आहोपुरुषिका – वागीश शुक्ल
Aahopurushika by Wagish Shukla (Paperback)
‘मेघदूतम्’ को छोड़ दूँ तो पत्नी के वियोग में इतना झंझावाती विषाद, आहोपुरुषिका के अलावा किसी कृति में नहीं देखा। पीड़ा नहीं, विषाद। पीड़ा तो रोजाना का देह व्यापार है, वह भाव नहीं जो मन प्राण को खाली कर दे। कह सकते हैं कि मेघदूतम् में विषाद का मूल तत्त्व काम था। पर वागीश जी ने भी काम को ही प्रणय का मूल उद्गम और विलय बतलाया है। जिस विषाद को इस कृति (झंझावाती खेल) में अभिव्यक्ति मिली है, अमूमन वह तभी हमारे ऊपर सवारी करता है, जब युवा सन्तान, बेटा/बेटी हमारी आँखों के सामने महाप्रयाण कर जाए। उस विषाद में अपराध बोध शामिल रहता है, लाख कोशिश पर अपनी कोई ग़लती याद न आए तब भी। दरअसल, अपराध बोध होता है, अपने जीवित रह जाने का। और उसका कोई प्रतिकार है नहीं।
बुढ़ापे में अकेले छोड़े जाने के विषाद की प्रकृति कुछ अलहदा है। वागीश जी ने अपने विषाद का शब्द सम्बन्ध, संस्कृत और उर्दू-फ़ारसी के अथाह शास्त्रीय भण्डार से जोड़ा है। नतीजतन हम जैसे मूढ़मति भी कुछ हद तक इस शब्द सम्बन्ध का संज्ञान लेने में कामयाब हो गये हैं। बिला अर्थ और विचार तो शब्द बनता नहीं। इसलिए जाने- अनजाने, हमने कुछ अर्थ प्राप्ति भी कर ली है।
तमाम शास्त्रीय निपुणता और गुह्यता के बावजूद, जो जमीनी हाहाकार इस विषाद में जुड़ा है, कभी-कभी वही सर्वाधिक मर्मान्तक प्रतीत होता है। जैसे पति को याद आना, कैसे पत्नी अपने बटुए से दस या पाँच का नोट निकालकर उन्हें पान खाने के लिए देती थीं। यूँ ही पकड़ाती नहीं थीं, अपने हाथ से बाक़ायदा उनके हाथ पर रखती थीं! स्त्री के हाथ के स्पर्श बिना अब वह नोट मात्र कागज का टुकड़ा है, जिस पर लिखा है एक बेमानी अंक । कहना होगा कि बुढ़ापे में पति के देहत्याग पर पत्नियाँ उतनी अकेली और भयातुर नहीं होतीं, जितने पत्नी का त्याज्य एकाकी पति। पत्नी के पास घर होता है। एक बटुआ होता है, जिसके भीतर वह पति को ललक पहुँचाने का साजो-सामान रखती थीं। पति के पास भले एक के बजाय दस के हजार नोट हों, वह पत्नी के रोज़मर्रा के रसपान की सामग्री सहेजकर आसपास नहीं रखता। घर- गृहस्थी के सुख साधन जुटाना और बात है और किसी ख़ास शौक़ की हरपल ख़बर रख, उसे पूरा करने को लालायित रहना, बिल्कुल दूसरी ।
आहोपुरुषिका की विषाद झंझा उसका एक तिहाई हिस्सा है। बाकी दो तिहाई में, विवाह सूक्त का शास्त्र सम्मत और अत्यन्त विद्वत्तापूर्ण विवेचन है। सनातन धर्म में जहाँ वह देवानुप्राणित कौटुम्बिक कर्म है, वहाँ अब्राहमी धर्मों में; ईसाई, मुस्लिम व यहूदी; व्यक्ति विशेष से सम्बन्धित कर्म है, पर मजे की बात यह है कि उसका पूरा अनुष्ठान व चयनित व्यक्ति; चर्च, पादरी व परिवार निर्धारित करते हैं। तमाम शास्त्र सम्मत विवेचना के बावजूद, सनातन विवाह सूक्त में कुछ दिलचस्प और क्रान्तिकारी लगते तथ्य भी हैं। लिखा है, ‘लिव इन’ पद्धति से कोई परहेज नहीं है, बशर्ते वह लोकाचार का हिस्सा बन चुकी हो !
मुझे जो वाक्य विशेष रूप से याद रह गये, वे थे : शब्द के रूप में ब्रह्म सर्वत्र व्याप्त है। जब सृष्टि हो जाती है तो वह प्राणियों की देह के भीतर अर्थ के रूप में विस्तृत हो जाता है। समागम में प्रेक्षण ही है जो काम को सनातन में उसे धर्म और अर्थ के समकक्ष पुरुषार्थ के रूप में स्थापित करता है। कामसूत्र का यह पद; स्त्री को भोग्या होने का अभिमान होता है, पुरुष को भोक्ता होने का। किन्तु अभिमान एक ही है।
शायद इसीलिए परम स्थिति वह है जब पति-पत्नी में अभेद हो।
– मृदुला गर्ग
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