Thakuraeen Saradasundari by Kaberi Raychoudhari

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माँ नहीं, आठ वर्ष की शाकम्भरी से सारदासुंदरी में रूपांतरित होने वाली एक सम्पूर्ण नारी की प्राप्ति-अप्राप्ति, उसका जीवनबोध, यौनता बोध, संस्कृति बोध, उसकी पीड़ा, इस उपन्यास के पन्नों पर उभारी गयी हैं।

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    अखिलेश ने इस किताब ‘के विरुद्ध’ में देश के विलक्षण चित्रकार और चिन्तक जगदीश स्वामीनाथन को अपनी तरह से याद किया है। उनके इस याद करने में स्वामीनाथन तो हैं ही, उनके साथ ही अनेक चित्रकार, लेखक आदि ने भी इस किताब में अपनी जगह बनायी है। इन पन्नों में स्वामीनाथन और अन्यों के जीवन्त चित्र तो हैं ही पर साथ ही जगह-जगह अखिलेश ने उनके चित्रों का अपनी तरह से पर्याप्त विश्लेषण भी किया है। आप लक्ष्य करेंगे और स्वयं अखिलेश ने भी इस ओर इशारा किया है कि ‘के विरुद्ध’ को महात्मा गांधी के बीज-ग्रन्थ ‘हिन्द स्वराज’ में अपनायी गयी शैली में लिखा गया है। जब मैं इस स्मृति ग्रन्थ में इस शैली के औचित्य के विषय में सोच रहा था तो मुझे लगा कि सम्भवतः यह शैली इस बात का संकेत है कि जगदीश स्वामीनाथन जैसे जटिल कलाकार और चिन्तक को समझने के लिए अनेक तरह के मार्ग लेना आवश्यक है। उसके बगैर उन्हें किसी भी हद तक समझ पाना और उनकी कला व चिन्तन को अपने समय के लिए उपलब्ध करा पाना मुमकिन नहीं है। स्वामीनाथन को जानने के अनेक रास्ते खोजने होंगे। अखिलेश की खोज उन्हें अगर ‘हिन्द स्वराज’ की शैली तक ले गयी है तो इसमें आश्चर्य की कोई बात नहीं है। वे निश्चय ही स्वामीनाथन जैसे विलक्षण लेकिन जटिल व्यक्तित्व को समझने की ख़ातिर दूसरे रास्तों को छोड़ इस रास्ते पर आए हैं।
    मैं जगदीश स्वामीनाथन को बहुत क़रीब से जानता रहा हूँ। वे जितने अनोखे चित्रकार थे, उतने ही मौलिक चिन्तक भी। वे अपने समय में काफ़ी विवादास्पद भले ही रहे हों, उनके कृतित्व और वैचारिक मौलिकता को सभी सम्मान की दृष्टि से देखते थे। उन्होंने न केवल भारत की चित्रकला परम्परा को गहराई से देखा, बल्कि उस अन्तश्चेतना को अपने समय में आयत्त करने के क्रम में जो चित्र बनाये उन्हें आज भी पूरी उत्सुकता और आवेग के साथ देखा जाता है। स्वामी अकादमिक चिन्तक नहीं थे (वैसे कम-से-कम भारत में अकादमिक और चिन्तक ये दो पद शायद ही किसी व्यक्ति में साथ आए हों), वे तत्त्व-चिन्तक थे। संस्कृतियों और सभ्यताओं के प्रश्नों और समाधानों के मर्म को सहज ही देख पाने की उनमें ऐसी सामर्थ्य थी जो बहुत विरल है। उनके चित्रों और चिन्तन में वह भारत भी स्पन्दित होता था जो हमारे शहरी कला संस्थानों और विश्वविद्यालयों से लुप्त हो चुका है, जिसे समझने और अन्तस्थ करने के लगभग सभी मार्ग अब अवरुद्ध हो चुके हैं। अगर इस संक्षिप्त से सन्दर्भ में ‘के विरुद्ध’ को पढ़ा जाए तो हम कह सकेंगे कि अखिलेश ने यह किताब स्वामीनाथन नामक प्रांजल रहस्य को किसी हद तक बूझने के उपक्रम में लिखी है। स्वामी के जीवन और उनके चित्रों को पूरी निष्ठा से समझने और महसूस करने की आकांक्षा के बिना यह किताब नहीं लिखी जा सकती थी। जगदीश स्वामीनाथन के जीवन, चिन्तन और उनकी कला के प्रति अखिलेश की गहरी निष्ठा ने ही इस किताब में वह उजास लायी है जिसे आप जगह-जगह महसूस करेंगे। अखिलेश ने अन्य चित्रकारों के जीवन और कृतित्व पर भी समय-समय पर लिखा है। चूँकि वे स्वयं एक प्रतिभावान चित्रकार हैं, वे अलग-अलग चित्रकारों के कृतित्व में प्रवेश के नये-नये रास्ते खोजते हैं। वे जिन रास्तों पर चल कर, मसलन, सैयद हैदर रजा के जीवन और उनकी कला में प्रवेश करने का प्रयास करते हैं, जगदीश स्वामीनाथन की कला और उनके जीवन में प्रवेश के लिए वे उन्हीं रास्तों को नहीं अपनाते, उनके स्थान पर वे एक बार फिर नये रास्तों की खोज करते हैं।
    मेरा पक्का विश्वास है कि इस किताब को पढ़ते समय पाठक स्वयं को जगदीश स्वामीनाथन और उनके समकालीन चित्रकारों व लेखकों के निरन्तर सान्निध्य में पाएगा। उसे महसूस होगा मानो वे सारी बहसें या घटनाएँ जो ‘के विरुद्ध’ में दर्ज हैं, उनके आसपास हो रही हों और वह स्वयं उन बहसों और घटनाओं में शामिल हो रहा हो। यह किसी चित्रकार के जीवन और कला पर लिखी गयी एक किताब के लिए कोई छोटी उपलब्धि नहीं है।
    उदयन वाजपेयी

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