परख
अशोक वाजपेयी से बातचीत – पूनम अरोड़ा
अशोक वाजपेयी के बहुत-से साक्षात्कार लिये गये हैं, जिनकी एक पूरी पुस्तक भी प्रकाशित हो चुकी है। चूंकि अशोक वाजपेयी उत्कृष्ट कवि-आलोचक होने के साथ- साथ हिन्दुस्तान के शीर्षस्थ संस्कृतिकर्मी भी हैं; और अपनी इन तमाम भूमिकाओं में वे असामान्य रूप से विवादास्पद रहे हैं, उनके अधिकांश साक्षात्कार विवादपरक (पॉलिमिकल) हो जाते रहे हैं; उनमें से ज्यादातर उनके विवादास्पद संस्कृति-कर्म को सम्बोधित हैं। इस वजह से इन साक्षात्कारों में एक कवि के रूप में उनकी महत्त्वपूर्ण भूमिका प्रायः अलक्षित रही है। पूनम अरोड़ा की यह पुस्तक इस कमी को बहुत अच्छी तरह पूरा करती है। पूनम द्वारा लिये गये इस साक्षात्कार में हम अशोक वाजपेयी को और उनके साथ-साथ स्वयं को, उनके लेखकीय अन्तरंग में, उनके कवि- आलोचक-मानस की गहराइयों और तहों में झाँकता हुआ पाते हैं। आज जिसे हम अशोक वाजपेयी नामक अत्यन्त संश्लिष्ट संघटना के रूप में जानते हैं, यह पुस्तक हमें उस संघटना की बुनियादों, उसकी निर्मिति की प्रक्रिया, अपने व्यापक परिवेश के साथ हुई उसकी टकराहटों और अन्तर्क्रियाओं से परिचित कराती है। इसमें हम अशोकजी के जीवन और लेखन के शुरुआती दौर के विभिन्न अनुभवों, अध्ययनों, मित्रों के बारे में, बचपन की स्मृतियों, उनकी आरम्भिक रचनाशीलता, उनकी विशिष्ट कविताओं, उनके प्रिय लेखकों, उनके प्रिय रंगों, प्रिय भोजन, प्रथम गहन स्पर्श, स्वप्नों, अनकहे दुःखों और पछतावों, देश और दुनिया के विभिन्न शहरों और लोगों के साथ उनके सम्बन्धों, उनके प्रेम, उनके भयों और क्रोध के विषयों जैसी अन्तहीन चीजों के बारे में जानते हैं। लेकिन यह अन्तरंग आत्मकथात्मकता भर इस साक्षात्कार की विशेषता नहीं है, बल्कि इसके साथ इसमें हम अशोकजी के व्यापक पैमाने के सरोकारों, और अन्तहीन साहित्यिक, सांस्कृतिक, राजनीतिक, सामाजिक मसलों पर उनके विचारों से भी परिचय प्राप्त करते हैं, जिनमें वर्ण, लिंग, जाति, धर्म आदि के साथ समकालीन कविता का सम्बन्ध, जाति-प्रथा, दलित-विमर्श, स्त्री-विमर्श, हिन्दी आलोचना, पुनर्पाठ, हिन्दी समाज में कविता की जगह, अमूर्तन, यथार्थ और स्मृति, कल्पना और यथार्थ, धार्मिक आस्था और सामाजिक संस्कार, प्रारब्ध और नियति, साहित्य और सामाजिक परिवर्तन, सामाजिक दायित्व और कवि-कर्म, राजनीतिक नैतिकता, हिन्दुत्व, मांसाहार-शाकाहार, रजा फ़ाउण्डेशन, लोकतान्त्रिक प्रश्नवाचकता, मीडिया, सोशल मीडिया, कोरोना महामारी, मृत्यु, ईश्वर, उम्मीद, पुरुष रचनाकार और सामाजिक न्याय, काव्य-भाषा, काव्य-सत्य, भविष्य की कविता, कविता में निजी क्षण, अनुवाद, सार्वजनिक कवितापाठ, सम्प्रेषण, प्रकाशन व्यवसाय, निजी और सामाजिक का द्वैत, विचारधारा, कलावाद, नृकेन्द्रिकता, इरॉस, यौनिकता, मैत्री, संवेदनशील मुद्दे, आत्मकथा, कवि बनाम मनुष्य, धर्म बनाम आध्यात्मिकता, रहस्यवाद, आत्मसंघर्ष, आत्मशुद्धि, अतीत की पुनर्रचना आदि शामिल हैं। कहने की आवश्यकता नहीं कि इस अन्तरंग और व्यापक विमर्श को प्रकाश में लाने में मुख्यतः पूनम अरोड़ा की गम्भीर, विवेकपूर्ण और सधी हुई प्रश्नाकुलता का केन्द्रीय योगदान है। यह पूनम के प्रश्नों की वेधकता है जो इस अन्तरंग को बहिरंग में लाती है। अशोक वाजपेयी की कविताओं, उनकी आलोचना, संस्कृति-चिन्तन और सांस्कृतिक एक्टिविज्म के माध्यम से उनकी जो एक अत्यन्त परिचित छवि हमारे मन में बनी है, यह साक्षात्कार उस छवि की परिरेखाओं को और अधिक तीखा और स्पष्ट करता है, और उसमें कई बार एक ‘अप्रत्याशित अशोक वाजपेयी’ की छवि कौंध जाती है।
– मदन सोनी
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kanchan yadav
पितृसत्ता, यौनिकता और समलैंगिकता – एक जरूरी विमर्श
सुजाता की यह पुस्तक पितृसत्ता, यौनिकता और समलैंगिकता के जटिल सवालों को गहराई से समझने की कोशिश करती है। लेखिका तर्क देती हैं कि समानता और समावेशिता की राह में सबसे बड़ा अवरोध अतिवादी विचारधाराएँ हैं, जो समाज में भेदभाव को मजबूत करती हैं।
यह किताब न सिर्फ लिंगभेद और यौनिक पहचान को लेकर बने सामाजिक पूर्वाग्रहों को तोड़ती है, बल्कि यह भी रेखांकित करती है कि हर व्यक्ति को अपनी पहचान और प्रेम के चयन में स्वतंत्रता मिलनी चाहिए। लेखिका मातृसत्ता के मिथक और स्त्रीवाद के बुनियादी सवालों को सरल भाषा में समझाने का प्रयास करती हैं।
prashant panwar
सुजाता की यह पुस्तक पितृसत्ता, यौनिकता और समलैंगिकता से जुड़े जटिल मुद्दों पर गहन विमर्श प्रस्तुत करती है। लेखिका तर्क देती हैं कि विविधताओं को स्वीकारने की बजाय, समाज ने इन्हें असमंजस और भय का विषय बना दिया है।
Anushka singh
किताब शुरू से ही अपने साथ जुड़े रहने पर मजबूर कर देती है, एक अच्छी किताब.