Kara (Kahani-sangrah) By Vivek Mishra

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कारा – विवेक मिश्र (कहानी-संग्रह)


पापा बिना किसी से कोई शिकायत किये, धीरे-धीरे मुस्कराते हुए, अपनी यादों को अपनी पलकों में समेटे, अपने अकेलेपन में सिमटते हुए, धीरे-धीरे आँखें मूंद रहे थे। उस एकान्त में कोई आवाज नहीं पहुँच रही थी। जो आवाजें वहाँ पहुँच भी रही होंगी ये इतनी ठण्डी थीं कि उनसे पिघल के कोई शब्द नहीं बन सकता था। उनके होंठ कुछ कहने के लिए खुले थे पर वे जैसे कुछ कहते-कहते रह गये थे। या उनके होंठों से जो शब्द निकले थे, वे बच्चों की हँसी बनके पुरानी किसी तस्वीर में छुप गये थे। लग रहा था दिव्य प्रकाश माथुर, सौम्या, रोहित और नील के पापा बड़े दिनों के बाद गहरी नींद में सो गये हैं।
– इसी पुस्तक से


विवेक मिश्र उन कहानीकारों में हैं जो सिर्फ़ कथानक और किरदारों को रचकर छुट्टी नहीं पा लेते बल्कि जीवन की गहनतम अनुभूतियों को भी कथाविन्यस्त करते चलते हैं। इसलिए स्वाभाविक ही उनकी कहानियों में एक दार्शनिक पुट दिखाई देता है। इन कहानियों में जीने के संघर्ष के विकट रूप जगह-जगह मौजूद हैं लेकिन यह संघर्ष सिर्फ रोज्जमर्रा का नहीं है, अस्तित्वगत भी है।
यातना, दर्द और घुटन भोगती जिंदगियों की दास्तान कहती ये कहानियाँ घर-परिवार के परिवेश के अलावा अधिकतर अस्पताल जैसी चिन्ता और सन्ताप भरी जगहों पर घटित होती हैं। ये वो क्षण होते हैं जब आदमी न सिर्फ़ मृत्यु की अटल सच्चाई का क़रीब से सामना करने के लिए अभिशप्त होता है बल्कि जीवन को भी पहले से कहीं ज्यादा शिद्दत से महसूस कर पाता है। यह कहना गलत नहीं होगा कि विवेक मिश्र जीवन के दारुण सच के कथाकार हैं।
उन्होंने अवैध रेत खनन, विस्थापन, और विकास के नाम पर, भ्रष्टाचार के जरिये होने वाली जमीन की लूट जैसे मसलों पर भी कहानी लिखी है। लेकिन यहाँ भी नदी और पानी उनका खास सरोकार है। उनकी कहानियों में जो शोक और सन्ताप के स्वर सुन पड़ते हैं उनके पीछे अस्तित्व के संकट का बोध है और कहना न होगा कि इसमें पर्यावरण का संकट भी शामिल है। उनके कहानी-संग्रह कारा की कहानियों में गहराई भी है और पठनीयता भी।


 

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Kara (Kahani-sangrah) By Vivek Mishra


About the Author

विवेक मिश्र
15 अगस्त 1970 को झांसी, बुन्देलखण्ड में जन्मे, विवेक मिश्र हिन्दी के समकालीन कथाकार हैं। उनके तीन कहानी संग्रह-‘हनियाँ तथा अन्य कहानियाँ’, ‘पार उतरना धीरे से’ एवं ‘ऐ गंगा तुम बहती हो क्यूँ ?’ तथा दो उपन्यास ‘डॉमनिक की वापसी’ एवं ‘जन्म-जन्मान्तर’ प्रकाशित हो चुके हैं। उनकी कहानियों का बांग्ला और अँग्रेज्ती में भी अनुवाद हुआ है। उन्हें कहानी ‘कारा’ के लिए’ सुर्ननोस कथादेश पुरस्कार’, कहानी-संग्रह ‘पार उतरना धीरे से’ के लिए उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान का ‘यशपाल पुरस्कार’, ‘हंस’ में प्रकाशित कहानी’ और गिलहरियाँ बैठ गयीं’ के लिए रमाकान्त स्मृति पुरस्कार 2016 और उपन्यास ‘डॉमनिक की वापसी’ के लिए किताबघर प्रकाशन का ‘जगत राम आर्य स्मृति सम्मान’ और कथा यू.के. का ‘इन्दु शर्मा कथा सम्मान’ मिला है। उनके दूसरे उपन्यास ‘जन्म-जन्मान्तर’ को वर्ष 2025 में स्पन्दन कृति सम्मान के लिए चुना गया है। वह इस समय एक पूर्णकालिक लेखक हैं और दिल्ली में रहते हैं।


SKU: Kara (Kahani-sangrah) By Vivek Mishra
Category:
Author

Vivek Mishra

Binding

Paperback

Language

Hindi

ISBN

978-93-6201-281-4

Pages

144

Publication date

01-02-2025

Publisher

Setu Prakashan Samuh

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    देशज संस्कारों, विचारों और खरे जीवनानुभवों से रचित एक अविस्मरणीय और दुर्लभ गल्प है अलफतिया। हिन्दी की अपनी परम्परा की कथाकहन के विन्यास को, आधुनिक जीवन के व्यापक और बहुविध अनुभवों से समृद्ध करती, यह कथा इतनी प्रवाहपूर्ण और इतनी आत्मीय है, कि मुझ जैसा पाठक, उसमें सहज ही अपने घर, शहर और अपनी देश-दुनिया की बीसियों छवियों को साक्षात अनुभव करने सा देखता रहता है। इसकी बिम्बात्मकता, केवल शैल्पिक युक्ति के स्तर पर नहीं, मर्म में रच बस जाने वाली पाठानुभूति की तरह है। इसकी बतकही इसके मुख्य चरित्र अलफतिया को, इस तरह से रचती है, कि हम उसके कहने को ही नहीं, बल्कि उसके विविधरंगी जीवन को भी महसूस करते हैं। लेकिन यह पूरा किस्सा, महज उसकी बतकही का नहीं, हमारे आज के जीवन का एक संवेदनासिक्त और विचार-विवेक समृद्ध किस्सा है। गल्प के सच को, जीवन के सत्य, बल्कि सचों में रूपान्तरित करते, इस किस्से में मोड़ तो हैं, और दृश्य भी, लेकिन कथा हमें भटकाती नहीं है और कहीं अटकाती भी नहीं।
    लोकचित्त की गहरी और सहज अन्तर्दृष्टि के साथ गल्प को विकसित करने की कोशिश की गयी है। अकादमिक अर्थ में लोक और शिष्ट के विभेद के रूप में नहीं, बल्कि वास्तविक, व्यावहारिक जीवन के रोजमर्रा में, सहज ही पहचान में आने वाले लोगों के सोचविचार और जीवनविधि के अर्थ में ही, पूरी कथा में इस चित्त की साकारता के विविध रूपाकार कल्पनाशील भाषा में सिरजे गये हैं। सम्भवतः इस गल्प की बुनियादी विशेषता यही है और शायद इसकी रचना की अन्तः प्रेरणा भी।
    भाषा में जो प्रवहमानता और अनुभवगम्य प्रामाणिकता महसूस होती है, वह सिर्फ अलफतिया या बाद में लेडी अलफतिया के कथन वैशिष्ट्य में सीमित नहीं है, बल्कि निरन्तर आने जाने वाले लोगों और जगहों में गतिशील स्वतःस्फूर्त्त लोकभावना है, जो भाषा को सिर्फ माध्यम नहीं रहने देती, बल्कि अनुभव कराती है, कि वही इसकी अन्तर्वस्तु की जननी है। इसकी भाषा में लीलाभाव तो पर्याप्त है, पर उसके अलावा, उसमें भारतीयों के साम्प्रतिक और प्रासंगिक जीवन की अनेक स्मृतियाँ भी, जीवन्त और गतिशील होकर पाठक के अनुभव संसार को आन्दोलित करती हैं।
    यह कथा एक कवि की गद्यभाषा में लिखी गयी है। अनावश्यक ब्यौरों से दूर, इस कथा में ग्रामीण जीवन की स्मृतियों की मासूमियत का विन्यास है। जब हम अलफतिया और लेडी अलफतिया को गाँव में जाकर बसता देखते हैं, तो गाँव बनाम शहर, की एक पुरानी बहस कथा में आकार लेने लगती है। कथा के इस अंश में ग्रामीण सहजता की नैसर्गिकता है और साथ-साथ गाँव से शहर भागते लोगों के हवाले से, वहाँ आते बदलाव की झलकियाँ भी। मुक्त और सुन्दर प्रकृति को कथाकार, भाषा में पूरे मन से आत्मसात करता है और जैसे वहीं बस जाता है। कविता की लय में ही विकसती है पूरी कहानी और पाठक को अन्तरंग बिम्बात्मकता के संसार में डुबो देती है।
    कोरोना महामारी के समय की दहशत, तकलीफ, बेकारी, बदहाली के बीच से गुजरती कथा, अपने विकसित रूप में सभ्यता-समीक्षा की भाषा में बदल जाती है। बाजारू भोगवाद को, कोरोना जैसी ही नहीं, बल्कि उससे भी बड़ी और खतरनाक बीमारी के रूप में देखता कथाकार, अपने अन्तर्मन की संस्कारी भाषा में उसका प्रतिरोध रचता सा प्रतीत होता है। शायद पूरी कथा में इसीलिए देसी चिन्तनशीलता की एक अन्तर्लय है। अन्तर्मन की यह पुकार ही सहजता के साथ कहानी को आगे बढ़ाती है। अलफतिया एक प्रासंगिक, रोचक और पठनीय कथा है, जो हमें अपने आत्मालोचन की दिशा में बढ़ने के लिए उद्‌द्बुद्ध करती है।

    – प्रभात त्रिपाठी

    149.00175.00
  • Johar Jharkhand Aadiwasi Janjeevan Ki Kahaniyan By Rakesh Kumar Singh

    जोहार झारखण्ड
    आदिवासी जनजीवन की कहानियाँ – राकेश कुमार सिंह


    आदिवासी जन-जीवन पर लिखने वाले गैरआदिवासी रचनाकारों में राकेश कुमार सिंह एक महत्त्वपूर्ण नाम हैं। राकेश कुमार सिंह का प्रस्तुत कथा संग्रह ‘जोहार झारखण्ड’ भारत के आदिवासी बहुल राज्य झारखण्ड की पृष्ठभूमि पर लिखी कहानियों का विशिष्ट संग्रह है।
    प्रस्तुत संग्रह में ‘ जोहार झारखण्ड’ शीर्षक से कोई कहानी नहीं है बल्कि यह शब्दवन्ध झारखण्ड के लोक का रूपक है… एक अन्तर्धारा है जो इस संग्रह में संयोजित हर कहानी में उपस्थित है।
    यह शब्दबन्ध झारखण्ड की सांस्कृतिक भौगोलिक विरासत का प्रतीक है जिसका अर्थ है स्वागतम्, अभिवादन, नमस्कार… आतिथ्य की भावना।
    ‘जोहार झारखण्ड’ की कहानियाँ पाठकों को झारखण्ड के गाँवों, बीहड़ वनों और कस्बों के सीमान्त पर बसे आदिवासी समाज तक पहुँचने को आमन्त्रित करती पगडण्डियाँ हैं।
    झारखण्ड के पठार को उसके श्वेत श्याम धूसर रंगों में चित्रित करता यह कथा संग्रह हिन्दी कहानी में बनैली बयार की अनुभूति है जो सघन वन में पैठती जाती कहानियों की भाषा में गीत (सिम्फनी) की करुणा भरती जाती है।
    प्रस्तुत संग्रह में पठार की पीड़ा के शब्दकार राकेश कुमार सिंह का किस्सा-गो पूरी विश्वसनीयता, प्रामाणिकता, माटी-प्रेम और झारखण्डी किस्सागोई के सामर्थ्य के साथ उपस्थित है।

    – डॉ. अशोक प्रियदर्शी


    ढेरों कथाकार हैं जिन्होंने यादगार कहानियाँ लिखी हैं पर मेरे साथ स्थिति दूसरी है। चूँकि मैं कायदे का कथाकार ही नहीं हूँ अतः कहानी ही शायद स्वयं को मुझसे लिखवा ले जाती है। प्रस्तुत कथा को भी मैंने अपनी मौलिक रचना के रूप में लिख डालना चाहा था पर लिखी नहीं जा सकी। देश, काल, पात्र, और स्थितियों में तालमेल मैं बिठा ही नहीं पाया अतः जैसी सुनी वैसी लिख डाली। यह कहानी मेरे हलवाहे भुवनेश्वर गोसाईं की ही है।

    इसी पुस्तक से

    297.50350.00
  • Badalte Akshansh (Novel) By Tej Pratap Narayan

    बदलते अक्षांश ( उपन्यास) – तेज प्रताप नारायण

    उपन्यास ‘बदलते अक्षांश’ की कथा का केन्द्र पूर्वांचल का एक गाँव है लेकिन इसके कथा-क्षेत्र का विस्तार अमेरिका और यूरोप तक है। तकनीक के क्षेत्र में उच्च शिक्षा प्राप्त कुछ युवाओं के सामाजिक अनुभवों, जीवन संघर्षों और भविष्य की सम्भावनाओं के माध्यम से कथा को विस्तार दिया गया है।
    इन्हीं में से एक युवा अविनाश की नियुक्ति भारतीय प्रशासनिक सेवा में होती है जिसके माध्यम से उसका सामना ग्रामीण जीवन की वास्तविकताओं और प्रशासनिक व्यवस्था की कुव्यवस्थाओं से होता है। स्वयं ग्रामीण परिवेश से होने के बावजूद वह ग्रामीण जीवन में होने वाले बदलावों को महसूस करता है। जहाँ अपनापन था, प्रेम था, सम्मान था, वहाँ अब इन तत्त्वों का लोप हो गया है। निजी हित-लाभ सामाजिक मूल्यों पर भारी हो गये हैं। गाँव में होली और फगुआ के रंग अब फीके पड़ गये हैं। शहरी जीवन का प्रभाव ग्रामीण जीवन को आच्छादित करने लगा है। शहर में मौजूद सम्भावनाओं को तलाशने के बजाय वहाँ के दुर्गुण ग्रामीण युवाओं को अधिक आकर्षित कर रहे हैं। गाँव की भावी पीढ़ियों के मध्य जो भटकाव आ गया है उसे विकास के मार्ग पर अग्रसर करने का एकमात्र माध्यम शिक्षा है, उपन्यास इसे बड़े स्पष्ट शब्दों में निरूपित करता है। ज्ञान आधारित शिक्षा, डिग्री आधारित नहीं।
    ग्रामीण जीवन में बदलाव के साथ-साथ उसे व्यवस्था में व्याप्त भ्रष्टाचार से भी रूबरू होना पड़ता है। विशिष्ट यह है कि भ्रष्टाचार को एक योग्यता के रूप में देखा जा रहा है और उसे सामाजिक स्वीकार्यता भी प्राप्त है।
    भ्रष्टाचार के साथ ही प्रशासनिक निष्क्रियता, टालमटोल की प्रवृत्ति और दूसरे की राह में रोड़ा अटकाने की मानसिकता को भी उपन्यास में बखूबी चित्रित किया गया है। सामाजिक जीवन में व्याप्त जातीय व्यवस्था किस प्रकार प्रशासनिक तन्त्र से आकर जुड़ जाती है और योग्य व्यक्तियों के अवसरों का अयोग्यों के लिए उपयोग करती है, इसका भी वर्णन परत दर परत उपन्यास में किया गया है।
    जहाँ देश के युवा अपना समय लड़ाई-झगड़े, नशे और मोबाइल पर वीडियो देखने में बर्बाद कर रहे हैं वहीं विदेश में युवा अपना समय नये अनुसन्धान, विचार, विज्ञान और व्यवसाय में लगा रहे हैं। एमआईटी के माध्यम से उपन्यास में इसे बड़े विस्तार से वर्णित किया गया है। देश से बाहर रहने वाले लोगों के सामाजिक जीवन, रहन-सहन और उनकी मानसिक अवस्थिति को उपन्यास में प्रदीप, मोनिका, अर्चना इत्यादि पात्रों के माध्यम से दिखाया गया है। इस पूरे उपक्रम में उपन्यास जिस ओर स्पष्ट इशारा करता है वह है मानवीय संवेदना। संवेदना से शून्य व्यक्ति सफल हो या असफल, जीवन में सुखी नहीं हो सकता।
    उपन्यास की भाषा न सिर्फ रोचक और सरल है बल्कि इसमें भाषाई विविधता भी है। पढ़े-लिखे शहरी लोगों की हिन्दी व अँग्रेजी तथा ग्रामीण परिवेश के लोगों की स्थानीय बोली अभिव्यक्ति को जीवन्त बनाती हैं। पात्रों के परिवेश की विविधता अभिव्यक्ति को इन्द्रधनुषी रंग प्रदान करती है। इसके साथ ही लोकोक्तियाँ, कहावतें और फिल्मी गाने पठनीयता को बढ़ाते हैं।
    यह उपन्यास अपने कथा-प्रदेश के विस्तार के साथ-साथ कथा-परिवेश की विविधता भी लिये हुए है जो भाषा के विविध रंगों से सराबोर है। समग्र रूप से यह कहा जा सकता है कि अपने विषय और भाषा की रोचकता के साथ यह निश्चित रूप से पठनीय है।


     

    361.00425.00
  • Gameti Besara Ki Mauroosi Zamin (Short Stories) By Jainandan

    गमेती बेसरा की मौरूसी जमीन – जयनंदन


    प्रख्यात कहानीकार जयनंदन जहाँ अपने कथ्य की प्रखरता के लिए जाने जाते हैं वहीं शिल्पगत वैविध्य और सधाव के लिए भी। उनके नये कहानी संग्रह गमेती बेसरा की मौरूसी जमीन में उनकी यह खूबी और भी शिद्दत से उभरकर आती है। एक ऐसे दौर में, जब अभिव्यक्ति की आजादी पर खतरे बढ़ रहे हैं, और यही नहीं, इस खतरे का मुकाबला करने के बजाय, कन्नी काटने में ही समझदारी मानी जा रही है, जयनंदन बेहिचक अभिव्यक्ति के जोखिम उठाते हैं। उनकी कहानियाँ अबूझ इशारों में नहीं, बल्कि बड़ी मुखरता से और गहरे आवेग के साथ, इस दौर के अन्याय, अत्याचार, लूट, असहिष्णुता, दमन, दुष्प्रचार और पाखण्ड का प्रतिरोध रचती हैं। इनकी कहानियों में सरोकारों के साथ हैं सरोकार यहाँ सतह पर नहीं है वह रचना अनुस्यूत सन्दर्भ है। इनकी चिन्ताएँ ऊपर से या बाहर से पिरोयी हुई नहीं हैं बल्कि रचना का उत्स हैं, और तज्जनित प्रवाह भी, उनकी रचनाशीलता का कारण भी और कार्य भी।
    इस संग्रह की कहानियों में हमारे समय का हाहाकार दर्ज है, गाँव से लेकर शहर तक, जंगल से लेकर महानगर तक बचाओ बचाओ की गुहार सुन पड़ती है। इन्हें पढ़ते हुए चतुर्दिक संकट से घिरे होने का अहसास हम पर तारी हो जाता है। इसलिए स्वाभाविक ही ये कहानियाँ हमें विचलित करती हैं। कहना न होगा कि रचनाकार की मंशा भी यही रही होगी कि समाज को दिनोदिन और भी संवेदनहीन, और भी हिंसक, और भी मूढ़, और भी पाखण्डप्रिय तथा और भी प्रतिगामी बनाने के संगठित षड्यन्त्रों को हम पहचानें और इस सब के प्रति सजग हों।

    251.00295.00
  • DILLY DAYAAR (Novel) by Gyan Chand Bagdi

    दिल्ली दयार – ज्ञानचन्द बागड़ी

    समय के साथ हर क्षेत्र में परिवर्तन होता है। व्यक्ति, रिश्तों, परिवार, जाति, समाज, राजनीति से लेकर गाँव, कस्बे, शहर तक रचनाकार इस परिवर्तन को अपनी आँखों से देखता है। वह बारीकी से अपनी रचना के माध्यम से उसे अभिव्यक्त करता है। उसकी गूंज दूर तक जाती है क्योंकि उसी में आने वाले समय की आहटें सुनाई देती हैं।
    ज्ञानचन्द बागड़ी का यह उपन्यास मुण्डका गाँव के कप्तान साहब और बेबे के बहाने जीवन के हर क्षेत्र में आ रहे परिवर्तन की कथा है। 1977 से लेकर वर्तमान तक बदलाव की इस प्रक्रिया को उपन्यासकार ने सूक्ष्मता से अध्ययन कर अभिव्यक्त किया है। दिल्ली से सटे गाँव मुण्डका के कप्तान साहब और बेबे को समय के साथ समझ में आ जाता है कि गाँव ही दुनिया नहीं है, बल्कि दुनिया ही अब गाँव में बदलती जा रही है। इसलिए छोटे बेटे वीरेन्द्र के अपनी पसन्द की लड़की के साथ विवाह को हलके विरोध के बाद स्वीकार कर लेते हैं। अपने पोते-पोतियों के विवाह तक आते-आते बेबे का घर धीरे-धीरे मानव संग्रहालय बनता जा रहा है। अब परिवार, जाति और धार्मिकता से बहुत दूर निकल गया है।
    यह उपन्यास पूरी वैचारिक तैयारी के साथ लिखा गया है। लेखक नये-पुराने विमर्शों की पूरी जानकारी रखने के साथ यह भी जानते हैं कि एक प्रतिबद्ध रचनाकार को किसका पक्षधर होना चाहिए। वे अपने समय के सत्य या यथार्थ से भलीभाँति परिचित हैं। इसलिए कथा पात्रों के साथ स्वतः सम्पूर्ण होती चलती है। छोटी उम्र में ब्याह कर आयी बेबे के अस्सी साल तक की यात्रा स्वयं उसके परिवर्तन की ही नहीं बल्कि एक समूचे कालखण्ड के परिवर्तन की यात्रा है। वे कहती हैं, ‘बचपन में ऊँच-नीच, भेदभाव देखकर बड़े हुए तो यो बेमारी म्हारे में भी आ गयी। मैंने शुरू सै नीची जातवालों ताईं भेदभाव राखा, छुआछूत राखी। अब मेरे बेटे-बहुओं से मैंने बुढ़ापे में सिख्या की इंसानियत से बड़ा कोई धर्म और जात कोयै नहीं होवै। मेरे दाह-संस्कार में और परसादी में बिना भेद करे सभी जात के लोगाँ नै बुलाइयो।’ यह उपन्यास समाजशास्त्रीय दृष्टि से भी महत्त्वपूर्ण है। इसमें समाज के प्रत्येक क्षेत्र में आए हुए आते जा रहे परिवर्तन के बीज देखे जा सकते हैं। छोटे से सूत्र में मुण्डका गाँव के एक परिवार की कथा को पिरोकर समूचे गाँवों के परिवारों की कथा बना दिया उपन्यासकार ने। भाषा का प्रभाव इतना सहज है कि हर पाठक को उपन्यास पढ़ते हुए लगता है अरे, यह तो मेरे ही गाँव के परिवार की कहानी है। किसी भी रचना की यह सबसे बड़ी विशेषता होती है कि पाठक उसे आत्मसात् कर सके।

    – सत्यनारायण


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    276.00325.00
  • Rammohan (Novel) By Devesh Verma

    राममोहन – देवेश वर्मा


    स्वातंत्र्योत्तर भारत में राममोहन एक निडर और महत्त्वाकांक्षी युवक है, जिसे अपनी जातिगत सीमाओं का आधिपत्य स्वीकार नहीं। वह ऐसे लक्ष्यों को साधने की ओर उन्मुख होता है जो उसके जैसी सामाजिक पृष्ठभूमि के व्यक्तियों के लिए सामान्यतया अगम्य हैं। किन्तु चुनौती कितनी ही आक्रान्तकारी क्यों न हो और रास्ता कितना ही बीहड़, राममोहन का दुर्निवार आशावाद हथियार डालने को तैयार नहीं। फिर उसे यह भी एहसास होता है कि राजनीति या अफसरशाही की ताकत के बिना भारत में आत्मसम्मान के साथ जीवन बसर करना एक टेढ़ी खीर है। एक अवसर पर जब गुलाब सिंह उसे एक गुण्डे के हाथों अपमानित होने से बचाता है तो वह हिंसा के महत्त्व का भी कायल हो जाता है। राजनीति और साहित्य के अलावा राममोहन के व्यक्तित्व का एक महत्त्वपूर्ण पहलू और भी है: उसकी अदम्य यौनाकांक्षा, जिसकी तसकीन के लिए वह सदैव सजग और प्रयत्नशील रहता है।
    आजादी के लगभग पच्चीस वर्षों के कालखण्ड की पृष्ठभूमि पर रचा गया यह उपन्यास प्रान्तीय उत्तर भारत की तत्कालीन राजनीतिक उठापटक और सामाजिक स्थितियों का जीवन्त चित्रण है एवं अपने मुख्य पात्रों की जिन्दगियों के चढ़ाव उतार का एक बेहद रोचक, मनोरंजक और विचारशील पर्यवलोकन।

    424.00499.00
  • PIRAUD (Story Collection) by Udayan Vajpeyi

    पिराउद – उदयन वाजपेयी


    ‘पिराउद’ उदयन वाजपेयी का अनोखा संग्रह है। इसमें सात कहानियाँ और दो संस्मरण हैं। एक ही जिल्द में कहानियाँ और संस्मरण साथ प्रकाशित करना दो लगभग विपरीत या कम से कम अलग विधाओं को साथ रखने जैसा है। कहानियों के केन्द्र में कल्पना होती है, संस्मरणों के केन्द्र में स्मृति। कहानियाँ कल्पना का आश्रय लेती हैं, संस्मरण स्मृति का। दोनों ही विधाओं में अपनी-अपनी तरह से सत्य को छूने की आकांक्षा का वास होता है।
    कहानी में कल्पना वह चुम्बकीय क्षेत्र है जिसकी ओर अनेक स्मृतियाँ खिंची चली आती हैं और इस’ आने’ में ये स्मृतियाँ अपना स्वरूप इस तरह बदल लेती हैं कि उन्हें कल्पना अपने अनुसार बिल्कुल नये रूप में बुन देती है या उन्हें विन्यस्त कर देती है। इस तरह कहानी में कल्पना के चुम्बकीय क्षेत्र के कारण लेखक या/और समाज की स्मृतियाँ अपना पुराना चोला छोड़कर न सिर्फ़ नया शरीर धारण कर लेती हैं बल्कि वे एक-दूसरे के साथ भी एक बिल्कुल ही नये बल्कि अप्रत्याशित विन्यास में आ खड़ी होती हैं। अब वे महज स्मृति न रह जाकर कल्पना के शहर की नागरिकता प्राप्त कर लेती हैं। इस तरह देखने पर हम शायद यह कह सकते हैं कि कहानी कल्पना के नगर में स्मृतियों के भटकाव की विधा है। शायद इसीलिए कहानी हमेशा ही वर्तमान में घटित है। उनके इसी भटकाव के फलस्वरूप कहानी में रस-निष्पत्ति होती है, उसमें किसी कोंपल की तरह अन्तर्दृष्टि फूटती है।
    संस्मरण-लेखन की विशिष्टता इस बात में है कि उसमें स्मृतियों को इस तरह विन्यस्त किया जाता है कि उन्हें पढ़ते समय हमें यह महसूस हो कि यहाँ वर्णित सारी घटनाएँ भले ही अतीत में घटित हुई हों पर वे महज बीते हुए समय का दस्तावेज नहीं हैं। उनमें ऐसा कुछ जरूर है जो अतीत होते हुए भी व्यतीत नहीं हुआ है। संस्मरण इन बीते हुए पलों के उन हिस्सों को प्रकाश में लाता है जो बीतकर भी नहीं बीतते, जो गुज्जरकर भी हमारे सामने धड़कते रहते हैं।

    191.00225.00
  • Ramoo Ka Ankaha Dard (Novel) By Taj Hassan

    रामू का अनकहा दर्द – ताज हसन


    करेह नदी के तट पर स्थित तेसरी नामक गाँव के बाशिन्दे मजदूर, दुकानदार और कारीगर-मिस्त्री आदि के रूप में पड़ोस के भगतपुर के उच्चवर्णीय भूस्वामियों की सेवा करते हुए अपना गुजारा करते हैं। सैकड़ों साल से वहाँ जिन्दगी इसी ढर्रे पर चलती रहती है, इसमें खलल उस दिन पड़ता है जिस दिन रामू हज्जाम, तेसरी गाँव का एक नाई, भगतपुर के मुखिया के हाथों बुरी तरह पीटा जाता है, सिर्फ इसलिए कि दाढ़ी बनाते समय संयोगवश मुखिया का गाल थोड़ा सा कट गया था। अन्याय के खिलाफ गुस्से से उबलता हज्जाम का बेटा, बदला लेने के लिए नदी के उस पार रहस्यमय युवाओं के समूह, जो अपने को माओवादी कहते हैं, से जा मिलता है; फिर घटनाओं का एक ऐसा सिलसिला शुरू होता है जो दो गाँवों के बीच के नाजुक शक्ति सन्तुलन को हमेशा के लिए छिन-भिन्न कर देता है। कुल मिलाकर, रामू का अनकहा दर्द भारत के दूरदराज में गरीबी, गैरबराबरी और जातिगत हिंसा का जीवन्त चित्रण है।

    276.00325.00