Sahitya Aur Sahitya Ka Lokvritt Evam Anya Nibandh By Dr. Rajkumar

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साहित्य और साहित्य का लोकवृत्त एवं अन्य निबन्ध — डॉ. राजकुमार


प्रिण्ट संस्कृति का वर्चस्व कायम होने से पहले हिन्दी की साहित्यिक संस्कृति पठ्य से ज्यादा श्रव्य थी। उसका पाठ या गायन किया जाता था। प्रिण्ट संस्कृति के वर्चस्व के बाद वह पठ्य हो गयी। पठ्य/टेक्सच्युअल संस्कृति ने प्रायः समरूप और एकवचनात्मक संस्कृति को आदर्श रूप में प्रस्तुत किया जबकि वाचिक (performative) संस्कृति प्रायः बहुवचनात्मक और अनेकात्मक होती थी। ज्ञान के अनुशासन के रूप में विश्वविद्यालयों में स्थापित हो जाने के बाद हिन्दी के चरित्र में बहुवचनात्मकता के बचे रहने की सम्भावना क्षीण हो गयी। हिन्दी के इस नवनिर्मित लोकवृत्त से शास्त्रीय-उपशास्त्रीय संगीत, पारसी थिएटर, नौटंकी, फिल्म और जनपदीय भाषाओं/बोलियों को बाहर कर दिया गया। पारम्परिक हिन्दी कवि और श्रोता-समुदाय के लिए भी इस नये वृत्त में कोई जगह नहीं रही।
अब प्रश्न यह है कि हिन्दी के इस नवनिर्मित लोकवृत्त का दायरा पुराने लोकवृत्त से बड़ा था या छोटा ? दूसरा प्रश्न यह है कि हिन्दी का यह नया लोकवृत्त कितना समावेशी था? ध्यान रहे कि हिन्दी के इस नये लोकवृत्त में उर्दू शामिल नहीं है। क्या यह अकारण है कि मैथिलीशरण गुप्त की ‘भारत भारती’ में भारत के इतिहास से आशय प्रायः हिन्दुओं के इतिहास से है। अब कोई चाहे तो तर्क कर सकता है कि हाली के ‘ मुसद्दस’ में भी तो सिर्फ मुसलमान ही हैं। जो भी हो, भारत भारती में राष्ट्र और हिन्दू समुदाय के बीच विभाजक रेखा बिल्कुल धुँधली है। भारत भारती ही क्यों, वसुधा डालमिया को यदि प्रमाण मानें तो हिन्दू परम्परा का राष्ट्रीयकरण तो भारतेन्दु युग में ही शुरू हो गया था।
राष्ट्र को एक समुदाय से जोड़ने के साथ ही राष्ट्रीय संस्कृति को भी उसी समुदाय की कल्पित संस्कृति का पर्याय बना दिया गया। यही नहीं, इस राष्ट्रीय संस्कृति के ‘स्वर्णयुग’ को अतीत में प्रक्षिप्त कर दिया गया और उस स्वर्णयुग को वापस लाना राष्ट्र का कर्तव्य मान लिया गया। इस राष्ट्र की एक भाषा थी, एक मन था, एक सबका भाव था। सम्पूर्ण भारत मानो एक नगरी थी। यह शान्तिप्रिय भारत था। सिर्फ आत्मरक्षा के लिए यहाँ हिंसा का सहारा लिया जाता था। स्पर्धा और संघर्ष का यहाँ अभाव था। भारतीय अतीत की यह छवि सिर्फ मैथिलीशरण गुप्त की रचनाओं में ही नहीं, प्रसाद और निराला की कई रचनाओं में भी दिखाई पड़ जाती है। यह भारत की समावेशी छवि नहीं है। इस छवि में अन्य सदा के लिए पराया या विदेशी होने के लिए अभिशप्त है।
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Sahitya Aur Sahitya Ka Lokvritt Evam Anya Nibandh By Dr. Rajkumar


About the Author

डॉ. राजकुमार

जन्म सन् 1961 में इलाहावाद (अब कौशाम्बी) जिले के इब्राहीमपुर गाँव में। बी.ए, की पढ़ाई इलाहाबाद विश्वविद्यालय से। उसके उपरान्त जे.एन.यू. नयी दिल्ली से एम.ए., एम.फिल. और पी-एच.डी.। दस पुस्तकें प्रकाशित तथा कई प्रकाशनाधीन। अनेक चर्चित लेख हिन्दी की सभी उल्लेखनीय पत्रिकाओं में प्रकाशित। फिलहाल देशभाषा की अप्रकाशित पाण्डुलिपियों, दुर्लभ ग्रन्थों और लोक साहित्य की बृहत् परियोजना में सक्रिय।
प्रमुख प्रकाशित पुस्तकें: आधुनिक हिन्दी साहित्य का चौथा दशक, साहित्यिक संस्कृति और आधुनिकता, हिन्दी की साहित्यिक संस्कृति और भारतीय आधुनिकता, उत्तर औपनिवेशिक दौर में हिन्दी शोधालोचना, हिन्दी की जातीय संस्कृति और औपनिवेशिकता आदि।
विजिटिंग प्रोफेसर पेंट विश्वविद्यालय, बेल्जियम, 2015 और 2016, लोजान
विश्वविद्यालय, स्विटजरलैण्ड, 2022
व्याख्यान और संगोष्ठी यूरोप और अमेरिका के विश्वविद्यालयों में व्याख्यान और संगोष्ठियों में प्रतिभाग।
सम्प्रति : सीनियर प्रोफेसर, हिन्दी विभाग, काशी हिन्दू विश्वविद्यालय, वाराणसी। समन्वयक : अन्तर सांस्कृतिक अध्ययन केन्द्र, काशी हिन्दू विश्वविद्यालय, वाराणसी।


SKU: Sahitya Aur Sahitya Ka Lokvritt By Dr. Rajkumar-PB
Category:
Author

Dr. Rajkumar

Binding

Paperback

Language

Hindi

ISBN

978-93-6201-626-3

Pages

296

Publication date

01-02-2025

Publisher

Setu Prakashan Samuh

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    प्रो. (डॉ.) किशोरीलाल ‘पथिक’
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    प्रधान सम्पादक: महेश आनन्द, देवेन्द्र राज अंकुर
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  • Durasth Dampatya (Hindi Story) By Mamta Kalia

    दूरस्थ दाम्पत्य – ममता कालिया


    कथावस्तु से कथानक का निर्माण होता है। कथावस्तु की तमाम घटनाएँ हमारी जिन्दगी की जानी-पहचानी स्थितियाँ होती हैं। कथाकार अपनी संवेदना और कल्पना से जिस कथानक का निर्माण करता है वह विशिष्ट और गतिमान होता है। ममता कालिया की इन कहानियों की विशेषता है कि पाठक कथावस्तु के सूत्रों के सहारे इनकी घटनाओं को अपने जीवन का अंग मानने लगता है। उसे लगता है कि अरे! यह तो हमारे पड़ोस में रहने वाले फलाँ बाबू हैं, अरे! यह तो हमारे साथ उस बरस घटा था आदि आदि। पर पूरी कहानी अपने रचनात्मक आवेग में उसी पाठक को उस रहस्य लोक में ले जाती है, जहाँ पात्र, परिवेश, उद्देश्य सब एक हो जाते हैं। कहानी अपने प्रभाव और रचाव में जैविक एकक बन जाती है। ममता कालिया की ये कहानियाँ इसलिए भी विशिष्ट हैं कि इनकी संवेदनात्मक संरचनाएँ सुसंगठित और एकात्मक हैं। इसीलिए ये पहचान और रचनात्मक विस्मय एकसाथ निर्मित कर पाने में सक्षम होती हैं। ममता कालिया की इन कहानियों की संवेदनात्मक संरचना के एकत्व को गहराई मिलती है जीवन की दार्शनिकता और विचारपरकता से- ‘यह दो जीवन-पद्धतियों का टकराव था, साथ ही दो विचार-पद्धतियों का भी।’ यह दार्शनिकता किसी भी रचना की गहराई के लिए अनिवार्यता है। इन कहानियों में यह अलग से इसलिए रेखांकित हो रही है क्योंकि आज के कहानी लेखन में इसका अभाव सा दीख रहा है। इसके कारण इस कहानी-संग्रह की बहुआयामिता निर्मित हो रही है। वह सपाट कथन से बाहर निकलती है। ममता जी की ये कहानियाँ अपने भीतर मध्यवर्ग का जीवन्त संस्कार समेटे हुए हैं। आशा-दुराशा, जीवन स्वप्न और दुस्सह यथार्थ, आकांक्षा और अपेक्षा के बीच डोलता मध्यवर्गीय जीवन यहाँ उपस्थित है। इस उपस्थिति के प्रति रचनाकार एक करुणापूर्ण दृष्टि रखता है। यह करुणा इस तथ्य के बावजूद है कि वे अपने पात्रों से एक निरपेक्ष दूरी भी बनाने में सफल होती हैं। यह द्वैत या द्वन्द्व ही ममता जी की कहानी-कला की विरल विशिष्टता है। सघन होने के बावजूद ममता जी की कहानियाँ बोझिल या कठिन नहीं बनतीं, तो इसका कारण इनकी प्रवाहपूर्ण भाषा है। सरस गद्य और भाषा का प्रवाह इन्हें न केवल व्यंजक बनाता है अपितु पठनीय भी।

    – अमिताभ राय


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  • Jaishankar Prasad By Abha Gupta Thakur

    जयशंकर प्रसाद – (नाट्य व्यक्तित्व)

    प्रधान सम्पादक: महेश आनन्द, देवेन्द्र राज अंकुर
    सम्पादक: आभा गुप्ता ठाकुर


    बीसवीं शताब्दी के प्रारम्भिक दशकों में जयशंकर प्रसाद के नाटकों से हिन्दी नाटकलेखन के एक नये अध्याय की शुरुआत होती है, और उनके निबन्धों से एक नयी रंगदृष्टि से परिचय मिलता है। नाटकलेखन में उन्होंने ऐतिहासिक शोध के भीतर से जीवन्त मानव की संघर्ष-यात्रा के अनेक पड़ावों का अंकन किया है। और अपने निबन्धों में उन्होंने हिन्दी रंगमंच की जातीय पहचान को पाने के लिए प्रेरित किया-ऐसा रंगमंच जो भारतीय सन्दर्भों में शास्त्रीय, पारम्परिक और पश्चिमी नाट्यों के व्यवहार और तत्त्वों के मेल से भारतीय नाट्यधर्मी शैली के एक नये मुहावरे को रेखांकित करे। इस प्रक्रिया में पारसी थिएटर और शेक्सपियर के अनेक रंगतत्त्व मिलते हैं, परन्तु संस्कृत नाटकों और पारम्परिक नाट्‌यों तथा इनके तत्त्वों में जो समानता है उससे ये तत्त्व आरोपित नहीं हैं, वरन् इस नयी रंगशैली को प्रदर्शनात्मक (थिएट्रिकल) आकर्षण के साथ गढ़ते हैं।
    – इसी पुस्तक से


     

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  • BHISHMA SAHANI Edited by Aneesh Ankur & Mamta Dhawan

    भीष्म साहनी -(नाट्य व्यक्तित्व)

    (हानूश, माधवी)

    सम्पादक : अनीश अंकुर, ममता धवन
    प्रधान सम्पादक : महेश आनन्द देवेन्द्र राज अंकुर


    भीष्म साहनी एक कथाकार थे, पर मैं यह भी जानता हूँ कि उनकी शक्ति, उनके सन्दर्भ, शब्दों के माध्यम से अभिनवता और सामाजिक और राजनीतिक परिदृश्य में काम करने के कारण तर्कशक्ति में निहित थी और वह कभी भी आदेशात्मक न होकर एक ऐसे विषय में गूँजी थी जो मानवतावादी थी जिससे वे सामाजिक तनाव के ताने-बाने में चरित्रों और विश्वासों को ढालते थे। और आप जितने ज्यादा उसमें डूबते जाते हैं आप उनके विश्वासों के पूरे रंग देख सकते हैं। तर्क और कारण प्रगतिशील हैं, पर भीष्म साहनी आपको महसूस कराएँगे कि सामाजिक क्रान्ति के नेटवर्क से ही कार्य करना चाहिए और वैज्ञानिक समाजवाद के सिद्धान्तों के माध्यम से उन्होंने अपने कार्यों को यथार्थवादी रूप में प्रस्तुत किया।
    – इसी पुस्तक से

     

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  • Jagdishchandra Mathur By Amitabh Srivastava

    जगदीशचन्द्र माथुर – (नाट्य व्यक्तित्व)

    प्रधान सम्पादक: महेश आनन्द, देवेन्द्र राज अंकुर
    सम्पादक: अमिताभ श्रीवास्तव


    स्वाधीनता के बाद के हिन्दी रंगमंच के एक बहुत महत्त्वपूर्ण नाटककार थे स्व. जगदीशचन्द्र माथुर। हालाँकि उनके नाटकों की पृष्ठभूमि आज के समय की नहीं हैं, उसके बावजूद वो आज के समय से पूरी तरह जुड़ते हैं, आज भी उतने सामयिक और अर्थवान लगते हैं। वर्तमान समय के कई एक महत्त्वपूर्ण और ज्वलन्त सरोकारों को इन नाट्यकृतियों में प्रस्तुत करते हैं। जब मैं आज या वर्तमान शब्दों का इस्तेमाल कर रहा हूँ, उसका तात्पर्य सिर्फ़ 1947 के बाद का भारत ही नहीं, बल्कि 21वीं सदी का मौजूदा समय भी है।
    ‘कोणार्क’, ‘शारदीया’ और ‘पहला राजा’ का रंगमंच के छात्रों और रंगप्रेमियों के बीच पठन-पाठन होना चाहिए, प्रसार-प्रसार होना चाहिए, युवा रंगनिर्देशकों को अपनी आज की समझ, शैली और परिप्रेक्ष्य में इनके मंचन की सम्भावनाएँ तलाशनी चाहिए, ऐसा मुझे लगता है।
    – इसी पुस्तक से


     

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