Maslak-e-aala Hazrat Barelavi By Anil Maheshwari
Maslak-e-aala Hazrat Barelavi By Anil Maheshwari – Hardcover
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हिन्दुस्तान पर 500 साल से भी ज्यादा मुस्लिम शासकों का शासन रहा, लेकिन वे शासक ‘धार्मिक कट्टरपन्थी’ नहीं थे, इसीलिए हिन्दुस्तान की आबादी में आज भी 85 प्रतिशत हिन्दू हैं। इस दौरान स्थानीय धार्मिक और सामाजिक रीति- रिवाज और मान्यताओं ने बाहर से आने वाले मुसलमानों पर भी अपना प्रभाव डाला। हिन्दुस्तान के साधू-सन्त और उनकी परम्पराओं को भी हिन्दुस्तानी इस्लाम में कुबूल कर लिया गया। इस तरह हिन्दू और हिन्दुस्तान में आए इस्लाम के बीच धार्मिक, सामाजिक और सांस्कृतिक आदान- प्रदान हुआ, जिसकी अनदेखी नहीं की जा सकती। हिन्दुस्तान में जब धीरे-धीरे मुस्लिम शासकों का शासन कमज़ोर होता गया तो उलेमाओं के ऊपर भी रोक-भीम कम होती गयी। इसी बीच उलेमाओं ने अपने आपको मुस्लिम समुदायों के डर और आशंकाओं के बीच खुद को उनका नेतृत्वकर्ता घोषित कर लिया।
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एक शहर बहुत सारी स्मृतियों से बनता है। अपनी स्थानिकताओं से हमारे ये रिश्ते इस कदर सघन होते हैं कि कई बार तो यह समूचा परिवेश एक पहेली, तिलस्म या मिथक की तरह से लगने लगता है।
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Ke Viruddh Swaminathan : Ek Paksh (Biography)
के विरुद्ध – अखिलेश
स्वामीनाथन : एक पक्ष
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अखिलेश ने इस किताब ‘के विरुद्ध’ में देश के विलक्षण चित्रकार और चिन्तक जगदीश स्वामीनाथन को अपनी तरह से याद किया है। उनके इस याद करने में स्वामीनाथन तो हैं ही, उनके साथ ही अनेक चित्रकार, लेखक आदि ने भी इस किताब में अपनी जगह बनायी है। इन पन्नों में स्वामीनाथन और अन्यों के जीवन्त चित्र तो हैं ही पर साथ ही जगह-जगह अखिलेश ने उनके चित्रों का अपनी तरह से पर्याप्त विश्लेषण भी किया है। आप लक्ष्य करेंगे और स्वयं अखिलेश ने भी इस ओर इशारा किया है कि ‘के विरुद्ध’ को महात्मा गांधी के बीज-ग्रन्थ ‘हिन्द स्वराज’ में अपनायी गयी शैली में लिखा गया है। जब मैं इस स्मृति ग्रन्थ में इस शैली के औचित्य के विषय में सोच रहा था तो मुझे लगा कि सम्भवतः यह शैली इस बात का संकेत है कि जगदीश स्वामीनाथन जैसे जटिल कलाकार और चिन्तक को समझने के लिए अनेक तरह के मार्ग लेना आवश्यक है। उसके बगैर उन्हें किसी भी हद तक समझ पाना और उनकी कला व चिन्तन को अपने समय के लिए उपलब्ध करा पाना मुमकिन नहीं है। स्वामीनाथन को जानने के अनेक रास्ते खोजने होंगे। अखिलेश की खोज उन्हें अगर ‘हिन्द स्वराज’ की शैली तक ले गयी है तो इसमें आश्चर्य की कोई बात नहीं है। वे निश्चय ही स्वामीनाथन जैसे विलक्षण लेकिन जटिल व्यक्तित्व को समझने की ख़ातिर दूसरे रास्तों को छोड़ इस रास्ते पर आए हैं।मैं जगदीश स्वामीनाथन को बहुत क़रीब से जानता रहा हूँ। वे जितने अनोखे चित्रकार थे, उतने ही मौलिक चिन्तक भी। वे अपने समय में काफ़ी विवादास्पद भले ही रहे हों, उनके कृतित्व और वैचारिक मौलिकता को सभी सम्मान की दृष्टि से देखते थे। उन्होंने न केवल भारत की चित्रकला परम्परा को गहराई से देखा, बल्कि उस अन्तश्चेतना को अपने समय में आयत्त करने के क्रम में जो चित्र बनाये उन्हें आज भी पूरी उत्सुकता और आवेग के साथ देखा जाता है। स्वामी अकादमिक चिन्तक नहीं थे (वैसे कम-से-कम भारत में अकादमिक और चिन्तक ये दो पद शायद ही किसी व्यक्ति में साथ आए हों), वे तत्त्व-चिन्तक थे। संस्कृतियों और सभ्यताओं के प्रश्नों और समाधानों के मर्म को सहज ही देख पाने की उनमें ऐसी सामर्थ्य थी जो बहुत विरल है। उनके चित्रों और चिन्तन में वह भारत भी स्पन्दित होता था जो हमारे शहरी कला संस्थानों और विश्वविद्यालयों से लुप्त हो चुका है, जिसे समझने और अन्तस्थ करने के लगभग सभी मार्ग अब अवरुद्ध हो चुके हैं। अगर इस संक्षिप्त से सन्दर्भ में ‘के विरुद्ध’ को पढ़ा जाए तो हम कह सकेंगे कि अखिलेश ने यह किताब स्वामीनाथन नामक प्रांजल रहस्य को किसी हद तक बूझने के उपक्रम में लिखी है। स्वामी के जीवन और उनके चित्रों को पूरी निष्ठा से समझने और महसूस करने की आकांक्षा के बिना यह किताब नहीं लिखी जा सकती थी। जगदीश स्वामीनाथन के जीवन, चिन्तन और उनकी कला के प्रति अखिलेश की गहरी निष्ठा ने ही इस किताब में वह उजास लायी है जिसे आप जगह-जगह महसूस करेंगे। अखिलेश ने अन्य चित्रकारों के जीवन और कृतित्व पर भी समय-समय पर लिखा है। चूँकि वे स्वयं एक प्रतिभावान चित्रकार हैं, वे अलग-अलग चित्रकारों के कृतित्व में प्रवेश के नये-नये रास्ते खोजते हैं। वे जिन रास्तों पर चल कर, मसलन, सैयद हैदर रजा के जीवन और उनकी कला में प्रवेश करने का प्रयास करते हैं, जगदीश स्वामीनाथन की कला और उनके जीवन में प्रवेश के लिए वे उन्हीं रास्तों को नहीं अपनाते, उनके स्थान पर वे एक बार फिर नये रास्तों की खोज करते हैं।मेरा पक्का विश्वास है कि इस किताब को पढ़ते समय पाठक स्वयं को जगदीश स्वामीनाथन और उनके समकालीन चित्रकारों व लेखकों के निरन्तर सान्निध्य में पाएगा। उसे महसूस होगा मानो वे सारी बहसें या घटनाएँ जो ‘के विरुद्ध’ में दर्ज हैं, उनके आसपास हो रही हों और वह स्वयं उन बहसों और घटनाओं में शामिल हो रहा हो। यह किसी चित्रकार के जीवन और कला पर लिखी गयी एक किताब के लिए कोई छोटी उपलब्धि नहीं है।– उदयन वाजपेयी
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‘छूटी सिगरेट भी कमबख्त ‘ –रवीन्द्र कालिया के इस संस्मरण-संग्रह का शीर्ष आलेख छूटी सिगरेट भी कमबख्त आज पढ़कर वे दिन याद आते हैं जब कई मौकों पर उन्होंने सिगरेट छोड़नी चाही मगर नाकामयाब रहे।
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औपनिवेशिक भारत में स्तूपों की खुदाई, शिलालेखों और पाण्डुलिपियों के अध्ययन ने बुद्ध को भारत में पुनर्जीवित किया। वरना एक समय यूरोप उन्हें मिस्त्र या अबीसीनिया का मानता था। 1824 में नियुक्त नेपाल के ब्रिटिश रेजिडेण्ट हॉजसन बुद्ध और उनके धर्म का अध्ययन आरम्भ करने वाले पहले विद्वान थे। महान बौद्ध धर्म भारत से ऐसे लुप्त हुआ जैसे वह कभी था ही नहीं। ऐसा क्यों हुआ, यह अभी भी अनसुलझा रहस्य है। चंद्रभूषण बौद्ध धर्म की विदाई से जुड़ी ऐतिहासिक जटिलताओं को लेकर इधर सालों से अध्ययन-मनन में जुटे हैं। यह पुस्तक इसी का सुफल है। इस यात्रा में वह इतिहास के साथ-साथ भूगोल में भी हैं। जहाँ वेदों, पुराणों, यात्रा-वृत्तान्तों, मध्यकालीन साक्ष्यों तथा अद्यतन अध्ययनों से जुड़ते हैं, वहीं बुद्धकालीन स्थलों के सर्वेक्षण और उत्खनन को टटोलकर देखते हैं। वह विहारों में रहते हैं, बौद्ध भिक्षुओं से मिलते हैं, उनसे असुविधाजनक सवाल पूछते हैं और इस क्रम में समाज की संरचना नहीं भूलते। जातियाँ किस तरह इस बदलाव से प्रभावित हुई हैं, इसकी अन्तर्दृष्टि सम्पन्न विवेचना यहाँ आद्योपान्त है।
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