Chakravyuh Mein Darvaaza Nahi Hai By Ravindra Verma
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रवीन्द्र वर्मा हमारे समय के हिन्दी के एक प्रमुख कथाकार हैं। उनकी कहानियाँ और उपन्यास नयी कहन शैली और नये आस्वाद के लिए जाने जाते हैं। यह किताब उनके चार लघु उपन्यासों का संकलन है। इन चारों में किसी भी तरह का दोहराव नहीं है, अगर कुछ सामान्य है तो मनुष्य का बढ़ता अकेलापन और चतुर्दिक असहायता की अनुभूति । नियति जैसी लगती इन स्थितियों के पीछे कहीं व्यवस्थागत कारण हैं तो कहीं पीढ़ीगत बदलाव के साथ रिश्तों में आ रही दूरी और तनाव। भ्रष्टाचार और नौकरशाही के शिकंजे में पिसते इंसान की यन्त्रणा और जद्दोजहद को पढ़ते हुए हम पाते हैं कि उसे जहाँ से अन्तिम उम्मीद होती है वहाँ से भी आखिरकार निराशा ही हाथ लगती है। ट्रिब्यूनल और अदालत से न्याय पाने की आस में चक्कर काटते उम्र गुज़र जाती है। आदमी अपने को चक्रव्यूह में घिरा हुआ पाता है, जहाँ से बच निकलने का कोई दरवाज़ा नहीं दीखता। भ्रष्टाचार के ख़िलाफ़ चले अभियान भी एक समय के बाद अपनी दिशा और अर्थवत्ता खोते मालूम पड़ते हैं। राजनीतिक और सामाजिक स्तर पर निरन्तर अनसुना किये जाने की व्यथा और निस्सहायता को रवीन्द्र वर्मा ने जहाँ बड़ी गहराई से चित्रित किया है वहीं निजी रिश्तों की चाहतों और टूटन को भी उन्होंने काफी शिद्दत से उकेरा है। उम्मीद की जानी चाहिए कि उनके चार लघु उपन्यासों की एकत्र इस प्रस्तुति का उत्साहपूर्ण स्वागत होगा।
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Chakravyuh Mein Darvaaza Nahi Hai By Ravindra Verma
Author | Ravindra Verma |
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Binding | Paperback |
Language | Hindi |
ISBN | 978-93-6201-407-8 |
Pages | 254 |
Publication date | 18-09-2024 |
Publisher | Setu Prakashan Samuh |
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छोटू जानता है कि साँप कटाई किये गये ख़ाली खेतों में नहीं आते हैं। वहाँ उनको खाने के लिए क्या मिलेगा ? वे तो पोखर की शीतलता में विश्राम करना पसन्द करते हैं। उसे तो कीड़े-मकोड़ों का भी भय नहीं लगता। वह तो घोर अँधेरे में भी किसी भी चीज़ के हिलने-डुलने का अन्दाज़ा लगा सकता है और फिर करट्टूर पहाड़ी से आते हुए प्रकाश की झिलमिलाहट उसके मन को शान्त करने के लिए पर्याप्त है, वह अनजान जीवों को दूर रखने के लिए काफ़ी है। किसी कारणवश पहाड़ी का दीपक यदि नहीं जलाया जाता है, तो उसे लगता है कि उसके साथ धोखा किया गया है और उसे परित्यक्त कर दिया गया है।
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फकीरा’ उपन्यास अण्णा भाऊ साठे का मास्टरपीस उपन्यास माना जाता है। यह 1959 में प्रकाशित हुआ तथा इसे 1961 में राज्य शासन का सर्वोत्कृष्ट उपन्यास पुरस्कार प्रदान किया गया। इस उपन्यास पर फ़िल्म भी बनी। ‘फकीरा’ एक ऐसे नायक पर केन्द्रित उपन्यास है, जो अपने ग्राम-समाज को भुखमरी से बचाता है, अन्धविश्वास और रूढ़िवाद से मुक्ति का पुरजोर प्रयत्न करता है तथा ब्रिटिश शासन के विरुद्ध विद्रोह करता है। एक दलित जाति के नायक का बहुत खुली मानवीय दृष्टि रखना, ब्रिटिश शासन द्वारा थोपे गये अपराधी जाति के ठप्पे से जुड़ी तमाम यन्त्रणाओं का पुरजोर विरोध करना, अपने आसपास के लोगों को अन्धविश्वास के जाल से निकालने की जद्दोजहद करना तथा बहुत साहस और निर्भयता के साथ अनेक प्रतिमान स्थापित करना ‘फकीरा’ की विशेषता है। उपन्यास का नायक ‘फकीरा’ एक नायक मात्र नहीं है, विषमतामूलक समाज के प्रति असहमति का बुलन्द हस्ताक्षर है।
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शून्य की तौहीन एक ऐसा उपन्यास है जो भारतीय उपमहाद्वीप की सबसे विकट समस्या से हमें रूबरू कराता है। अशअर नज्मी के इस उपन्यास की केन्द्रीय चिन्ता यह है कि व्यक्ति स्वातंत्र्य को कैसे सुनिश्चित किया और अक्षुण्ण रखा जाए, जिस पर नित हमले हो रहे हैं। ऐसे हमलों से उपजा आतंक पूरे उपन्यास में तारी रहता है। यों तो सत्ताधीशों, पुलिस और नौकरशाही तथा धर्मसत्ता और समाज के सामन्ती ढाँचे आदि की तरफ से नागरिक आजादी को कुचलने की कोशिशें बराबर होती रही हैं, लेकिन पिछले कुछ दशकों से यह दमन सबसे ज्यादा धर्म के नाम पर हुआ है। इसका सबसे व्यवस्थित और चरम रूप पाकिस्तान के ईशनिन्दा विरोधी कानून में दीखता है। मज़हबी भावनाएँ उकसाकर बनाये गये
आँगन – खदीजा मस्तूर – हिंदी अनुवाद खुर्शीद आलम
उर्दू के प्रसिद्ध आलोचक उस्लूब अहमद अंसारी इस उपन्यास की गिनती उर्दू के 15
श्रेष्ठ उपन्यासों में करते हैं जबकि शम्सुर्रहमान फ़ारूक़ी का कहना है कि इस नॉवेल
पर अब तक जितनी तवज्जो दी गयी है वो इससे ज्यादा का मुस्तहिक़ है। भारत
विभाजन के विषय पर यह बहुत ही सन्तुलित उपन्यास अपनी मिसाल आप है।
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