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  • Dabish Main – Ravindra Verma

    Dabish Main – Ravindra Verma
    दबिश में – रवीन्द्र वर्मा

    दबिश में’ प्रख्यात कथाकार रवीन्द्र वर्मा की कविताओं का पहला संग्रह है। अस्सी पार के कथाकार का यह काव्यारोहण रचनात्मक सिसृक्षा का नया द्वार खोलता है। ये कविताएँ समसामयिक जीवन के घातप्रतिघात से संघर्ष करती रचनात्मक जिजीविषा की अनिवार्य परिणति हैं। रवीन्द्र वर्मा के इस संग्रह की खूबी है कि जहाँ अपने समय के सबसे ज़रूरी सवालों से वे रूबरू हैं वहीं इस समसामयिकता की परिधि से निकल कर दुनिया भर के खूबसूरत दिमागों से निकली अवधारणाओं और बौद्धिक परम्पराओं से भी गुफ़्तगू उन्होंने सम्भव की है। युगबोध और परम्परा के सन्धि-स्थल पर रची-खड़ी ये कविताएँ कवि के सामर्थ्य का पता बताती हैं। परम्परा के भीतर समकालीन होना कवियों के लिए निरन्तर चुनौती रहा है। कवि ने इस चुनौती को स्वीकार किया है। इन कविताओं से गुजरते हुए यह कहा जा सकता है कि यह कवि परम्परा के भीतर समकालीन है। हम इन कविताओं में विषयगत विविधता के साथ तीव्र रचनात्मक आवेग को बिना किसी अतिरिक्त आवाज़ के सान्द्र और मन्थर करुणाद्र रव में तब्दील होते देख सकते हैं। प्रेम, जीवन और मृत्यु जैसे शाश्वत विषयों पर लिखी कविताओं में विशेष रूप से इस सान्द्रता को देखा जा सकता है। भाषिक सहजता कविता की आन्तरिक लय को प्रवहमानता देती है। निस्सन्देह यह संग्रह रवीन्द्र वर्मा के अनुद्घाटित काव्य व्यक्तित्व को तो सामने लाता ही है, साथ ही हमारी कविता की समकालीन धरती को थोड़ा और उर्वर बनाता है और उसके क्षितिज का थोड़ा और विस्तार करता है।

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  • Ganga Beeti (Gangu Teli Ki Jabani) By Gyanendrapati

    Ganga Beeti (Gangu Teli Ki Jabani)
    गंगा-बीती (गंगू तेली की ज़बानी)

    इक्कीसवीं सदी दहलीज पर थी, जब ज्ञानेन्द्रपति का कविता-संग्रह ‘गंगातट’ शाया हुआ था। तब हिंदी जगत् में उसका व्यापक स्वागत हुआ था और उसे नयी राह खोजने वाली कृति की तरह देखा-पढ़ा गया था। ‘गंगातट’ को किन्हीं ने प्रकृति और सभ्यता के द्वन्द्वस्थल के रूप में चीन्हा था, तो किन्हीं को वहाँ वैश्विक परिदृश्य में हो रहे परिवर्तनों को स्थानिकता की जमीन पर लखने का ईमानदार उद्यम दिखा था जिसमें भूमण्डलीकरण के नाम पर भूमण्डीकरण में जुटे बेलगाम साम्राज्यवादी पूँजीवाद का प्रतिरोध परिलक्षित किया जा सकता था। रचनाकार ने एक साक्षात्कार में तभी कहा था कि ‘गंगातट’ उसके लिए एक असमाप्त रचना-प्रस्ताव है। अपने जनपद से संवेदनात्मक-सर्जनात्मक लगाव के उदाहरण हिंदी कविता में दुर्लभ नहीं, लेकिन ज्ञानेन्द्रपति का-सा जुड़ाव तो बेशक विरल है। सामाजिक-सांस्कृतिक जीवन में प्रवहमान परम्पराओं के जीवन्त तथा अग्रगामी अंशों से संवाद साधते हुए समकालीनता को एक व्यापक कालचेतना से सम्पन्न करते चलने का काम उनके यहाँ सहजता से सम्भव होता है और इसमें उनकी अन्वेषणशील भाषा के समावेशी स्वभाव की खासी भूमिका है। जीवन-छवियों के अंकन के माध्यम से बोलने के कारण उनकी बात का मर्म भावक के चित्त में उसके अपने जीवन-बोध की तरह उपजता चलता है। करीब दो दशक पूरे कर रही इस सदी के वर्ष भारतीय जनजीवन के लिए भी उथल-पुथल-भरे रहे हैं। विज्ञान-जनित उपलब्धियों के बीच सामाजिक जीवन में जर्जरित रूढ़ियाँ हरिया उठी हैं और हिंस्रता के स्फोट ने मानव-मन की सहज करुणा को ग्रस-सा लिया है; स्वार्थान्धता जीवन-विरोधी हो चली है। व्यवस्था के छल ने आम आदमी को आत्मिक रूप से भी असहाय कर दिया है और लुभावने झूठों ने अपनी संरचना परतदार कर ली है। ‘गंगा-बीती’ में एक बार फिर कवि गंगा के जलदर्पण और एक गांगेय नगर के मन-दर्पण में अपने समय के अक्स को खुली आँखों देख रहा है। साक्षीभाव जिस निष्कम्प निर्भीकता की अपेक्षा करता है उस को कबीर की इस नगरी ने ही उसमें प्रगाढ़ किया है। वह किसी के मुकाबिल नहीं, न किसी काबिल है, उसे पता है बखूबी; कोई भोज-भक्त उसे चेताए इसके पहले ही उसे मालूम है कि उसकी औकात गंगू तेली की है, बस, गंगा किनारे का गंगू; यह एहसास ही उसके आत्म-गौरव की जमीन है। ये कविताएँ हर उस की हैं जो युग-सत्य तक संवेदना के रास्ते पहुँचना चाहता है।

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  • Tani Hui Rassi Par by Sanjay Kundan

    Tani Hui Rassi Par by Sanjay Kundan
    तनी हुई रस्सी पर – संजय कुंदन

    संजय कुंदन की कविता वर्तमान में, हमारे चारों तरफ घटित हो रहे विद्रूपों, विपर्ययों और रूपान्तरणों की बाहरी-भीतरी तहों. उनकी छिपी हई परतों में जाती है और एक ऐसा परिदृश्य तामीर करती है जिसमें हम राजनीतिक सत्ता-तन्त्रों, तानाशाह व्यवस्थाओं की क्रूरता, धूर्तता और ज्यादातर मध्यवर्गीय संवेदनहीनताओं को हलचल करते देख सकते हैं। यह ठीक इस समय, इस देश, काल और क्षण की कविता है, जिसके केन्द्र में मनुष्य सबसे अधिक है, एक ऐसा ‘अच्छा-भला’ मनुष्य, जिसकी संवेदना को मनुष्य-विरोधी राजनीति, सामाजिक पाखण्डों और भूमण्डलीय बाज़ार द्वारा लगातार खराब किया जा रहा है, जो अपना अन्तस तानाशाहों के पास गिरवी रखने को विवश है और लोकतन्त्र, स्वाधीनता, मानवीय अच्छाई को नष्ट किये जाते हुए देखने के बावजूद उससे मुठभेड़ करने में असमर्थ है। प्रसिद्ध कवि रघुवीर सहाय ने अपनी कविताओं और गद्य रचनाओं में कई जगह चिन्ता जताते हुए यह सवाल पूछा था कि ‘हम कैसा आदमी बना रहे हैं?’ संजय की कविता हमें यह खबर देती है कि रघुवीर सहाय ने कई वर्ष पहले नैतिक संवेदना से रहित जिस आदमी के बनने की आशंका व्यक्त की थी, वह अब हमारे आधे-अधूरे लोकतन्त्र में पूरी तरह बन चुका है : दुनियावी सफलता के दोज़ख में सन्तुष्ट, आत्म-विहीन, करुणा-रहित, तरह-तरह की दासताओं को समर्पित और अपनी त्रासदी से लगभग बेखबर। मनुष्य के साथ होने वाले हादसों की चीर-फाड़ संजय किसी समाज विश्लेषक की तरह करते हैं और एक बहस भी छेड़ते हैं जो सत्ता और ताक़त और शिकार, वर्चस्व और अधीनता, बाज़ार और उपभोक्ता, सफलता और विफलता जैसे युग्मों-बाइनरी के सहारे शिद्दत अख्तियार करती है और इस सबके बीच उस इंसान की लाचारगी भी बतलाती है जो अपने नैतिक आभ्यन्तर को बचाये हुए है और यह पाता है कि अपनी मर्जी की जगह पर रहना/एक तनी हुई रस्सी पर चलने से कम नहीं है।’ यह तनी हुई रस्सी ही उसका वास्तविक पता है। विडम्बना और व्यंग्य समकालीन कविता में शायद उतने ही कारगर औज़ार बन गये हैं जैसे पिछले ज़मानों की कविता में करुणा और हास्य थे। इन कविताओं में विडम्बना और व्यंग्य के इस्तेमाल की कई विलक्षण ऊँचाइयाँ हैं जो कवि के वक्तव्य में धार और चमक पैदा करती रहती हैं। विरोधाभासों और द्वन्द्वों की अन्विति भी बहुत पहले से अच्छी कविता की सक्रिय प्रविधियाँ हैं। संजय कुंदन की कविता में उनका हुनरमन्द इस्तेमाल एक और विस्तार पैदा करता है। वे अक्सर काले और सफ़ेद को एक-दूसरे के बरक्स रखते और कभी-कभी उनके बीच की धूसर छवियाँ दर्ज करते हुए एक ऐसे संसार को उधेड़ते हैं जो आकर्षक लगता है और विचलित भी करता है। ये कविताएँ हमारे देश और समाज की गिरावट, हमारी मौजूदा जन-विरोधी, हिंसक और फासिस्ट होती राजनीति और उसके शिकार आदमी का खाका तैयार करती हैं और पाठक से इस तरह संवाद करती हैं कि वह कुछ सोचने के लिए तत्पर हो उठे।

    235.00
  • Baki Bache Kuch Log – Anil Karmele

    Baki Bache Kuch Log – Anil Karmele

    अनिल करमेले के इस संग्रह की कविताओं का स्पैक्ट्रम बड़ा है इसलिए इन्हें महज एकरेखीय ढंग से, किसी केंद्रीयता में सीमित करके नहीं देखा जा सकता। कविताओं के विषय, चिंताएँ और सरोकार व्यापक हैं, विविध हैं।

    252.00280.00
  • Bolo Na Darvesh By Smita Sinha

    Bolo Na Darvesh By Smita Sinha (Paperback Edition)

    ‘बोलो न दरवेश’ कवयित्री स्मिता सिन्हा का पहला कविता संग्रह है जिसमें स्त्री अस्मिता के प्रश्नों के साथ समाज प्रकृति, पर्यावरण और प्रेम के विविध रंग उपस्थित हैं।


    Kindle E-Book Also Available
    Available on Amazon Kindle

    135.00150.00
  • Chhaya Ka Samudra By Mahesh Alok

    Chhaya Ka Samudra By Mahesh Alok (Hardcover Edition By Setu Prakashan)

    छाया का समुद्र – महेश आलोक

    270.00300.00
  • Ret Raag -Nand Kishore Acharya

    रेत राग – नंदकिशोर आचार्य
    Ret Raag -Nand Kishore Acharya

    90.00100.00
  • Chhilte Huwe Apne Ko By Nand Kishore Acharya

    Chhilte Huwe Apne Ko By Nand Kishore Acharya
    ‘छीलते हुए अपने को’ – नंदकिशोर आचार्य

    220.00
  • Tasveeron se ja chuke chehre – Aniruddh umat

    Tasveeron se ja chuke chehre – Aniruddh umat
    तस्वीरों से जा चुके चेहरे – अनिरुद्ध उमट

    126.00140.00
  • Chand Akaash Gata Hai – Nand Kishore Acharya

    Chand Akaash Gata Hai – Nand Kishore Acharya
    चाँद आकाश गाता है – नंदकिशोर आचार्य

    150.00
  • Kewal Ek Patti Ne – Nand Kishore Acharya

    Kewal Ek Patti Ne – Nand Kishore Acharya
    ‘केवल एक पट्टी ने’ – नंदकिशोर आचार्य

    160.00
  • Lahar Bhar Samay By Sanjeev Mishr

    Lahar Bhar Samay By Sanjeev Mishr
    लहर भर समय – संजीव मिश्र

    90.00
  • Thodii si Koshish By Vanshi Maheshwari

    Thodii si Koshish By Vanshi Maheshwari

    थोड़ी-सी कोशिश – वंशी माहेश्वरी

    110.00
  • Raakh Ka Kila – Ajanta Dev

    Raakh Ka Kila – Ajanta Dev
    राख का क़िला – अजंता देव

    100.00
  • Koi Lakir Sach Nahi Hoti – Laltoo

    Koi Lakir Sach Nahi Hoti – Laltoo
    कोई लकीर सच नहीं होती – लाल्टू

    170.00200.00
  • Aakash bhatka hua By Nand Kishore Acharya

    Aakash bhatka hua By Nand Kishore Acharya
    आकाश भटका हुआ – नंदकिशोर आचार्य

    153.00170.00
  • Ab Dhara Ke Pass Baith Yadoen Mein Jeena By Madan Pal Singh

    Ab Dhara Ke Pass Baith Yadoen Mein Jeena By Madan Pal Singh
    अब धारा के पास बैठ यादों में जीना – मदन पाल सिंह

    135.00150.00
  • Naha kar Nahi Lota Budhh – Laltu

    Naha kar Nahi Lota Budhh – Laltu
    नहा कर नही लौटा है बुद्ध – लेखक लाल्टू – हरजिंदर सिंह

    160.00
  • Bayazain Kho Gai Hain – Sheen kaaf Nizam

    Bayazain Kho Gai Hain – Sheen kaaf Nizam

    बयाज़ें खो गई हैं – शीन काफ़ निज़ाम

    125.00
  • Prithvi Kee Aanch – Tulsiraman

    Prithvi Kee Aanch – Tulsiraman

    पृथ्वी की आँच -तुलसी रमण

    60.00