नेपाल के ब्रिटिश रेजिडेण्ट हॉजसन बुद्ध और उनके धर्म का अध्ययन आरम्भ करने वाले पहले विद्वान थे। महान बौद्ध धर्म भारत से ऐसे लुप्त हुआ जैसे वह कभी था ही नहीं। ऐसा क्यों हुआ, यह अभी भी अनसुलझा रहस्य है। चंद्रभूषण बौद्ध धर्म की विदाई से जुड़ी ऐतिहासिक जटिलताओं को लेकर इधर सालों से अध्ययन-मनन में जुटे हैं। यह पुस्तक इसी का सुफल है। इस यात्रा में वह इतिहास के साथ-साथ भूगोल में भी हैं। जहाँ वेदों, पुराणों, यात्रा-वृत्तान्तों, मध्यकालीन साक्ष्यों तथा अद्यतन अध्ययनों से जुड़ते हैं, वहीं बुद्धकालीन स्थलों के सर्वेक्षण और उत्खनन को टटोलकर देखते हैं। वह विहारों में रहते हैं, बौद्ध भिक्षुओं से मिलते हैं, उनसे असुविधाजनक सवाल पूछते हैं और इस क्रम में समाज की संरचना नहीं भूलते। जातियाँ किस तरह इस बदलाव से प्रभावित हुई हैं, इसकी अन्तर्दृष्टि सम्पन्न विवेचना यहाँ आद्योपान्त है।


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  • Vaishvik Aatankawad Aur Bharat Ki Asmita By Ram Puniyani

    वैश्विक आतंकवाद और भारत की अस्मिता – राम पुनियानी  (सम्पादक रविकान्त)


    जरूरत इस बात की है कि हम केवल आतंकवाद के लक्षणों को न देखें बल्कि उस रोग का पता लगाने की कोशिश करें, जो आतंकवाद के उदय का मूल कारण है। केवल सुरक्षा व्यवस्था को कड़ा करने से काम नहीं चलेगा क्योंकि अधिकतर आतंकवादी अपने लक्ष्य की प्राप्ति के लिए अपना जीवन खोने के लिए तत्पर रहते हैं। हमने यह भी देखा है कि कुछ वैश्विक ताकतें आतंकवाद को प्रोत्साहन देती हैं और आतंकी संगठनों की मदद करती हैं। इसलिए यह आवश्यक है कि वैश्विक स्तर पर संयुक्त राष्ट्र संघ को और मजबूत बनाया जाए ताकि यह संगठन उन देशों के विरुद्ध कार्रवाई कर सके जो आतंकवादियों को शरण दे रहे हैं। अपने देश के स्तर पर हमें यह सुनिश्चित करना होगा कि आतंकी हमलों के सभी दोषियों को बिना किसी भेदभाव के उनके किये की सजा मिले। हमें यह भी सुनिश्चित करना होगा कि हमारी राजनीति नैतिक मूल्यों पर आधारित हो। जो तत्त्व व शक्तियाँ यह दावा कर रही हैं कि ये किसी धर्म विशेष या धर्म-आधारित राष्ट्रवाद की रक्षक हैं, उन्हें हमें सिरे से खारिज करना होगा। धर्म एक निजी मसला है और उसका राजनीति से घालमेल किसी तरह भी उचित नहीं कहा जा सकता। हमारी राजनीतिक व्यवस्था का आधार स्वतन्त्रता, समानता व बन्धुत्व के मूल्य होने चाहिए। अन्तरराष्ट्रीय स्तर पर वैश्विक प्रजातन्त्र की स्थापना की जरूरत है जिससे चन्द देश पूरी दुनिया पर अपनी दादागिरी न चला सकें।

    – प्रस्तावना से

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  • Khoye Hue Logon Ka Shahar By Ashok Bhaumik

    ‘खोये हुए लोगों का शहर’ विख्यात चित्रकार और लेखक अशोक भौमिक की नयी किताब है। गंगा और यमुना के संगम वाले शहर यानी इलाहाबाद (अब प्रयागराज) की पहचान दशकों से बुद्धिजीवियों और लेखकों के शहर की रही है। इस पुस्तक के लेखक ने यहाँ बरसों उस दौर में बिताये जिसे सांस्कृतिक दृष्टि से वहाँ का समृद्ध दौर कहा जा सकता है। यह किताब उन्हीं दिनों का एक स्मृति आख्यान है। स्वाभाविक ही इन संस्मरणों में इलाहाबाद में रचे-बसे और इलाहाबाद से उभरे कई जाने-माने रचनाकारों और कलाकारों को लेकर उस समय की यादें समायी हुई हैं, पर अपने स्वभाव या चरित्र के किसी या कई उजले पहलुओं के कारण कुछ अज्ञात या अल्पज्ञात व्यक्ति भी उतने ही लगाव से चित्रित हुए हैं। इस तरह पुस्तक से वह इलाहाबाद सामने आता है जो बरसों पहले छूट जाने के बाद भी लेखक के मन में बसा रहा है। कह सकते हैं कि जिस तरह हम एक शहर या गाँव में रहते हैं उसी तरह वह शहर या गाँव भी हमारे भीतर रहता है। और अगर वह शहर इलाहाबाद जैसा हो, जो बौद्धिक दृष्टि से काफी उर्वर तथा शिक्षा, साहित्य, संस्कृति में बेमिसाल उपलब्धियाँ अर्जित करने वाला रहा है, तो उसकी छाप स्मृति-पटल से कैसे मिट सकती है? लेकिन इन संस्मरणों की खूबी सिर्फ यह नहीं है कि भुलाए न बने, बल्कि इन्हें आख्यान की तरह रचे जाने में भी है। अशोक भौमिक के इन संस्मरणों को पढ़ना एक विरल आस्वाद है।

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  • Emergency Raj Ki Antarkatha By Anand Kumar

    अतिरंजित ‘आन्तरिक’ चुनौतियों के शमन के लिए लाये गये इमरजेंसी राज का क्या अर्थ था ? शुरू में इसे अराजकता के खिलाफ एक मजबूत कदम बताया गया। अनुशासन की वापसी के लिए ‘कड़वी दवा’ का इस्तेमाल कहा गया। लेकिन शीघ्र ही यह निरंकुशता की बढ़ती बीमारी में बदलता चला गया। यह स्पष्ट होने लगा कि आपातकाल की घोषणा ने एक नयी शासन व्यवस्था पैदा की जिसके संचालक निरंकुश थे। इस व्यवस्था ने हर नागरिक को असहाय और सारे देश को एक खुली जेल में बदल दिया।

    – इसी पुस्तक से
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  • Jinna : Unki Safaltayein, Vifaltayein Aur Itihas Me Unki Bhoomika by Ishtiaq Ahmed

    मुहम्मद अली जिन्ना भारत विभाजन के सन्दर्भ में अपनी भूमिका के लिए निन्दित और प्रशंसित दोनों हैं। साथ ही उनकी मृत्यु के उपरान्त उनके इर्द- गिर्द विभाजन से जुड़ी अफवाहें खूब फैलीं।

    इश्तियाक अहमद ने कायद-ए-आजम की सफलता और विफलता की गहरी अन्तर्दृष्टि से पड़ताल की है। इस पुस्तक में उन्होंने जिन्ना की विरासत के अर्थ और महत्त्व को भी समझने की कोशिश की है। भारतीय राष्ट्रवादी से एक मुस्लिम विचारों के हिमायती बनने तथा मुस्लिम राष्ट्रवादी से अन्ततः राष्ट्राध्यक्ष बनने की जिन्ना की पूरी यात्रा को उन्होंने तत्कालीन साक्ष्यों और आर्काइवल सामग्री के आलोक में परखा है। कैसे हिन्दू मुस्लिम एकता का हिमायती दो-राष्ट्र की अवधारणा का नेता बना; क्या जिन्ना ने पाकिस्तान को मजहबी मुल्क बनाने की कल्पना की थी-इन सब प्रश्नों को यह पुस्तक गहराई से जाँचती है। आशा है इस पुस्तक का हिन्दी पाठक स्वागत करेंगे।
    JINNAH: His Successes, Failures and Role in History का हिन्दी अनुवाद
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  • RSS Aur Hindutva Ki Rajneeti By Ram Puniyani

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    आरएसएस जितना साम्प्रदायिक है, उससे भी ज्यादा वर्ण और जातिवादी है। आरएसएस का हिन्दुत्व दरअसल नया ब्राह्मणवाद है। गोलवलकर ने एक तरफ मुसलमानों और ईसाइयों को भारत से बाहर निकालने की बात की तो दूसरी तरफ वर्ण व्यवस्था की प्रशंसा करते हुए इसे कठोरता से लागू करने का सन्देश दिया। संघ के मुखपत्र ऑर्गनाइजर (2 जनवरी 1961) के अनुसार गोलवलकर ने अपने एक सम्बोधन में कहा था कि, ‘आज हम अपनी नासमझी की वजह से वर्ण व्यवस्था को नीचा दिखाने की कोशिश कर रहे हैं। जबकि यही वह व्यवस्था है जिसकी वजह से अधिकारात्मकता पर नियन्त्रण करने की महान् कोशिश की गयी है… हमारे समाज में कुछ लोग बौद्धिक, कुछ लोग पैदावार में माहिर, कुछ लोग दौलत कमाने में और कुछ मेहनत करने की क्षमता रखते हैं। हमारे पूर्वजों ने मोटे तौर पर ये चार विभाजन किये थे। वर्ण व्यवस्था कुछ और नहीं बल्कि उन चार विभाजनों के बीच सन्तुलन स्थापित करना है, इसके जरिये हर आदमी समाज की सेवा अपनी बेहतरीन क्षमता द्वारा कर सकता है जो उसने वंशानुगत रूप से विकसित की है। अगर यह व्यवस्था जारी रहती है तो हर व्यक्ति के जीवनयापन के लिए उसके जन्म से ही कार्य सुरक्षित रहेगा।’
    – भूमिका से

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  • GHAR JAATE by Gulammohammed Sheikh

    घर जाते – गुलाममोहम्मद शेख

    हमारे समय के एक मूर्धन्य चित्रकार और कलाविद् गुलाममोहम्मद शेख की गुजराती से हिन्दी अनुवाद में कला-पुस्तक निरखे वही नज़र रजा पुस्तक माला में पहले प्रस्तुत की जा चुकी है। घर जाते शीर्षक पुस्तक उनकी स्मृतियों और संस्मरणों का एक सुनियोजित संकलन है। इसका गद्य विशेष है – ज़िन्दगी – पुरा-पड़ोस-परिवार आदि के चरित्रों-घटनाओं आदि के ब्यौरों के आत्मीय बखान में, अपनी मानवीय ऊष्मा में, अपनी चित्रमयता की आभा में। यह गद्य ऐसा है जिसमें चित्रकार-कवि-व्यक्ति अपनी निपट और सहज मानवीयता में प्रगट, व्यक्त और विन्यस्त होता है। इस गद्य में चित्रकार द्वारा उकेरी छबियाँ हैं, कवि द्वारा पायी सघनता है और व्यक्ति द्वारा सहेजी गयी जिजीविषा है। यह गद्य हमें मानो घर ले जाता और वहाँ से लौटाता भी है : उसमें अतीत वर्तमान हो जाता है और वर्तमान में अतीत के नकूश उभरते, लीन होते हैं। इस अद्भुत गद्य को हिन्दी में प्रस्तुत करते हुए रज़ा फ़ाउण्डेशन प्रसन्नता अनुभव कर रहा है – इस सुखद स्मरण करते संयोग का हुए कि घर जाते (मूल गुजराती घेर जतां) को हाल ही में साहित्य अकादेमी पुरस्कार मिला है।
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  • Allah Naam Ki Siyasat – Hilal Ahmed

    Allah Naam Ki Siyasat – Hilal Ahmed
    ‘अल्लाह नाम की सियासत’ – हिलाल अहमद

    अल्लाह नाम की सियासत एक बेहद विचारोत्तेजक पुस्तक है। यह किताब ऐसे वक्त आयी है जब भारत में मुसलमानों और इस्लाम को लेकर बहुत सारी गलतफ़हमियों और अज्ञान का बाज़ार गर्म है।


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  • Sabhyata Ke Kone By Ramachandra Guha

    संशोधित-परिवर्द्धित हिन्दी संस्करण

    सभ्यता के कोने

    वेरियर एल्विन
    और
    भारतीय आदिवासी समाज

    – रामचन्द्र गुहा
    – अनुवादक अनिल माहेश्वरी

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    यह पुस्तक एक जीवनी है और इस विधा में अपनी विशिष्ट जगह बना चुकी है। समकालीन भारत के सबसे जाने-पहचाने इतिहासकार रामचन्द्र गुहा की लिखी महात्मा गांधी की जीवनी कितनी बार पढ़ी गयी और चर्चित हुई। लेकिन गुहा की कलम से रची गयी पहली जीवनी वेरियर एल्विन (1902- 1964) की थी। यह एक ऐसे व्यक्ति की कहानी है जो ऑक्सफोर्ड विश्वविद्यालय से पढ़ाई समाप्त करके ईसाई प्रचारक के रूप में भारत आया। फिर यहीं का होकर रह गया। वह धर्म प्रचार छोड़कर गांधी के पीछे चल पड़ता है। उसने भारतीय आदिवासियों के लिए अपना जीवन समर्पित कर दिया। वह उन्हीं में विवाह करता है। भारत की नागरिकता लेता है और अपने समर्पित कार्यों की बदौलत भारत के प्रथम प्रधानमन्त्री पण्डित जवाहरलाल नेहरू का विश्वास जीतता है। साथ ही उस विश्वास पर खरा उतरता है।

    एल्विन का जीवन आदिवासियों के लिए समर्पण की वह गाथा है जिसमें एक बुद्धिजीवी अपने तरीके का ‘एक्टिविस्ट’ बनता है तथा अपनी लेखनी और करनी के साथ आदिवासियों के बीच उनके लिए जीता है। यहाँ तक कि स्वतन्त्रता सेनानियों में भी ऐसी मिसाल कम ही है।

    रामचन्द्र गुहा ने वेरियर एल्विन की जीवनी के साथ पूर्ण न्याय किया है। मूल अँग्रेजी में लिखी गयी पुस्तक आठ बार सम्पादित हुई। मशहूर सम्पादक रुकुन आडवाणी के हाथों और निखरी। जीवनी के इस उत्तम मॉडल में एल्विन के जीवन को उसकी पूर्णता में उभारा गया है और शायद ही कोई पक्ष अछूता रहा है।

    एल्विन एक बहुमुखी प्रतिभा के व्यक्तित्व थे। वे मानव विज्ञानी, कवि, लेखक, गांधीवादी कार्यकर्ता, सुखवादी, हर दिल अजीज दोस्त और आदिवासियों के हितैषी थे। भारत को जानने और चाहने वाले हर व्यक्ति को एल्विन के बारे में जानना चाहिए ! यह पुस्तक इसमें नितान्त उपयोगी है।

    राम गुहा ने इस पुस्तक के द्वितीय संस्करण में लिखा है कि किसी लेखक के लिए उसकी सारी किताबें वैसे ही हैं जैसे किसी माता- पिता के लिए उनके बच्चे। यानी किसी एक को तरजीह नहीं दी जा सकती और न ही कोई एक पसन्दीदा होता है। फिर भी वो अपनी इस किताब को लेकर खुद का झुकाव छुपा नहीं पाये हैं। ऐसा लगता है गुहा अपील करते हैं कि उनकी यह किताब जरूर पढ़ी जानी चाहिए। और क्यों नहीं ?

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  • Muktibodh Ki Jeevani Combo Set – (2 Khand) – paperback

    यह सम्भवतः हिन्दी में किसी लेखक की सबसे लम्बी जीवनी है। इसमें सन्देह नहीं कि इस वृत्तान्त से हिन्दी के एक शीर्षस्थानीय लेखक के सृजन और विचार के अनेक नये पक्ष सामने आएँगे और कविता तथा आलोचना की कई पेचीदगियाँ समझने में मदद मिलेगी।

    मुक्तिबोध के हमारे बीच भौतिक रूप से न रहने के छः दशक पूरे होने के वर्ष में इस लम्बी जीवनी को हम, इस आशा के साथ, प्रकाशित कर रहे हैं कि वह मुक्तिबोध को फिर एक जीवन्त उपस्थिति बना सकने में सफल होगी।
    – अशोक वाजपेयी

     

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  • Mizaj-E-Banaras : Banaras Ke Bunkar

    Mizaj-E-Banaras : Banaras Ke Bunkar By Vasanti Raman

    यह किताब बनारस के बुनकरों के जीवन- जगत का एथनोग्राफिक अध्ययन है। इसमें साम्प्रदायिकता और नवउदारवादी आर्थिक नीति के परस्पर जुड़े होने और उसके बुनकरों के दिन-प्रतिदिन के जीवन से लेकर उनके कारोबार पर पड़े नकारात्मक प्रभावों का अन्वेषण किया गया है। इसमें बनारस के मिज़ाज-बनारसीपन और गंगा-जमुनी तहजीब को बनाने और बरकरार रखने में

    बनारस के बुनकरों की महती भूमिका का ऐतिहासिक अवलोकन किया गया है और बताया गया है कि कैसे बुनकरों की दुनिया के संकटग्रस्त होने के साथ-साथ बनारस का मिज़ाज भी बिगड़ता चला जा रहा है। ऑफिसियल आँकड़ों और फील्ड से जुटायी गयी जानकारी के आधार पर किया गया यह शोध सामाजिक मानवविज्ञान, जेण्डर स्टडीज और दक्षिण एशिया के अध्ययन के क्षेत्र में महत्त्वपूर्ण योगदान है।


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  • Hua Karte the Raadhe by Meena Gupta


    हुआ करते थे राधे – मीना गुप्ता


    कई कथाकृतियाँ अपने समय के यथार्थ को बुनने और सामान्य जीवन का अक्स बन जाने की कामयाबी के कारण ही महत्त्वपूर्ण हो उठती हैं। मीना गुप्ता का उपन्यास ‘हुआ करते थे राधे’ भी इसी सृजनात्मक सिलसिले की एक कड़ी है। जैसा कि नाम से ही संकेत मिलता है, उपन्यास के केन्द्र में राधे नामक चरित्र है। उपन्यास शुरू से आखीर तक उसकी जिजीविषा और जद्दोजहद की दास्तान है। एक साधारण वैश्य परिवार में जन्मे राधे को, पिता की असामयिक मृत्यु हो जाने के कारण, बचपन से ही घर-परिवार का बोझ उठाना पड़ा। लेकिन राधे का जीवन संघर्ष यहीं तक सीमित नहीं है। अपने जीवन की दुश्वारियों के साथ-साथ उसे समाज के संकुचित व प्रगतिविरोधी मानसिकता वाले लोगों से भी जूझना पड़ता है। मसलन, घर में शौचालय बनवाने का राधे का निर्णय कुछ उच्चवर्णीय लोगों को रास नहीं आता। उनके विरोध के आगे झुकने के बजाय राधे गाँव छोड़ देता है। नयी जगह उसकी मेहनत और लगन रंग लाती है, परिवार में समृद्धि आती है। लेकिन यह समृद्धि टिकाऊ साबित नहीं होती, बेटे की गैरजिम्मेवारियों की भेंट चढ़ जाती है। उसकी हरकतों से आजिज आकर राधे सारी वसीयत पुत्रवधू के नाम कर देता है। वह पढ़ने- लिखने के लिए अपनी पोतियों को बराबर प्रेरित करता रहता है। बेटे की नालायकी से टूट चुके राधे की निगाह में लड़कियाँ ज्यादा जिम्मेदार और भरोसे के काबिल हैं। उपन्यास में व्यक्ति और समाज के द्वन्द्व को जितने तीखे ढंग से उकेरा गया है उतनी ही शिद्दत से परिवार के भीतर के द्वन्द्व को भी। कथ्य के साथ-साथ कहन शैली के लिहाज से भी यह उपन्यास महत्त्वपूर्ण बन पड़ा है।


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