Badle Vakt Ke Mapak Yantra – Hari Mridul

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Badle Vakt Ke Mapak Yantra – Hari Mridul

बदले वक्त के मापक यन्त्र हरि मृदुल का कविता-संग्रह है। इस कविता-संग्रह की कई कविताओं में पहाड़ का अनुभव बोलता है तो कई कविताएँ किसी लोकोक्ति या लोककथा के मर्म से उपजी हैं।

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    प्रस्तुत पुस्तक को छह हिस्सों में बाँटा गया है- प्रस्तुति, विचार, प्रक्रिया, संवाद, दृश्यालेख और कथासूची। यह बँटवारा अध्ययन की सुविधा के लिए तो है ही, साथ ही यह रचनाकार की उस दृष्टि का महत्तम समापवर्तक भी है जिससे वह चीजों को देखता- जाँचता है।
    इस पुस्तक से रंगमंच के दर्शन का ज्ञान तो होगा ही साथ ही ‘छात्रों, शोधार्थियों और रंगकर्मियों के लिए एक ही दिशा में किये गये काम कहानी का रंगमंच से सम्बद्ध लगभग सारी जानकारियाँ’ भी मुहैया हो सकेंगी। ऐसा हमें विश्वास है।
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    डॉ. शकील के अफ़साने खुशगवार झोंके की तरह सामने आए हैं।… उनकी बड़ी ख़ासियत यह है कि वह अच्छी तरह जानते हैं, उन्हें क्या नहीं लिखना है। लिखना तो बहुत लोग जानते हैं, मगर इसकी जानकारी कम लोगों को होती है कि उन्हें क्या नहीं लिखना है। डॉ. शकील के यहाँ मुझे एक तरह का CRAFTMANSHIP दिखाई देता है। यह खसूसीयत बहुत रियाज के बाद आती है… मुझे खुशी है कि उर्दू अफ़सानानिगारी में एक ऐसे नाम का इजाफा हो रहा है, जिनके अफ़साने नये रंगो-आहंग (बिम्ब) से मुजय्यन (सुसज्जित) हैं।

    – अब्दुस्समद

    डॉ. शकील साहब की कहानियाँ हमारे समय की नब्ज़ पर उँगली रखती हैं। ये कहानियाँ हमारे समय और हमारी दुनिया का कार्डियोग्राम हैं।… यहाँ बहुत बारीकी और संवेदना से हिंसा और अमानवीय स्थितियों में छटपटाते स्त्री-पुरुष, उनके संघर्ष और कई बार जीत को प्रस्तुत किया गया है जो समकालीन कथा जगत् के लिए एक विरल घटना है। मूलतः उर्दू में लिखी यह कहानियाँ उर्दू और हिन्दी दोनों ही परम्पराओं से रस ग्रहण करती हैं… डॉ. शकील इन कहानियों के साथ डॉक्टर-कथाकारों की उस महान् परम्परा को आगे बढ़ाते हैं, जिसमें पहले चेखव, समरसेट मॉम, बनफूल सरीखे कथाकार हो गये हैं।
    – अरुण कमल
    यह डॉ. शकील का पहला कहानी संग्रह है।… कहानियाँ बहुत सादा जुबान में लिखी गयी हैं, लेकिन कहानी बुनने की कला पर ध्यान न जाना मुमकिन नहीं… कहानीकार अपने आपको अकेली आवाज़ नहीं, बल्कि सरहदों और वक़्तों के आर-पार फैले आवाज के समन्दर का क़तरा मानता है। आपको वह उस संवेदना लोक की झलक दिखलाना चाहता है, जिसका वह वासी है।
    -अपूर्वानंद
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    -सफ़दर इमाम क़ादरी
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    ‘खोये हुए लोगों का शहर’ विख्यात चित्रकार और लेखक अशोक भौमिक की नयी किताब है। गंगा और यमुना के संगम वाले शहर यानी इलाहाबाद (अब प्रयागराज) की पहचान दशकों से बुद्धिजीवियों और लेखकों के शहर की रही है। इस पुस्तक के लेखक ने यहाँ बरसों उस दौर में बिताये जिसे सांस्कृतिक दृष्टि से वहाँ का समृद्ध दौर कहा जा सकता है। यह किताब उन्हीं दिनों का एक स्मृति आख्यान है। स्वाभाविक ही इन संस्मरणों में इलाहाबाद में रचे-बसे और इलाहाबाद से उभरे कई जाने-माने रचनाकारों और कलाकारों को लेकर उस समय की यादें समायी हुई हैं, पर अपने स्वभाव या चरित्र के किसी या कई उजले पहलुओं के कारण कुछ अज्ञात या अल्पज्ञात व्यक्ति भी उतने ही लगाव से चित्रित हुए हैं। इस तरह पुस्तक से वह इलाहाबाद सामने आता है जो बरसों पहले छूट जाने के बाद भी लेखक के मन में बसा रहा है। कह सकते हैं कि जिस तरह हम एक शहर या गाँव में रहते हैं उसी तरह वह शहर या गाँव भी हमारे भीतर रहता है। और अगर वह शहर इलाहाबाद जैसा हो, जो बौद्धिक दृष्टि से काफी उर्वर तथा शिक्षा, साहित्य, संस्कृति में बेमिसाल उपलब्धियाँ अर्जित करने वाला रहा है, तो उसकी छाप स्मृति-पटल से कैसे मिट सकती है? लेकिन इन संस्मरणों की खूबी सिर्फ यह नहीं है कि भुलाए न बने, बल्कि इन्हें आख्यान की तरह रचे जाने में भी है। अशोक भौमिक के इन संस्मरणों को पढ़ना एक विरल आस्वाद है।

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    भारतीय भाषा अध्ययन केन्द्र,
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  • Kavita Kedarnath Singh (Criticism)

    Edited by A. Arvindakshan

    केदारनाथ सिंह की कविताएँ माँग करती हैं कि उनपर अनेक तरह से विचार किया जाए। उनकी कविता के भी कई पते हैं जिनमें मेरी समझ से स्थायी पता चकिया ही है। लेकिन अन्त में होता यह है कि आप सिर्फ़ कवि का नाम लिख दें और यही उसका स्थायी पता होगा। जब किसी कवि के साथ ऐसा हो जाए तब वह कवि समूची मनुष्यता का कवि हो जाता है। केदार जी के बारे में भी शायद यही हो कि कल हम कहें, केदारनाथ सिंह – कवि । भोजपुरी, हिन्दी, बनारस, चकिया, दिल्ली सब छूट जाएँ।

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    – अरुण कमल (इसी पुस्तक से)
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