इक्कीसवीं सदी दहलीज पर थी, जब ज्ञानेन्द्रपति का कविता-संग्रह ‘गंगातट’ शाया हुआ था। तब हिंदी जगत् में उसका व्यापक स्वागत हुआ था और उसे नयी राह खोजने वाली कृति की तरह देखा-पढ़ा गया था। ‘गंगातट’ को किन्हीं ने प्रकृति और सभ्यता के द्वन्द्वस्थल के रूप में चीन्हा था, तो किन्हीं को वहाँ वैश्विक परिदृश्य में हो रहे परिवर्तनों को स्थानिकता की जमीन पर लखने का ईमानदार उद्यम दिखा था जिसमें भूमण्डलीकरण के नाम पर भूमण्डीकरण में जुटे बेलगाम साम्राज्यवादी पूँजीवाद का प्रतिरोध परिलक्षित किया जा सकता था। रचनाकार ने एक साक्षात्कार में तभी कहा था कि ‘गंगातट’ उसके लिए एक असमाप्त रचना-प्रस्ताव है। अपने जनपद से संवेदनात्मक-सर्जनात्मक लगाव के उदाहरण हिंदी कविता में दुर्लभ नहीं, लेकिन ज्ञानेन्द्रपति का-सा जुड़ाव तो बेशक विरल है। सामाजिक-सांस्कृतिक जीवन में प्रवहमान परम्पराओं के जीवन्त तथा अग्रगामी अंशों से संवाद साधते हुए समकालीनता को एक व्यापक कालचेतना से सम्पन्न करते चलने का काम उनके यहाँ सहजता से सम्भव होता है और इसमें उनकी अन्वेषणशील भाषा के समावेशी स्वभाव की खासी भूमिका है। जीवन-छवियों के अंकन के माध्यम से बोलने के कारण उनकी बात का मर्म भावक के चित्त में उसके अपने जीवन-बोध की तरह उपजता चलता है। करीब दो दशक पूरे कर रही इस सदी के वर्ष भारतीय जनजीवन के लिए भी उथल-पुथल-भरे रहे हैं। विज्ञान-जनित उपलब्धियों के बीच सामाजिक जीवन में जर्जरित रूढ़ियाँ हरिया उठी हैं और हिंस्रता के स्फोट ने मानव-मन की सहज करुणा को ग्रस-सा लिया है; स्वार्थान्धता जीवन-विरोधी हो चली है। व्यवस्था के छल ने आम आदमी को आत्मिक रूप से भी असहाय कर दिया है और लुभावने झूठों ने अपनी संरचना परतदार कर ली है। ‘गंगा-बीती’ में एक बार फिर कवि गंगा के जलदर्पण और एक गांगेय नगर के मन-दर्पण में अपने समय के अक्स को खुली आँखों देख रहा है। साक्षीभाव जिस निष्कम्प निर्भीकता की अपेक्षा करता है उस को कबीर की इस नगरी ने ही उसमें प्रगाढ़ किया है। वह किसी के मुकाबिल नहीं, न किसी काबिल है, उसे पता है बखूबी; कोई भोज-भक्त उसे चेताए इसके पहले ही उसे मालूम है कि उसकी औकात गंगू तेली की है, बस, गंगा किनारे का गंगू; यह एहसास ही उसके आत्म-गौरव की जमीन है। ये कविताएँ हर उस की हैं जो युग-सत्य तक संवेदना के रास्ते पहुँचना चाहता है।
About the Author:
जन्म झारखण्ड के एक गाँव पथरगामा में, पहली जनवरी, 1950 को, एक किसान परिवार में। पटना विश्वविद्यालय से पढ़ाई। दसेक वर्षों तक बिहार सरकार में अधिकारी के रूप में कार्य। नौकरी को ‘ना करी’ कह, बनारस में रहते हुए, फ़क़त कविता-लेखन। प्रकाशित कृतियाँ : आँख हाथ बनते हुए (1970) शब्द लिखने के लिए ही यह काग़ज़ बना है (1981) गंगातट (2000), संशयात्मा (2004), भिनसार (2006), कवि ने कहा (2007) मनु को बनाती मनई (2013), गंगा-बीती (2019), कविता भविता-2020 (कविता-संग्रह), एकचक्रानगरी (काव्य-नाटक) पढ़ते-गढ़ते (कथेतर गद्य) भी प्रकाशित। ‘संशयात्मा’ के लिए वर्ष 2006 का साहित्य अकादेमी पुरस्कार। समग्र लेखन के लिए पहल सम्मान, शमशेर सम्मान, नागार्जुन सम्मान आदि कतिपय सम्मान।
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