Pitrisatta Yaunikta aur Samlaingikta By Sujata

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पितृसत्ता यौनिकता और समलैंगिकता – सुजाता


अतिवादी विचारों से विमर्शों को सबसे ज्यादा खतरा पैदा होता है जब वे ऐसे तर्कों की ओर ले जाते हैं जो आपको बेसहारा करके समुद्र में फेंक देते हैं। समुद्र-मन्थन हमारा काम नहीं। हमें अनमोल, अदेखे, विस्मयकारी पत्थर नहीं इस दुनिया में काम आने वाले विचार चाहिए।

वहीं एक जरूरी मिर्श को अतिवादी कहकर कुछ लोग आपत्ति करते हैं कि जिस तेजी से विमर्श वाले लोग यौन-अभिरुचियों पर आधारित अस्मिताएँ हर रोज़ कोई नयी ले आते हैं उससे तो अन्त में भयानक गड़बड़झाला हो जाएगा। कुछ पता ही नहीं चलेगा कि कौन क्या है! (जनसंख्या प्रबन्धन के उद्देश्य से सख्ती करने के लिए सत्ता इसे ही एक तर्क की तरह इस्तेमाल करती आयी है) लेकिन जरा ध्यान से देखिए तो इस विमर्श के पीछे मूल उद्देश्य क्या है? इस बात को स्वीकार करना कि हम सब भिन्न हैं और भिन्न होते हुए भी बराबर हैं इसलिए जगहों और भाषा को ऐसा बनाया जाए जो समावेशी हों। सब अपने खानपान, वेश-भूषा, यौन अभिरुचि और प्रेम पात्र के चयन के लिए स्वतन्त्र हों। समानता और गरिमा से जी सकें।

सबसे मुश्किल यही है। इसलिए भी इतना भ्रम और धुंधलापन छाया हुआ है कि हम भूल गये कि हमने शुरुआत कहाँ से की थी। इस किताब का खयाल तभी दिमाग में आया था जब कुछ युवाओं को स्त्रीवाद के कुछ आधारभूत सवालों पर बेहद उलझा हुआ पाया। इसी किताब के लिए मैंने भी पहली बार मातृसत्ता के मिथक को ठीक से समझने की कोशिश की।

– इसी पुस्तक से


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हिन्दी के पहले सामुदायिक स्त्रीवादी ब्लॉग ‘चोखेरेबाली’ की शुरुआत से लेकर कविता संकलन ‘अनंतिम मौन के बीच’, स्त्री विमर्श की सैद्धान्तिकी पर एक पुस्तक ‘स्त्री निर्मिति’ और उपन्यास ‘एक बटा दो’ तक स्त्रीवाद की अपनी गहरी समझ, सरोकारों और भाषा के अनूठे प्रयोगों से पहचान बनाने वाली सुजाता पिछले डेढ़ दशक से दिल्ली विश्वविद्यालय में अध्यापन कर रही हैं। पंडिता रमाबाई की जीवनी ‘विकल विद्रोहिणी पंडिता रमाबाई’, स्त्री संघर्षों के वैश्विक परिदृश्य को समेटती किताब ‘दुनिया में औरत’ प्रकाशित। कविता के लिए कुछ पुरस्कार और सम्मान।

स्त्रीवादी आलोचना की किताब ‘आलोचना का स्त्री पक्ष’ के लिए देवीशंकर अवस्थी स्मृति सम्मान से सम्मानित ।


SKU: Pitrisatta Yaunikta aur Samlaingikta - PB
Categories:, ,
Weight 0.180 kg
Dimensions 20 × 13 × 1 cm
Author

Sujata

Binding

Paperback

Language

Hindi

ISBN

978-9362018649

Pages

160

Publication date

29-01-25

Publisher

Setu Prakashan Samuh

Tags

Customer Reviews

1-5 of 3 reviews

  • kanchan yadav

    पितृसत्ता, यौनिकता और समलैंगिकता – एक जरूरी विमर्श

    सुजाता की यह पुस्तक पितृसत्ता, यौनिकता और समलैंगिकता के जटिल सवालों को गहराई से समझने की कोशिश करती है। लेखिका तर्क देती हैं कि समानता और समावेशिता की राह में सबसे बड़ा अवरोध अतिवादी विचारधाराएँ हैं, जो समाज में भेदभाव को मजबूत करती हैं।
    यह किताब न सिर्फ लिंगभेद और यौनिक पहचान को लेकर बने सामाजिक पूर्वाग्रहों को तोड़ती है, बल्कि यह भी रेखांकित करती है कि हर व्यक्ति को अपनी पहचान और प्रेम के चयन में स्वतंत्रता मिलनी चाहिए। लेखिका मातृसत्ता के मिथक और स्त्रीवाद के बुनियादी सवालों को सरल भाषा में समझाने का प्रयास करती हैं।

    February 14, 2025
  • prashant panwar

    सुजाता की यह पुस्तक पितृसत्ता, यौनिकता और समलैंगिकता से जुड़े जटिल मुद्दों पर गहन विमर्श प्रस्तुत करती है। लेखिका तर्क देती हैं कि विविधताओं को स्वीकारने की बजाय, समाज ने इन्हें असमंजस और भय का विषय बना दिया है।

    February 14, 2025
  • Anushka singh

    किताब शुरू से ही अपने साथ जुड़े रहने पर मजबूर कर देती है, एक अच्छी किताब.

    March 12, 2025

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    कल्पना और यथार्थ से निर्मित यह काव्यभूमि अपने वर्तमान से निर्मित है। इस वर्तमान में कवि का आस-पड़ोस भी है, घर-परिवार भी और जीवन-जगत् भी। साथ ही जीवन और समाज के वे प्रसंग भी हैं जो हमारे अस्तित्व के किसी कोण से डूबे लगते हैं। इस काव्यात्मक युक्ति के सहारे ये आत्म से बाहर निकल समाज की वृहतर सरणियों को भी छूते हैं।
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    – अमिताभ राय


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    – अखिलेश

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    – इसी पुस्तक से


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    एक और उल्लेखनीय बात मुझे यह दिखाई पड़ी कि इन कविताओं का रचयिता अकेलेपन के उस गरिमाबोध को सचेष्ट रूप से तोड़ने की कोशिश करता है, जिससे समकालीन कविता किसी हद तक आक्रान्त रही है। ‘अकेला नहीं हूँ ब्रह्माण्ड में, धरती के साथ हूँ गतिशील’ जैसी पंक्ति एक युवा मन के उस गहरे विश्वास को प्रकट करती है, जो सारी विषम परिस्थितियों से जूझते हुए भी अटूट बने रहने के दमखम से भरा है। पर दिलचस्प यह है कि एक सुखद सृजनात्मक सजगता के द्वारा कवि अपनी इस बुनियादी आस्था को कोरे आशावाद में विसर्जित होने से बचाता है और यह एक नये कवि के लिए अपने आप में एक सफलता है।
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    – केदारनाथ सिंह


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    नटनी — रत्नकुमार सांभरिया


    ‘नटनी’ उपन्यास हाशिये के समाज को मुख्य पृष्ठ पर लाने की जिद्दोजहद है। यह वह समाज है, जो सदियों से शोषण, गुलामी, तिरस्कार और अत्याचार का शिकार होकर खुले आसमान तले और धरती के किसी कोने पर खानाबदोशी जीवन जीने को मजबूर है।
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    उपन्यासकार ने देश की स्वाधीनता के पश्चात उभरे पंचायतीराज व उसमें पनपे भ्रष्टाचार की पोल खोलकर रख दी है। पंचायतीराज में आरक्षण के तहत पिछड़े व दलित वर्ग को प्रतिनिधित्व दिया गया है, लेकिन कैसे दबंग लोग उनको आगे नहीं आने देते इसका भी पर्दाफाश है।
    उपन्यास नायिका प्रधान है। अतः स्त्री पात्रों को तवज्जो दी गयी है। रज्जो के सरपंची के चुनाव में उसकी प्रतिद्वन्द्वी लाजोदेवी का चरित्र जहाँ जुझारू स्त्री का परिचायक है, वहीं फूलकुमारी निडर होकर शिक्षा की सार्थकता सिद्ध करती है। हवेली की शीतलदेवी स्त्री सशक्तीकरण का संजीदा चरित्र है, जो स्त्री की गरिमा की रक्षार्थ अपनों से भी दो-दो हाथ करने को तत्पर है। सामन्ती परिवेश में रहकर भी वह उदारमना है।
    खल चरित्र जिगरसिंह सामन्तवाद व जात्याभिमान का जीता-जागता नमूना है। उसके वर्चस्व को धराशायी करना ही लेखक का वास्तविक ध्येय है ताकि वंचित वर्गों तक लोकतन्त्र का वास्तविक सन्देश जाए ‘हम भारत के लोग’ की अवधारणा सार्थक रूप हो सके। सन्दीप बावा भ्रष्टाचार का पुंज है, जो हवेली की कठपुतली है।
    लेखक ने प्रचलित लोकोक्तियों व मुहावरों के साथ मुहावरे गढ़े भी हैं, जिनसे कथावस्तु जीवन्त बन गयी है। उपन्यास की
    भाषा पात्रानुकूल है, जिसमें तद्भव के साथ तत्सम का समन्वय देखते ही बनता है। स्थानीय रंग व प्रकृति के नाना आयामों में कथा की बुनावट करना लेखक के सृजन की मौलिकता को दृष्टिगत करता है। बतकही शैली अन्य विशेषता है। उपन्यास में स्थान-स्थान पर प्रतीकों की सृष्टि की गयी है, जो कथावस्तु को दृढ़ता प्रदान करने के लिए उपयुक्त है।
    लेखक के पूर्व प्रकाशित उपन्यास ‘साँप’ की तरह’ नटनी’ भी उनकी कलम की सुदृढ़ ‘रज्जो’ सिद्ध होगा, जिस पर चलना हुनरमन्द के ही बस की बात है, बशर्ते इनके साथ कोई दगा न हो।
    प्रो. (डॉ.) किशोरीलाल ‘पथिक’
    वरिष्ठ चिंतक व आलोचक


     

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    अबोली की डायरी – जुवि शर्मा

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    – इसी पुस्तक से


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    फकीरा’ उपन्यास अण्णा भाऊ साठे का मास्टरपीस उपन्यास माना जाता है। यह 1959 में प्रकाशित हुआ तथा इसे 1961 में राज्य शासन का सर्वोत्कृष्ट उपन्यास पुरस्कार प्रदान किया गया। इस उपन्यास पर फ़िल्म भी बनी। ‘फकीरा’ एक ऐसे नायक पर केन्द्रित उपन्यास है, जो अपने ग्राम-समाज को भुखमरी से बचाता है, अन्धविश्वास और रूढ़िवाद से मुक्ति का पुरजोर प्रयत्न करता है तथा ब्रिटिश शासन के विरुद्ध विद्रोह करता है। एक दलित जाति के नायक का बहुत खुली मानवीय दृष्टि रखना, ब्रिटिश शासन द्वारा थोपे गये अपराधी जाति के ठप्पे से जुड़ी तमाम यन्त्रणाओं का पुरजोर विरोध करना, अपने आसपास के लोगों को अन्धविश्वास के जाल से निकालने की जद्दोजहद करना तथा बहुत साहस और निर्भयता के साथ अनेक प्रतिमान स्थापित करना ‘फकीरा’ की विशेषता है। उपन्यास का नायक ‘फकीरा’ एक नायक मात्र नहीं है, विषमतामूलक समाज के प्रति असहमति का बुलन्द हस्ताक्षर है।

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  • Har Jagah Se Bhagaya Gaya Hoon By Hare Prakash Upadhyay

    हर जगह से भगाया गया हूँ – हरे प्रकाश उपाध्याय

    कविता के भीतर मैं की स्थिति जितनी विशिष्ट और अर्थगर्भी है, वह साहित्य की अन्य विधाओं में कम ही देखने को मिलती है। साहित्य मात्र में ‘मैं’ रचनाकार के अहं या स्व का तो वाचक है ही, साथ ही एक सर्वनाम के रूप में रचनाकार से पाठक तक स्थानान्तरित हो जाने की उसकी क्षमता उसे जनसुलभ बनाती है। कवि हरे प्रकाश उपाध्याय की इन कविताओं में ‘मैं’ का एक और रंग दीखता है। दुखों की सान्द्रता सिर्फ काव्योक्ति नहीं बनती। वह दूसरों से जुड़ने का साधन (और कभी-कभी साध्य भी) बनती है। इसीलिए ‘कबहूँ दरस दिये नहीं मुझे सुदिन’ भारत के बहुत सारे सामाजिकों की हकीकत बन जाती है। इसकी रोशनी में सम्भ्रान्तों का भी दुख दिखाई देता है-‘दुख तो महलों में रहने वालों को भी है’। परन्तु इनका दुख किसी तरह जीवन का अस्तित्व बचाये रखने वालों के दुख और संघर्ष से पृथक् है। यहाँ कवि ने व्यंग्य को जिस काव्यात्मक टूल के रूप में रखा है, उसी ने इन कविताओं को जनपक्षी बनाया है। जहाँ ‘मैं’ उपस्थित नहीं है, वहाँ भी उसकी एक अन्तर्वर्ती धारा छाया के रूप में विद्यमान है।
    कविता का विधान और यह ‘मैं’ कुछ इस तरह समंजित होते हैं, इस तरह एक-दूसरे में आवाजाही करते हैं कि बहुधा शास्त्रीय पद्धतियों से उन्हें अलगा पाना सम्भव भी नहीं रह पाता। वे कहते हैं- ‘मेरी कविता में लगे हुए हैं इतने पैबन्द / न कोई शास्त्र न छन्द / मेरी कविता वही दाल भात में मूसलचन्द/ मैं भी तो कवि सा नहीं दीखता / वैसा ही दीखता हूँ जैसा हूँ लिखता’ ।
    हरे प्रकाश उपाध्याय की इन कविताओं में छन्द तो नहीं है, परन्तु लयात्मक सन्दर्भ विद्यमान है। यह लय दो तरीके से इन कविताओं में प्रोद्भासित होती है। पहला स्थितियों की आपसी टकराहट से, दूसरा तुकान्तता द्वारा। इस तुकान्तता से जिस रिद्म का निर्माण होता है, वह पाठकों तक कविता को सहज सम्प्रेष्य बनाती है।
    हरे प्रकाश उपाध्याय उस समानान्तर दुनिया के कवि हैं या उस समानान्तर दुनिया का प्रतिनिधित्व करते हैं जहाँ अभाव है, दुख है, दमन है। परन्तु उस दुख, अभाव, दमन के प्रति न उनका एप्रोच और न उनकी भाषा-आक्रामक है, न ही किसी प्रकार के दैन्य का शिकार हैं। वे व्यंग्य, वाक्पटुता, वक्रोक्ति के सहारे अपने सन्दर्भ रचते हैं और उन सन्दर्भों में कविता बनती चली जाती है।

    – अभिताभ राय


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  • PARAKH (Interview with Ashok Vajpeyi) by Poonam Arora

    परख

    अशोक वाजपेयी से बातचीत – पूनम अरोड़ा


    अशोक वाजपेयी के बहुत-से साक्षात्कार लिये गये हैं, जिनकी एक पूरी पुस्तक भी प्रकाशित हो चुकी है। चूंकि अशोक वाजपेयी उत्कृष्ट कवि-आलोचक होने के साथ- साथ हिन्दुस्तान के शीर्षस्थ संस्कृतिकर्मी भी हैं; और अपनी इन तमाम भूमिकाओं में वे असामान्य रूप से विवादास्पद रहे हैं, उनके अधिकांश साक्षात्कार विवादपरक (पॉलिमिकल) हो जाते रहे हैं; उनमें से ज्यादातर उनके विवादास्पद संस्कृति-कर्म को सम्बोधित हैं। इस वजह से इन साक्षात्कारों में एक कवि के रूप में उनकी महत्त्वपूर्ण भूमिका प्रायः अलक्षित रही है। पूनम अरोड़ा की यह पुस्तक इस कमी को बहुत अच्छी तरह पूरा करती है। पूनम द्वारा लिये गये इस साक्षात्कार में हम अशोक वाजपेयी को और उनके साथ-साथ स्वयं को, उनके लेखकीय अन्तरंग में, उनके कवि- आलोचक-मानस की गहराइयों और तहों में झाँकता हुआ पाते हैं। आज जिसे हम अशोक वाजपेयी नामक अत्यन्त संश्लिष्ट संघटना के रूप में जानते हैं, यह पुस्तक हमें उस संघटना की बुनियादों, उसकी निर्मिति की प्रक्रिया, अपने व्यापक परिवेश के साथ हुई उसकी टकराहटों और अन्तर्क्रियाओं से परिचित कराती है। इसमें हम अशोकजी के जीवन और लेखन के शुरुआती दौर के विभिन्न अनुभवों, अध्ययनों, मित्रों के बारे में, बचपन की स्मृतियों, उनकी आरम्भिक रचनाशीलता, उनकी विशिष्ट कविताओं, उनके प्रिय लेखकों, उनके प्रिय रंगों, प्रिय भोजन, प्रथम गहन स्पर्श, स्वप्नों, अनकहे दुःखों और पछतावों, देश और दुनिया के विभिन्न शहरों और लोगों के साथ उनके सम्बन्धों, उनके प्रेम, उनके भयों और क्रोध के विषयों जैसी अन्तहीन चीजों के बारे में जानते हैं। लेकिन यह अन्तरंग आत्मकथात्मकता भर इस साक्षात्कार की विशेषता नहीं है, बल्कि इसके साथ इसमें हम अशोकजी के व्यापक पैमाने के सरोकारों, और अन्तहीन साहित्यिक, सांस्कृतिक, राजनीतिक, सामाजिक मसलों पर उनके विचारों से भी परिचय प्राप्त करते हैं, जिनमें वर्ण, लिंग, जाति, धर्म आदि के साथ समकालीन कविता का सम्बन्ध, जाति-प्रथा, दलित-विमर्श, स्त्री-विमर्श, हिन्दी आलोचना, पुनर्पाठ, हिन्दी समाज में कविता की जगह, अमूर्तन, यथार्थ और स्मृति, कल्पना और यथार्थ, धार्मिक आस्था और सामाजिक संस्कार, प्रारब्ध और नियति, साहित्य और सामाजिक परिवर्तन, सामाजिक दायित्व और कवि-कर्म, राजनीतिक नैतिकता, हिन्दुत्व, मांसाहार-शाकाहार, रजा फ़ाउण्डेशन, लोकतान्त्रिक प्रश्नवाचकता, मीडिया, सोशल मीडिया, कोरोना महामारी, मृत्यु, ईश्वर, उम्मीद, पुरुष रचनाकार और सामाजिक न्याय, काव्य-भाषा, काव्य-सत्य, भविष्य की कविता, कविता में निजी क्षण, अनुवाद, सार्वजनिक कवितापाठ, सम्प्रेषण, प्रकाशन व्यवसाय, निजी और सामाजिक का द्वैत, विचारधारा, कलावाद, नृकेन्द्रिकता, इरॉस, यौनिकता, मैत्री, संवेदनशील मुद्दे, आत्मकथा, कवि बनाम मनुष्य, धर्म बनाम आध्यात्मिकता, रहस्यवाद, आत्मसंघर्ष, आत्मशुद्धि, अतीत की पुनर्रचना आदि शामिल हैं। कहने की आवश्यकता नहीं कि इस अन्तरंग और व्यापक विमर्श को प्रकाश में लाने में मुख्यतः पूनम अरोड़ा की गम्भीर, विवेकपूर्ण और सधी हुई प्रश्नाकुलता का केन्द्रीय योगदान है। यह पूनम के प्रश्नों की वेधकता है जो इस अन्तरंग को बहिरंग में लाती है। अशोक वाजपेयी की कविताओं, उनकी आलोचना, संस्कृति-चिन्तन और सांस्कृतिक एक्टिविज्म के माध्यम से उनकी जो एक अत्यन्त परिचित छवि हमारे मन में बनी है, यह साक्षात्कार उस छवि की परिरेखाओं को और अधिक तीखा और स्पष्ट करता है, और उसमें कई बार एक ‘अप्रत्याशित अशोक वाजपेयी’ की छवि कौंध जाती है।

    – मदन सोनी


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  • Sanskriti By Alok Tandon

    संस्कृति’ – आलोक टण्डन

    आलोक टण्डन की ‘संस्कृति’, ‘सेतु शब्द श्रृंखला’ की पहली किताब है। इस श्रृंखला में इतिहास, दर्शन, आलोचना सम्बन्धी तकनीकी और पारिभाषिक शब्दों पर पुस्तकों के निर्माण की योजना है। ऐसी पुस्तकें किसी भी भाषा को अकादमिक और बौद्धिक जरूरतों का अनिवार्य हिस्सा होती हैं। आशा है इस पुस्तक और इस श्रृंखला का हिन्दी में स्वागत होगा।

    स्वतन्त्र शोधकर्ता। तीन विषयों में परास्नातक और दर्शनशास्त्र में पो एच.डी.। प्रोजेक्ट’ धर्म और हिंसा’ के लिए आई.सी.एस.एस.आर. जनरल फेलोशिप और आई.सी.पी. आर. रेजिडेण्ट तथा प्रोजेक्ट फेलोशिप प्राप्त। शताधिक सेमिनारों/सम्मेलनों में भागीदारी और पचास से अधिक शोधपत्र प्रकाशित। दर्शनशास्त्र के क्षेत्र में योगदान के लिए अखिल भारतीय दर्शन परिषद् द्वारा ‘नागर पुरस्कार’ से सम्मानित। ‘लिविंग टुगेदर रिथिकिग आइडेण्टिटी एण्ड डिफरेंस इन मॉडर्न कांटेक्स्ट’ को इण्डियन फिलोसोफिकल काँग्रेस 2023 द्वारा सर्वश्रेष्ठ पुस्तक के लिए ‘प्रणवानन्द पुरस्कार’। लेखक की अन्य पुस्तकें ‘मैन एण्ड हिज डेस्टिनी’ (अँग्रेजी में) और शेष तीन हिन्दी में हैं- ‘विकल्प और विमर्श’, ‘समय से संवाद’ एवं अस्मिता और अन्यता’।


     

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  • NAYE GHAR ME AMMA (Story) by Yogita Yadav

    नये घर में अम्मा – योगिता यादव


    चारों तरफ अँधेरा है-जीवन में भी। ऐसे समय में जब हर तरफ निराशा, गाली-गलौच और खून-खच्चर फैला हो, आशा जगाने वाली कहानियाँ महत्त्वपूर्ण हो जाती हैं। यह संग्रह इस घुटन भरे माहौल में भरोसा दिलाता है कि कहीं कुछ जीने लायक बचा हुआ है।
    अम्मा बूढ़ी हो चुकी हैं। खेत-खलिहान, अड़ोस-पड़ोस, सभी की नजर उनकी वृद्ध जर्जर काया पर है। एकमात्र सहारा पति भी दिवंगत हो चुके हैं। ऐसे अँधेरे में भी उजाले ढूँढ़कर लाना, आत्मविश्वास की डगमगाती काया का सहारा, आँखों में रोशनी भरना योगिता यादव जैसी एक कुशल कहानीकार का ही कमाल है। अमूमन चारों तरफ जहाँ दुख ही दुख झरते हैं, वहाँ सुख की हठात् चमक जैसे रात में बिजली काँध गयी हो, जैसे जीवन और जगत् में अब भी बहुत कुछ जीने लायक बचा हुआ है। ऐसी कहानी है’ नये घर में अम्मा’।
    ग्राम्य जीवन की यह कथा आम ग्राम प्रधान और आम महिलाओं से भिन्न है। इस मायने में वह ग्राम प्रधान आमतौर पर है तो अन्य महिला ग्राम प्रधानों की तरह ही, लेकिन शिक्षित और विवेक सम्पन्न होने के नाते अपने कर्तव्य का निर्वाह करती है। और सर्वथा उपेक्षिता बूढ़ी अम्मा को घर, वृद्धावस्था पेंशन और जीवन निर्वाह के अन्य साधन मुहैया कराती है। छल-कपट और अँधेरों, निराशाओं के बीच आशा और सम्बल की ज्योति जगाने वाली यह विरल कहानी है। मानवीय गरिमा से निष्पन्न कहानियों के इस संग्रह में तस्कीन साम्प्रदायिक माहौल में भरोसा बचाये रखती है। साम्प्रदायिकता किस तरह हमारे घर के अभ्यन्तर तक घुसपैठ कर चुकी है, हमारी रगों में, हमारे शैक्षिक संस्थानों और बच्चों तक में नफरत और विभाजन का जहर बोती जा रही है। ऐसे में एक सहृदय विवेक सम्मत श्रीमती वर्मा सब कुछ सँभालने में परेशान हुई जा रही हैं। घर से बाहर तक फैले इस अँधेरे से जूझती महिला की अनोखी कहानी है ‘तस्कीन’। किंचित् लम्बी। सम्भवतः विषय के लिहाज से लम्बा होना लाजमी है।
    प्रारम्भ में अपने प्रतीक और व्यंजना की व्याप्ति में, जबकि सारा स्टाफ, उस अकेली मुस्लिम बालिका तस्कीन को छोड़कर जा चुका है, वह उसकी रक्षा में खड़ी होती है। इस तरह यह एक बेहतरीन कहानी है। कहानी के प्रारम्भ में आया हुआ गड़ासा लेखिका के प्रतिभा कौशल का दिग्दर्शन है।
    इस संग्रह में कुल आठ कहानियाँ हैं और प्रायः कहानियाँ औपन्यासिक विस्तार में पगी हुई हैं। योगिता के इस तीसरे कहानी संग्रह ‘नये घर में अम्मा’ का स्वागत किया जाना चाहिए।

    – संजीव (वरिष्ठ कथाकार)

    170.00200.00
  • Yayavari (Short Stories) By Yugal Joshi

    यायावरी – युगल जोशी


    युगल जोशी ऐसे कहानीकार हैं जिनका अनुभव-फलक बड़ा है और जिनके यहाँ कथा-विन्यास का भरपूर वैविध्य मिलता है। अठारह कहानियों का उनका यह संग्रह यायावरी इसका साक्ष्य है।
    इन कहानियों में जहाँ पहाड़ का एकाकी और कठिन जीवन है, वहीं गाँव-कस्बे और शहर में टूटते-बिगड़ते रिश्तों का तनाव भी। किसी कहानी में एक विधवा के जीवन संघर्ष का चित्रण है जो अपने पति के शहीद होने के बाद, सबकी नजरों से दूर, पहाड़ पर एकाकी जी रही है तो किसी कहानी में एक शातिर अधिकारी द्वारा भ्रष्टाचार के नए स्वरूप अपनाकर अपने को ईमानदार दिखाने की दास्तान है, कोई कहानी एक समलैंगिक डॉक्टर की विडम्बना पर केन्द्रित है जो पारिवारिक दबाव में मजबूरन विवाह तो कर लेता है लेकिन अपनी यौन अस्मिता का इजहार नहीं कर पाता है।
    इसी तरह संग्रह की अन्य कहानियाँ भी किसी न किसी प्रगाढ़ जीवनानुभव को केन्द्र में रखकर बुनी गयी हैं, कहीं-कहीं आंचलिक परिवेश अपनी मोहकता के साथ मौजूद है। कुल मिलाकर इस संग्रह की कहानियाँ एक बड़े अनुभव फलक का एहसास कराती हैं। युगल जोशी के पास जहाँ अनुभव की समृद्धि है वहीं भाषा की भी। इसलिए स्वाभाविक ही उनकी कहानियाँ पाठक को बरबस बाँधे रखती हैं।

    180.00200.00
  • Strigatha By Prem Ranjan Animesh

    स्त्रीगाथा (उपन्यास) – प्रेम रंजन अनिमेष

    उनकी नयी कृति स्त्रीगाथा, दो हिस्सों में विभाजित, यह उपन्यास, जैसा कि नाम से जाहिर है, स्त्री की व्यथा-कथा और उसके आत्म-सम्मान तथा स्वतन्त्र अस्मिता के उसके संघर्ष की एक दास्तान कहता है, यों तो ऐसी रचनाओं की कमी नहीं, जो स्त्री की वेदना से बुनी हुई हैं, उसकी पीड़ा और उसके संघर्ष को शब्द देती हैं, स्त्री की पक्षधरता में मुखर हैं और इस तरह स्त्री विमर्श का एक आख्यान रचती हैं।
    प्रेम रंजन अनिमेष का यह उपन्यास स्त्री विमर्श का पात्र होते हुए भी, ऐसी बहुत सी रचनाओं से थोड़ा अलग हटकर, और विशिष्ट है। इसमें रचनाशीलता की कीमत पर विमर्श का मोह नहीं पाला गया है। और यही वजह है कि इस उपन्यास की कथाशीलता कहीं भी क्षतिग्रस्त नहीं होती।
    इसका यह अर्थ नहीं कि इसमें विचार हाशिये पर या नेपथ्य में है। सच यह है कि यह उपन्यास सरोकार को अनुस्यूत करते हुए उसे बल प्रदान करने का एक उत्कृष्ट उदाहरण है

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  • Is Tarah Ek Adhyaya (Poems) By Naval Shukla

    इस तरह एक अध्याय – नवल शुक्ल


    लगभग एक दशक पहले नवल शुक्ल ने अपने पहले कविता संग्रह ‘दसों दिशाओं में’ के द्वारा समकालीन कविता में नथी ताजगी और युवा पारदर्शिता के साथ प्रवेश किया था। तब से अब तक समय के समस्त परिवर्तनों की प्रतिकृतियाँ, अनुगूँजें और वयस्कताएँ उनकी कविता में चुपचाप घटित होती रही हैं।
    नवले बहुत चुपचाप ढंग से, किसी एकान्त भाषिक सक्रियता में, बहुत अधिक उदाहरणों से परहेज करते हुए, चहुत कम शब्दों की कविता के मिजाज के कवि रहे हैं। उनकी कविताएँ भाषा को बहुत किफायत के साथ धारण करने वाले जीवन भर विस्तृत सन्नाटे को अभिव्यक्तियाँ हैं। एक संकटग्रस्त समय में निरनार ‘बहुत कम आदमी’ और ‘बहुत कम नागरिक’ होते जाते मनुष्य की स्मृत्तियों और विस्मरणों के मध्य उसके घर संसार, स्वप्नों-आकांक्षाओं, उल्लास और हताशा से भरी दिनचर्या को नवल की कविताओं की मूल आसक्ति कह सकते हैं। वे बार-बार वहाँ लौटते हैं जहाँ थोड़े से खुले साफ नीले लाकाश और पृथ्वी के छोटे से अँधेरे में ये जगहें अब भी मौजूद हैं, जहाँ असंख्य आधी-अधूरो, मामूली और असमाप्त इच्छाओं का नन्हे नन्हे नक्षत्रों की तरह वास है। यह सम्भवतः हम सभी के सुदूर अतीत या बचपन का कोई दृश्य है अथवा कभी बहुत पहले देखी गयी किसी फिल्म का कोई दृश्य या फिर यय के किसी और जन्म-काल में सुनी गयी किसी कहानी का कोई टुकड़ा।
    एक अध्याय इस तरह एक
    नवल शुक्ल
    नवल की कविताएँ बार-बार जैसे किसी तत्क्षण काव्य- चेष्टा में इच्छाओं की उसी विस्मृत जगह की ओर लौटती हैं और वर्तमान समय की निस्संवेद्य निरपेक्षता का एक मार्मिक’ क्रिटीक’ निर्मित करती हैं।
    नवल परिजन सम्बन्धों को बिरल और विलक्षण रागात्मकता के अपनी तरह के अकेले कवि हैं। पर, माँ, पिता, बेटा, मित्र, सहकर्मी सभी के प्रति एक सघन व्याकुल रागात्मकता कई बार उनकी कविताओं
    को वह पवित्र और अबोध बचपन की हार्दिकता देती है, जो उनकी कविताओं का मूल स्वभाव बनाता है। ‘मैं संसाधन नहीं था’ और ‘मेरा मन छाता है’ के अतिरिक्त भी उनकी कई ऐसी कविताएँ हैं जहाँ उनकी यह रागात्मकता किसी दीये सी जलती हुई, अपनी ही जरा सी रोशनी में काँपती किसी चुपचाप लौ की तरह निसुत हो रही है। उस धुंधली सी रोशनी में ही हम पाते हैं एक कोई पीछे अतीत में छूट गया अपना गाँव, एक घर, जहाँ एक बच्चा खिलौनों और तरह-तरह के फोड़ों के साथ किसी खेल में डूबा हुआ है और स्मृत्ति के उस धूल-धूसरित कमरे में किसी बहुत प्राचीन कहानी के किसी दृश्प में विलीन हो रहा है।
    जाहिर है, नवल की कविताओं को पढ़ते हुए कई बार हम उन जगहों तक स्वयं भी पहुँचते हैं, जहाँ स्वयं हमारे बचपन की कोई खोयी हुई नोटबुक या कोई एलबम मौजूद है। और हम वहाँ स्वयं को पहचानते हैं और अचानक इस खोज से हतप्रभ रह जाते हैं।
    लेकिन एक सब यह भी है कि ये कविताएँ नवल को कविता के बदलाव या संक्रमण के दौर की कविताएँ हैं। किसी अगली सम्भावना या परिणति की ओर चुपचाप अपनी ही गति और स्वभाव में बढ़ती हुई।

    – उदय प्रकाश


    162.00190.00
  • Pavitra Paap By Sushobhit (PaperBack)

    “पवित्र पाप” — सुशोभित 


    “पवित्र पाप” सुशोभित द्वारा लिखित यह किताब स्त्री-पुरुष संबंध के समीकरणों पर एक विचार या यू कह लीजिए कि संवाद है। जिसे सिर्फ पढ़ना नहीं, उसपे अमल भी करना होगा। किताब पढ़ने भर से पता चलता है कि सुशोभित से ज़्यादा तो महिला वर्ग भी अपने को इतना नहीं जानता होगा। जितना उनकी किताब को पढ़ कर एक महिला वर्ग अपने को जानेगी।

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  • SHUDRON KI KHOJ ARTHAT SHUDRA KAUN THE? by Bhimrao Ambedkar

    शूद्रों की खोज अर्थात् शूद्र कौन थे? – भीमराव अम्बेडकर

    हिन्दू धर्म की सामाजिक संरचना में चातुर्वर्ण्य व्यवस्था की प्रभावकारी भूमिका रही है। इन वर्षों में शूद्रों की स्थिति सबसे निम्न थी और विभिन्न प्रकार के प्रतिबन्धों के कारण उनका विकास बाधित रहा। शूद्रों के सम्बन्ध में आवश्यक अध्ययन के अभाव में उनकी समस्याओं और उनके निराकरण पर गम्भीरता से विचार नहीं किया गया। इसी को ध्यान में रखते हुए डॉ. भीमराव अम्बेडकर ने गहन अध्ययन के पश्चात इस पुस्तक ‘शूद्रों की खोज अर्थात् शूद्र कौन थे?’ की रचना की। यह पुस्तक शूद्रों की उत्पत्ति के पौराणिक सिद्धान्तों का विश्लेषण करने के अलावा विभिन्न वर्षों के साथ शूद्रों की स्थिति का मूल्यांकन भी करती है और विद्यमान अव्यवस्था के कारणों को समझने का प्रयास भी। इस पुस्तक के माध्यम से अम्बेडकर ने यह स्थापित करने का प्रयास किया है कि प्रारम्भ में शूद्र भी आर्यों के तीन वर्षों में शामिल थे लेकिन ब्राह्मणवादी मानसिकता के कुचक्र के कारण उनकी स्थिति निम्न हो गयी और ये क्षत्रिय वर्ण से अलग होकर एक नये वर्ण ‘शूद्र’ के रूप में समाज में अस्तित्व में आए। यह पुस्तक मूलतः समाज को इतिहास के आईने से देखने का प्रयास है जिसमें समावेशी और समता आधारित समाज के निर्माण की सम्भावनाओं के बीज विद्यमान हैं।


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