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  • Bharat Se Kaise Gaya Buddh Ka Dharm By Chandrabhushan

    औपनिवेशिक भारत में स्तूपों की खुदाई, शिलालेखों और पाण्डुलिपियों के अध्ययन ने बुद्ध को भारत में पुनर्जीवित किया। वरना एक समय यूरोप उन्हें मिस्त्र या अबीसीनिया का मानता था। 1824 में नियुक्त नेपाल के ब्रिटिश रेजिडेण्ट हॉजसन बुद्ध और उनके धर्म का अध्ययन आरम्भ करने वाले पहले विद्वान थे। महान बौद्ध धर्म भारत से ऐसे लुप्त हुआ जैसे वह कभी था ही नहीं। ऐसा क्यों हुआ, यह अभी भी अनसुलझा रहस्य है। चंद्रभूषण बौद्ध धर्म की विदाई से जुड़ी ऐतिहासिक जटिलताओं को लेकर इधर सालों से अध्ययन-मनन में जुटे हैं। यह पुस्तक इसी का सुफल है। इस यात्रा में वह इतिहास के साथ-साथ भूगोल में भी हैं। जहाँ वेदों, पुराणों, यात्रा-वृत्तान्तों, मध्यकालीन साक्ष्यों तथा अद्यतन अध्ययनों से जुड़ते हैं, वहीं बुद्धकालीन स्थलों के सर्वेक्षण और उत्खनन को टटोलकर देखते हैं। वह विहारों में रहते हैं, बौद्ध भिक्षुओं से मिलते हैं, उनसे असुविधाजनक सवाल पूछते हैं और इस क्रम में समाज की संरचना नहीं भूलते। जातियाँ किस तरह इस बदलाव से प्रभावित हुई हैं, इसकी अन्तर्दृष्टि सम्पन्न विवेचना यहाँ आद्योपान्त है।
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  • Akhiri Mughal Badshah Ka Court-Marshal By Rajgopal Singh Verma

    इस पुस्तक में बहादुर शाह ज़फ़र के सम्प्रभु स्तर, भले ही वह नाममात्र का हो, की अन्तरराष्ट्रीय, राष्ट्रीय और विदेशी कानूनों के परिप्रेक्ष्य में विवेचना की गयी है। अन्य उन कारकों का भी विश्लेषण किया गया है जिससे साबित होता है कि इस भारतीय बादशाह के विरुद्ध फिरंगी शासकों ने मनमानी, गैरकानूनी तथा अवैधानिक कार्यवाहियाँ की थीं, जिसको कोई भी सभ्य विश्व समुदाय सहमति नहीं दे सकता। साथ ही बहादुर शाह ज़फ़र पर चलाये गये इस अवैधानिक मुकदमे – कोर्ट- मार्शल की सरकारी कार्यवाही का पूरा विवरण भी परिशिष्ट के रूप में उपलब्ध कराया गया है। इस कार्यवाही को पढ़ने, सरकारी पक्ष, साक्ष्यों, अभिलेखों और प्रक्रियाओं के अवलोकन से ही ब्रिटिश प्रशासन की नीयत और मंशा आसानी से समझ आ जाती है। उम्मीद है कि 1857 के संघर्ष और पहली व्यापक क्रान्ति के सन्दर्भ में महत्त्वपूर्ण और जरूरी विश्लेषण के इस दस्तावेज को पाठक गम्भीरता से लेंगे।

    – भूमिका से
    339.00399.00
  • Itihas Purush : Bakht Khan by Rajgopal Singh Verma

    चूँकि यह एक स्वतःस्फूर्त आन्दोलन था, इसलिए 1857 की इस क्रान्ति का कोई एक सर्वमान्य नेता न था, न ही सेना की कमाण्ड किसी एक उच्च अधिकारी के हाथ में थी। हर बागी एक नेता था और हर व्यक्ति आज़ादी के इस जुनून को दिल में सँजोये हुए था। ऐसे में बरेली स्थित सैन्य घुड़सवार-आर्टिलरी ब्रिगेड के एक स्थानीय अधिकारी मुहम्मद बख़्त ख़ान का अपने समर्थकों के साथ दिल्ली पहुँचना, बादशाह द्वारा उसे फिरंगियों के विरुद्ध सेना का नेतृत्व करने के लिए सर्वोच्च ओहदा देना एक बहुत बड़ा कदम और सम्मान था। बादशाह ने उसे सैन्य बलों का कमाण्डर-इन-चीफ बना दिया था। अफरातफरी और अराजकता के उस माहौल में इस जाँबाज़ सैन्य अधिकारी ने अपनी सेना में अनुशासन बनाया, व्यवस्थाओं को दुरुस्त किया, प्रशासनिक मशीनरी को सक्रिय किया और सेना का संचालन तथा शासन चलाने के लिए आवश्यक धनराशि की व्यवस्था की। उसने अव्यवस्था फैलाने और लूटपाट करने वालों को चेतावनी दी तथा न मानने पर उनके विरुद्ध कड़ी कार्रवाई की। बख़्त ख़ान ने हिन्दू-मुस्लिम सौहार्द की स्थितियों

    को बनाये रखने में भी अपना योगदान दिया, तथा बादशाह के खोये हुए गौरव को एक बार फिर से स्थापित करने के लिए जरूरी काम किये।
    238.00280.00
  • Shriramakrishna Paramhansa Edited By Awadhesh Pradhan

    “कछुआ रहता तो पानी में है, पर उसका मन रहता है किनारे पर जहाँ उसके अण्डे रखे हैं। संसार का काम करो, पर मन रखो ईश्वर में।”

    “बिना भगवद्-भक्ति पाये यदि संसार में रहोगे तो दिनोदिन उलझनों में फँसते जाओगे और यहाँ तक फँस जाओगे कि फिर पिण्ड छुड़ाना कठिन होगा। रोग, शोक, तापादि से अधीर हो जाओगे। विषय-चिन्तन जितना ही करोगे, आसक्ति भी उतनी ही अधिक बढ़ेगी।”
    “संसार जल है और मन मानो दूध । यदि पानी में डाल दोगे तो दूध पानी में मिल जाएगा, पर उसी दूध का निर्जन में मक्खन बनाकर यदि पानी में छोड़ोगे तो मक्खन पानी में उतराता रहेगा। इस प्रकार निर्जन में साधना द्वारा ज्ञान-भक्ति प्राप्त करके यदि संसार में रहोगे भी तो संसार से निर्लिप्त रहोगे।”
    – इसी पुस्तक से
    298.00350.00
  • Bhartiya Chintan Ki Bahujan Parampra By Om Prakash Kashyap

    सत्ता चाहे किसी भी प्रकार की और कितनी ही महाबली क्यों न हो, मनुष्य की प्रश्नाकुलता से घबराती है। इसलिए वह उसको अवरुद्ध करने के लिए तरह-तरह के टोटके करती रहती है। वैचारिकता के ठहराव या खालीपन को भरने के लिए कर्मकाण्डों का सहारा लेती है। उन्हें धर्म का पर्याय बताकर उसका स्थूलीकरण करती है। कहा जा सकता है कि धर्म की आवश्यकता जनसामान्य को पड़ती है। उन लोगों को पड़ती है, जिनकी जिज्ञासाएँ या तो मर जाती हैं अथवा किसी कारणवश वह उनपर ध्यान नहीं दे पाता है। यही बात उसके जीवन में धर्म को अपरिहार्य बनाती है। दूसरे शब्दों में धर्म मनुष्य की मूलभूत आवश्यकता न होकर, परिस्थितिगत आवश्यकता है। जनसाधारण अपने बौद्धिक आलस्य तथा जीवन की अन्यान्य उलझनों में घिरा होने के कारण धार्मिक बनता है। न कि धर्म को अपने लिए अपरिहार्य मानकर उसे अपनाता है। फिर भी मामला यहीं तक सीमित रहे तो कोई समस्या न हो। समस्या तब पैदा होती है जब वह खुद को कथित ईश्वर का बिचौलिया बताने वाले पुरोहित को ही सब कुछ मानकर उसके वाग्जाल में फँस जाता है। अपने सभी फैसले उसे सौंपकर उसका बौद्धिक गुलाम बन जाता है।

    – इसी पुस्तक से

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    552.00649.00
  • Lokayan Ki Samajikta By Dhananjay Singh

    लोकायन में लोक साहित्य की लोकगाथा, लोकगीत, लोक कथा, लोक कहावतें, किस्से, लोकबुझौवल (पहेलियाँ), लोक बालगीत एवं लोक बालखेल, मिथक इत्यादि तो हैं ही। इसके साथ इसमें लोक की वो सब प्रथाएँ, अनुष्ठान एवं लोक सांस्कृतिक व्यवहार एवं परम्पराएँ शामिल हैं, जिनसे लोकायन बनता है। बहुधा वह अपनी जैविकता के साथ समग्रता में प्रस्तुत होता है। कई बार लोकायन वैज्ञानिक और ऐतिहासिक सत्यों पर आधारित न होकर सामूहिक आस्था और विश्वास की गतिकी में चलता है अर्थात् इसका एक भाग सामाजिक संरचना को आधार देता है, दूसरा भाग आस्थाओं और विश्वासों को। यह सामाजिक श्रुति के रूप में जीवित रहता है। इसमें भी दिक्, काल और कार्यकारण सम्बन्ध की अवधारणाएँ अन्तर्निहित होती हैं। इसमें तथ्यों और सूचनाओं का विशाल संग्रह होता है, जिसकी स्मृति एक के बाद अनेक पीढ़ियों और कई कालखण्डों तक जीवित रहती है। यह जातीय स्मृति ही परम्पराओं का मूल स्रोत है।

    -प्राक्कथन से
    276.00325.00
  • Meri Yatna Ke Ant Main Ek Darwaza Tha – Rashmi Bhardwaj

    विश्व की बारह स्त्री कवियों द्वारा लिखी गयी चुनिन्दा कविताओं के अनुवाद का प्रस्तुत संचयन हिन्दी में अपनी तरह का पहला संग्रह है। यहाँ प्रत्येक कवि अपने काव्य की चारित्रिक विशेषताओं के साथ उपस्थित है, और समग्रतः स्त्री-विश्व का ऐसा दृश्यालेख भी, जो मनुष्यत्व से अभिन्न व जीवनमय है।

    रश्मि भारद्वाज ने पहले कवि और उपन्यासकार के रूप में अपनी सार्थक व सफल पहचान बनायी और अब इस संचयन से वे एक अनुपम अनुवादक की तरह भी जानी जाएँगी; उन्होंने अनूदित कविताओं को हिन्दी में नया जीवन प्रदान किया है।
    – पीयूष दईया
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  • Lay : Bhav-Bhaav-Anubhav Ki – Purwa Bharadwaj

    पूर्वा भारद्वाज इस पुस्तक के पहले साहित्य में नहीं रही हैं, वे उसके इर्द-गिर्द लम्बे समय से हैं-साहित्य से उनका सम्बन्ध पारिवारिक है। ‘लय’ के गद्य में भव, भाव और अनुभव की ऐसी छवियाँ, अहसास और बखान हैं जो अक्सर साहित्य के भूगोल में दाखिल नहीं हो पाते हैं। वे ‘लगना’ ‘हलकापन’ और ‘फालतूपन’ पर विचार करती हैं, ‘इमली की खटास’, ‘सिटकनी’ ‘हवाई चप्पल’ पर लिखती हैं और मर्मदृष्टि से ‘बाबा’, ‘नानाजी’, ‘माँ’, नीलाभ मिश्र, रमाबाई आदि को याद करती हैं। सीधा सच्चा बयान और बखान वे, बिना किसी लच्छेदार मुद्रा के, सहज भाव से करती हैं। एक ऐसे समय में जब भव्यता और वैभव क्रूरता को छुपा रहे हैं तब साधारण जीवन में मानवीय ऊष्मा, सहानुभूति और सहकार की अलक्षित उपस्थिति और सम्भावना के दस्तावेज़ के रूप में यह पुस्तक प्रासंगिक है।

    – अशोक वाजपेयी

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  • Khoye Hue Logon Ka Shahar By Ashok Bhaumik

    ‘खोये हुए लोगों का शहर’ विख्यात चित्रकार और लेखक अशोक भौमिक की नयी किताब है। गंगा और यमुना के संगम वाले शहर यानी इलाहाबाद (अब प्रयागराज) की पहचान दशकों से बुद्धिजीवियों और लेखकों के शहर की रही है। इस पुस्तक के लेखक ने यहाँ बरसों उस दौर में बिताये जिसे सांस्कृतिक दृष्टि से वहाँ का समृद्ध दौर कहा जा सकता है। यह किताब उन्हीं दिनों का एक स्मृति आख्यान है। स्वाभाविक ही इन संस्मरणों में इलाहाबाद में रचे-बसे और इलाहाबाद से उभरे कई जाने-माने रचनाकारों और कलाकारों को लेकर उस समय की यादें समायी हुई हैं, पर अपने स्वभाव या चरित्र के किसी या कई उजले पहलुओं के कारण कुछ अज्ञात या अल्पज्ञात व्यक्ति भी उतने ही लगाव से चित्रित हुए हैं। इस तरह पुस्तक से वह इलाहाबाद सामने आता है जो बरसों पहले छूट जाने के बाद भी लेखक के मन में बसा रहा है। कह सकते हैं कि जिस तरह हम एक शहर या गाँव में रहते हैं उसी तरह वह शहर या गाँव भी हमारे भीतर रहता है। और अगर वह शहर इलाहाबाद जैसा हो, जो बौद्धिक दृष्टि से काफी उर्वर तथा शिक्षा, साहित्य, संस्कृति में बेमिसाल उपलब्धियाँ अर्जित करने वाला रहा है, तो उसकी छाप स्मृति-पटल से कैसे मिट सकती है? लेकिन इन संस्मरणों की खूबी सिर्फ यह नहीं है कि भुलाए न बने, बल्कि इन्हें आख्यान की तरह रचे जाने में भी है। अशोक भौमिक के इन संस्मरणों को पढ़ना एक विरल आस्वाद है।

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  • Mera Jivan Sangharsh By Swami Sahjanand Sarswati

    स्वामी सहजानन्द की जीवनगाथा में यह संघर्ष एक सुस्पष्ट दिशा की ओर बढ़ता हुआ दिखाई देता है-शास्त्र से समाज की ओर, धर्म से धर्मनिरपेक्षता की ओर, समाज सुधार से सामाजिक क्रान्ति की ओर, वर्ग-सामंजस्य से वर्ग-संघर्ष की ओर, वेदान्ती समतावाद से वैज्ञानिक समाजवाद की ओर । ऐसा आत्मसंघर्ष और व्यक्तित्व का ऐसा विलक्षण रूपान्तरण, बहुत कम राष्ट्रनेताओं में देखने को मिलता है। स्वामी सहजानन्द के जीवन संघर्ष की कथा एक महान् राष्ट्रनेता के व्यक्तित्व के विकास और रूपान्तरण की महागाथा के रूप में अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है।

    – सम्पादक
    361.00425.00
  • Char Aadiroop Translated by Pragati Saxena

    यह मनुष्य के स्वतन्त्र, यानी चेतन निर्णय पर निर्भर करता है कि यह भलाई भी कहीं किसी शैतानी बुराई में ना विकृत हो जाए। मनुष्य का सबसे बड़ा पाप अचेतनता है, जिससे वे लोग भी बहुत धार्मिकता और करुणा से बर्ताव करते हैं, जिन्हें मनुष्यता के लिए शिक्षक और उदाहरण होना चाहिए। हम कब इतने क्रूर तरीक़े से मानवता को लापरवाही से लेना बन्द करेंगे और गम्भीरता से मनुष्यता को इस पैशाचिक वश से मुक्त करने के तरीक़े और साधन ढूँढ़ेंगे, ताकि हम उसे इस अचेतना और हस्तक्षेप से बचा सकें और कब इसे सभ्यता का सबसे महत्त्वपूर्ण काम बनाएँगे ? क्या हम इतना भी नहीं समझ सकते कि ये सारे बाहरी सुधार और फेरबदल मनुष्य की भीतरी प्रकृति को छू भी नहीं पाते, और अन्तत: सब कुछ इस बात पर निर्भर करता है कि सारे विज्ञान और तकनीक के साथ क्या मनुष्य ज़िम्मेदारी उठाने के लिए सक्षम है या नहीं ?

    – इसी पुस्तक से

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    213.00250.00
  • Faasiwaad Ki Dastak By RaviBhushan

    अँग्रेज़ों ने यह कार्य (विभक्तीकरण और विभेदीकरण का) अपने स्वार्थ के लिए किया था। देश पर हुकूमत क़ायम करने के लिए देशवासियों को धर्मों, मज़हबों और विभिन्न धड़ों में विभाजित करना उनके अपने लिए फ़ायदेमन्द था। स्वतन्त्र भारत में वही तरीक़ा-कभी कम, कभी अधिक अपनाया जाता रहा है। यह भारत की आत्मा को कुचलना और लहूलुहान करना है। यहीं से सद्भाव समाप्त होने लगा और दुर्भाव बढ़ने लगा। देश में चुनौतियों और संकटों का इस स्थिति में बढ़ना, बढ़ते जाना स्वाभाविक था। आज भारतीय लोकतन्त्र और ‘सेकुलरिज्म’ के समक्ष जैसी चुनौतियाँ हैं, वैसी पहले कभी नहीं थीं।

    – इसी पुस्तक से

     

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