अलफतिया – ध्रुव शुक्ल
देशज संस्कारों, विचारों और खरे जीवनानुभवों से रचित एक अविस्मरणीय और दुर्लभ गल्प है अलफतिया। हिन्दी की अपनी परम्परा की कथाकहन के विन्यास को, आधुनिक जीवन के व्यापक और बहुविध अनुभवों से समृद्ध करती, यह कथा इतनी प्रवाहपूर्ण और इतनी आत्मीय है, कि मुझ जैसा पाठक, उसमें सहज ही अपने घर, शहर और अपनी देश-दुनिया की बीसियों छवियों को साक्षात अनुभव करने सा देखता रहता है। इसकी बिम्बात्मकता, केवल शैल्पिक युक्ति के स्तर पर नहीं, मर्म में रच बस जाने वाली पाठानुभूति की तरह है। इसकी बतकही इसके मुख्य चरित्र अलफतिया को, इस तरह से रचती है, कि हम उसके कहने को ही नहीं, बल्कि उसके विविधरंगी जीवन को भी महसूस करते हैं। लेकिन यह पूरा किस्सा, महज उसकी बतकही का नहीं, हमारे आज के जीवन का एक संवेदनासिक्त और विचार-विवेक समृद्ध किस्सा है। गल्प के सच को, जीवन के सत्य, बल्कि सचों में रूपान्तरित करते, इस किस्से में मोड़ तो हैं, और दृश्य भी, लेकिन कथा हमें भटकाती नहीं है और कहीं अटकाती भी नहीं।
लोकचित्त की गहरी और सहज अन्तर्दृष्टि के साथ गल्प को विकसित करने की कोशिश की गयी है। अकादमिक अर्थ में लोक और शिष्ट के विभेद के रूप में नहीं, बल्कि वास्तविक, व्यावहारिक जीवन के रोजमर्रा में, सहज ही पहचान में आने वाले लोगों के सोचविचार और जीवनविधि के अर्थ में ही, पूरी कथा में इस चित्त की साकारता के विविध रूपाकार कल्पनाशील भाषा में सिरजे गये हैं। सम्भवतः इस गल्प की बुनियादी विशेषता यही है और शायद इसकी रचना की अन्तः प्रेरणा भी।
भाषा में जो प्रवहमानता और अनुभवगम्य प्रामाणिकता महसूस होती है, वह सिर्फ अलफतिया या बाद में लेडी अलफतिया के कथन वैशिष्ट्य में सीमित नहीं है, बल्कि निरन्तर आने जाने वाले लोगों और जगहों में गतिशील स्वतःस्फूर्त्त लोकभावना है, जो भाषा को सिर्फ माध्यम नहीं रहने देती, बल्कि अनुभव कराती है, कि वही इसकी अन्तर्वस्तु की जननी है। इसकी भाषा में लीलाभाव तो पर्याप्त है, पर उसके अलावा, उसमें भारतीयों के साम्प्रतिक और प्रासंगिक जीवन की अनेक स्मृतियाँ भी, जीवन्त और गतिशील होकर पाठक के अनुभव संसार को आन्दोलित करती हैं।
यह कथा एक कवि की गद्यभाषा में लिखी गयी है। अनावश्यक ब्यौरों से दूर, इस कथा में ग्रामीण जीवन की स्मृतियों की मासूमियत का विन्यास है। जब हम अलफतिया और लेडी अलफतिया को गाँव में जाकर बसता देखते हैं, तो गाँव बनाम शहर, की एक पुरानी बहस कथा में आकार लेने लगती है। कथा के इस अंश में ग्रामीण सहजता की नैसर्गिकता है और साथ-साथ गाँव से शहर भागते लोगों के हवाले से, वहाँ आते बदलाव की झलकियाँ भी। मुक्त और सुन्दर प्रकृति को कथाकार, भाषा में पूरे मन से आत्मसात करता है और जैसे वहीं बस जाता है। कविता की लय में ही विकसती है पूरी कहानी और पाठक को अन्तरंग बिम्बात्मकता के संसार में डुबो देती है।
कोरोना महामारी के समय की दहशत, तकलीफ, बेकारी, बदहाली के बीच से गुजरती कथा, अपने विकसित रूप में सभ्यता-समीक्षा की भाषा में बदल जाती है। बाजारू भोगवाद को, कोरोना जैसी ही नहीं, बल्कि उससे भी बड़ी और खतरनाक बीमारी के रूप में देखता कथाकार, अपने अन्तर्मन की संस्कारी भाषा में उसका प्रतिरोध रचता सा प्रतीत होता है। शायद पूरी कथा में इसीलिए देसी चिन्तनशीलता की एक अन्तर्लय है। अन्तर्मन की यह पुकार ही सहजता के साथ कहानी को आगे बढ़ाती है। अलफतिया एक प्रासंगिक, रोचक और पठनीय कथा है, जो हमें अपने आत्मालोचन की दिशा में बढ़ने के लिए उद्द्बुद्ध करती है।
– प्रभात त्रिपाठी
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