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  • Andolanjivi By Vinod Agnihotri

    आंदोलंजीवी – विनोद अग्निहोत्री

    विनोद अग्निहोत्री जी को मैं पिछले चार दशकों से जानता हूँ। वे एक गम्भीर और संवेदनशील पत्रकार हैं। उन्होंने देश के सामाजिक बदलावों और जन-आन्दोलनों का सूक्ष्म अध्ययन किया है और उनके बारे में लगातार लिखा है। किसी भी लोकतन्त्र की सुदृढ़ता और गतिशीलता के लिए सामाजिक सरोकारों के मुद्दों पर आम जनता की भागीदारी तथा एकजुट होकर संवैधानिक तरीके से अपनी माँगें उठाते रहना जरूरी होता है। यह पुस्तक इन प्रक्रियाओं का एक महत्त्वपूर्ण दस्तावेज है जो सत्ता प्रतिष्ठानों के लिए आईना और युवा पीढ़ी में अन्याय के खिलाफ चुप्पी तोड़कर सत्य और न्याय के लिए अहिंसात्मक तरीके अपनाने की प्रेरणा देगा।

    – कैलाश सत्यार्थी नोबेल पुरस्कार विजेता
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  • Shriramakrishna Paramhansa Edited By Awadhesh Pradhan

    श्रीरामकृष्ण परमहंस संपादक अवधेश प्रधान

    “कछुआ रहता तो पानी में है, पर उसका मन रहता है किनारे पर जहाँ उसके अण्डे रखे हैं। संसार का काम करो, पर मन रखो ईश्वर में।”

    “बिना भगवद्-भक्ति पाये यदि संसार में रहोगे तो दिनोदिन उलझनों में फँसते जाओगे और यहाँ तक फँस जाओगे कि फिर पिण्ड छुड़ाना कठिन होगा। रोग, शोक, तापादि से अधीर हो जाओगे। विषय-चिन्तन जितना ही करोगे, आसक्ति भी उतनी ही अधिक बढ़ेगी।”
    “संसार जल है और मन मानो दूध । यदि पानी में डाल दोगे तो दूध पानी में मिल जाएगा, पर उसी दूध का निर्जन में मक्खन बनाकर यदि पानी में छोड़ोगे तो मक्खन पानी में उतराता रहेगा। इस प्रकार निर्जन में साधना द्वारा ज्ञान-भक्ति प्राप्त करके यदि संसार में रहोगे भी तो संसार से निर्लिप्त रहोगे।”
    – इसी पुस्तक से
    298.00350.00
  • Bhartiya Chintan Ki Bahujan Parampra By Om Prakash Kashyap

    सत्ता चाहे किसी भी प्रकार की और कितनी ही महाबली क्यों न हो, मनुष्य की प्रश्नाकुलता से घबराती है। इसलिए वह उसको अवरुद्ध करने के लिए तरह-तरह के टोटके करती रहती है। वैचारिकता के ठहराव या खालीपन को भरने के लिए कर्मकाण्डों का सहारा लेती है। उन्हें धर्म का पर्याय बताकर उसका स्थूलीकरण करती है। कहा जा सकता है कि धर्म की आवश्यकता जनसामान्य को पड़ती है। उन लोगों को पड़ती है, जिनकी जिज्ञासाएँ या तो मर जाती हैं अथवा किसी कारणवश वह उनपर ध्यान नहीं दे पाता है। यही बात उसके जीवन में धर्म को अपरिहार्य बनाती है। दूसरे शब्दों में धर्म मनुष्य की मूलभूत आवश्यकता न होकर, परिस्थितिगत आवश्यकता है। जनसाधारण अपने बौद्धिक आलस्य तथा जीवन की अन्यान्य उलझनों में घिरा होने के कारण धार्मिक बनता है। न कि धर्म को अपने लिए अपरिहार्य मानकर उसे अपनाता है। फिर भी मामला यहीं तक सीमित रहे तो कोई समस्या न हो। समस्या तब पैदा होती है जब वह खुद को कथित ईश्वर का बिचौलिया बताने वाले पुरोहित को ही सब कुछ मानकर उसके वाग्जाल में फँस जाता है। अपने सभी फैसले उसे सौंपकर उसका बौद्धिक गुलाम बन जाता है।

    – इसी पुस्तक से

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    552.00649.00
  • Lokayan Ki Samajikta By Dhananjay Singh

    लोकायन में लोक साहित्य की लोकगाथा, लोकगीत, लोक कथा, लोक कहावतें, किस्से, लोकबुझौवल (पहेलियाँ), लोक बालगीत एवं लोक बालखेल, मिथक इत्यादि तो हैं ही। इसके साथ इसमें लोक की वो सब प्रथाएँ, अनुष्ठान एवं लोक सांस्कृतिक व्यवहार एवं परम्पराएँ शामिल हैं, जिनसे लोकायन बनता है। बहुधा वह अपनी जैविकता के साथ समग्रता में प्रस्तुत होता है। कई बार लोकायन वैज्ञानिक और ऐतिहासिक सत्यों पर आधारित न होकर सामूहिक आस्था और विश्वास की गतिकी में चलता है अर्थात् इसका एक भाग सामाजिक संरचना को आधार देता है, दूसरा भाग आस्थाओं और विश्वासों को। यह सामाजिक श्रुति के रूप में जीवित रहता है। इसमें भी दिक्, काल और कार्यकारण सम्बन्ध की अवधारणाएँ अन्तर्निहित होती हैं। इसमें तथ्यों और सूचनाओं का विशाल संग्रह होता है, जिसकी स्मृति एक के बाद अनेक पीढ़ियों और कई कालखण्डों तक जीवित रहती है। यह जातीय स्मृति ही परम्पराओं का मूल स्रोत है।

    -प्राक्कथन से

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    276.00325.00
  • Ambedkar Dalit Aur Stri Prashan By Ram Puniyani And Ravikant

    आंबेडकर दलित और स्त्री प्रश्न – राम पुनियानी और रविकांत

    साम्प्रदायिकता वह राजनीति है जो धर्म के नाम पर चलायी जाती है। दूसरे शब्दों में, साम्प्रदायिकता, धार्मिक पहचान के आधार पर राजनीतिक समर्थन जुटाती है। यद्यपि ऊपर से देखने से ऐसा लगता है कि यह धर्म आधारित राष्ट्रवादी संघर्ष है तथापि यथार्थ में साम्प्रदायिकता वह राजनीति है जो प्रजातन्त्र का गला घोंटती है, जन्म आधारित जाति व्यवस्था और लिंग भेद को समाज पर लादती है और सामाजिक बदलाव की प्रक्रिया में रोड़े अटकाती है। यह वह राजनीति है, जो स्वतन्त्रता, समानता और बन्धुत्व के मूल्यों को नकारती है। वो बात तो सामाजिक सद्भाव की करती है परन्तु अल्पसंख्यकों पर खुलकर निशाना साधती है।

    361.00425.00
  • Gyan Ki Rajneeti – Manindra Nath Thakur (Paperback)

    Gyan Ki Rajneeti – Manindra Nath Thakur
    ज्ञान की राजनीति – मणीन्द्र नाथ ठाकुर

    “यह पुस्तक एक तरह से बहुआयामी संवाद के लिए आग्रह है। दर्शनों के बीच संवाद, दार्शनिकों और आम लोगों के बीच संवाद, लोक परम्परा और शास्त्रीय परम्परा के बीच संवाद, पश्चिम और पूरब के बीच संवाद, संस्कृतियों के बीच संवाद, अलग-अलग धर्मों के बीच संवाद और बुद्धिजीवियों और आम जन के बीच संवाद के लिए आग्रह है।

    298.00350.00
  • Gyan Ki Rajneeti – Manindra Nath Thakur

    Gyan Ki Rajneeti – Manindra Nath Thakur
    ज्ञान की राजनीति – मणीन्द्र नाथ ठाकुर

    “यह पुस्तक एक तरह से बहुआयामी संवाद के लिए आग्रह है। दर्शनों के बीच संवाद, दार्शनिकों और आम लोगों के बीच संवाद, लोक परम्परा और शास्त्रीय परम्परा के बीच संवाद, पश्चिम और पूरब के बीच संवाद, संस्कृतियों के बीच संवाद, अलग-अलग धर्मों के बीच संवाद और बुद्धिजीवियों और आम जन के बीच संवाद के लिए आग्रह है।

    680.00850.00
  • Jansankhya Ka Mithak By S.Y. Quraishi (Paperback)

    Jansankhya Ka Mithak By S.Y. Quraishi

    प्रस्तुत पुस्तक एस.वाई. कुरैशी की चर्चित किताब The Population Myth का हिंदी अनुवाद है। जनसंख्या राजनीति के अधिकारी विद्वान एस.वाई. कुरैशी की किताब जनसंख्या का मिथक जनसंख्या के आँकड़ों को तोड़-मरोड़कर पेश करने की दक्षिणपन्थी चालबाजी का पर्दा फाश करती है; इस कुचक्र के चलते ही बहुसंख्यकों में जनसांख्यिकी संरचना और स्वरूप को लेकर शक और भय पैदा होते हैं। लेखक ने तथ्यों और आँकड़ों के ज़रिये यह दर्शाया है कि इस तरह की शंका और डर बेबुनियाद हैं और नियोजित जनसंख्या नीति सभी समुदायों के हित में हैं।

    339.00399.00
  • Jansankhya Ka Mithak By S.Y. Quraishi (Hardcover)

    Jansankhya Ka Mithak By S.Y. Quraishi (Hardcover)

    प्रस्तुत पुस्तक एस.वाई. कुरैशी की चर्चित किताब `The Population Myth` का हिंदी अनुवाद है। जनसंख्या राजनीति के अधिकारी विद्वान एस.वाई. कुरैशी की किताब `जनसंख्या का मिथक` जनसंख्या के आँकड़ों को तोड़-मरोड़कर पेश करने की दक्षिणपन्थी चालबाजी का पर्दा फाश करती है; इस कुचक्र के चलते ही बहुसंख्यकों में जनसांख्यिकी संरचना और

    740.00925.00
  • Qaul-E-Faisal – Maulana Abul Kalam Azad (Paperback)

    Qaul-E-Faisal – Maulana Abul Kalam Azad, Translation Mohammad Naushad

    क़ौल -ए- फ़ैसल -मौलाना अबुल कलाम आज़ाद

    स्वतंत्रता आन्दोलन के दौरान मौलाना आज़ाद के ऊपर 1920 में राजद्रोह का मुक़दमा चलाया गया था, जिसके जवाब में उन्होंने कोर्ट में तहरीरी बयान दिया था, जो उर्दू भाषा में क़ौल-ए-फ़ैसल नाम से प्रकाशित हुआ। आज के समय में देशद्रोह, राष्ट्रवाद जैसे बेहद ज्वलंत मुद्दों के सन्दर्भ में यह बेहद प्रासंगिक है। मौलाना आज़ाद की इस क़ौल-ए-फ़ैसल के माध्यम से न केवल राजद्रोह क़ानून को ऐतिहासिक नज़रिए से समझा जा सकता है बल्कि मौजूदा दौर की राजद्रोह क़ानूनी की जटिलताओं को भी समझने में पाठकों के लिए यह किताब एक महत्त्वपूर्ण साबित होगी।

    260.00325.00
  • Qaul-E-Faisal – Maulana Abul Kalam Azad

    Qaul-E-Faisal – Maulana Abul Kalam Azad, Translation Mohammad Naushad

    क़ौल -ए- फ़ैसल -मौलाना अबुल कलाम आज़ाद

    स्वतंत्रता आन्दोलन के दौरान मौलाना आज़ाद के ऊपर 1920 में राजद्रोह का मुक़दमा चलाया गया था, जिसके जवाब में उन्होंने कोर्ट में तहरीरी बयान दिया था, जो उर्दू भाषा में क़ौल-ए-फ़ैसल नाम से प्रकाशित हुआ। आज के समय में देशद्रोह, राष्ट्रवाद जैसे बेहद ज्वलंत मुद्दों के सन्दर्भ में यह बेहद प्रासंगिक है।

    560.00700.00