Pashchatya Sahityalochan Paribhashavali By Vivek Singh And Anshu Priya

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पाश्चात्य साहित्यालोचना परिभाषावली – विवेक सिंह, अंशु प्रिया


पाश्चात्य साहित्यालोचना परिभाषावली सामान्य विमशों में प्रयुक्त पारिभाषिक शब्दों, उनके अर्थों तथा संस्कृति और समाज में उनके आयामों और महत्त्व का साझा स्वरूप है।


विगत वर्षों में देश की राजनीतिक, सामाजिक, आर्थिक और सांस्कृतिक अवस्था में काफी परिवर्तन आए हैं। इन परिवर्तनों और उनके आयामों का विस्तृत अध्ययन आवश्यक है। भूमण्डलीकरण के इस दौर में भारतीय परिदृश्य पर वैश्विक पटल का प्रभाव पड़ना कोई आश्चर्य की बात नहीं है। साहित्य, जो समाज का आईना है, उसपर यह बदलाव स्पष्टतः देखा जा सकता है। हिन्दी साहित्य पर उपनिवेशवाद का काफी प्रभाव रहा है, बल्कि यह कहना कि उपनिवेशवाद के प्रभाव को समझे बिना हिन्दी साहित्य का गम्भीर अध्ययन नहीं किया जा सकता, गलत नहीं होगा। प्रो. अवधेश कुमार सिंह का मानना है कि हिन्दी साहित्य के निर्माण में उपनिवेशवाद का असर स्पष्ट परिलक्षित होता है। इसीलिए पाश्चात्य आलोचनात्मक परम्परा को समझना बहुत ही आवश्यक हो जाता है। हमने देखा है कि हिन्दी के बहुत से प्रख्यात विद्वानों ने फ्रायड, और मार्क्स जैसे पश्चिमी विचारकों को समझने और उनके विचारों के प्रयोग का प्रयास किया है।

— भूमिका से

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Pashchatya Sahityalochan Paribhashavali By Vivek Singh And Anshu Priya


About the Author

विवेक सिंह ने अपनी पी-एच.डी. इफ्लू, हैदराबाद से की है। आगे शोध करने के लिए, वे बर्लिन के पॉट्सडैम विश्वविद्यालय गये और डाड फेलोशिप प्राप्त की। उन्होंने विभिन्न प्रतिष्ठित संस्थानों में पन्द्रह से अधिक व्याख्यान दिये हैं और अन्तरराष्ट्रीय पत्रिकाओं में दस से अधिक शोधपत्र प्रकाशित किये हैं। उनकी सम्पादित पुस्तकों में ‘द क्राइसिस इन हामैनिटी’ (2022) और ‘द डिस्कोर्स ऑफ डिसेबिलिटी: इण्डियन पर्सपेक्टिव्स’ शामिल हैं। उन्होंने शिक्षा मन्त्रालय के ‘स्वयंप्रभा’ के लिए पाठ्यक्रम भी विकसित किये हैं। फुलब्राइट फेलो के रूप में, उन्होंने अमेरिका की मिसिसिपी वैली स्टेट यूनिवर्सिटी में भाषा प्रशिक्षक और सांस्कृतिक राजदूत के रूप में कार्य किया। इसके अतिरिक्त, उनकी हिन्दी पुस्तक ‘उत्तर-सत्यवाद’ (पोस्ट-टूथ) भी अभी प्रकाशित हुई है। हिन्दी भाषा और अनुवाद में उनकी गहरी रुचि है। सम्प्रति – प्राध्यापक, अँग्रेजी विभाग, काशी हिन्दू विश्वविद्यालय।


अंशु प्रिया वर्तमान में केन्द्रीय विश्वविद्यालय झारखण्ड, राँची से हिन्दी उपन्यास, फैण्टेसी और वैज्ञानिक गल्प पर शोध कर रही हैं। उन्होंने काशी हिन्दू विश्वविद्यालय से स्नातक और परास्नातक की शिक्षा प्राप्त की है। ‘साखी’ आदि पत्रिकाओं में उनकी कविताएँ तथा अनुवाद प्रकाशित हैं। अंशु की अभिनय में गहरी रुचि है, वे रंगमंच से भी पिछले कई सालों से जुड़ी रही हैं और कई नाट्य प्रदर्शनों में प्रमुख भूमिकाएँ निभायी हैं। अंशु विविध सिद्धान्त तथा अनुवादों में भी गहरी रुचि रखती हैं।
सम्प्रति – शोध छात्रा, केन्द्रीय विश्वविद्यालय झारखण्ड, राँची।


SKU: Pashchatya Sahityalochan Paribhashavali PB
Category:
Author

Vivek Singh And Anhu Priya

Binding

Paperback

Language

Hindi

ISBN

978-93-6201-292-0

Pages

230

Publication date

01-02-2025

Publisher

Setu Prakashan Samuh

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    वे जानने लगते हैं
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  • Aboli Ki Dairy By Juvi Sharma

    अबोली की डायरी – जुवि शर्मा

    मिट्टी की देह से बना मनुष्य जब पश्चात्ताप की अग्नि में झुलसता है, तो उसके कर्म की स्वीकारोक्ति के मार्ग भी स्वयं प्रशस्त हो जाते हैं। मेरी मानसिक स्थिति तो कोई नहीं समझ पाया किन्तु अवचेतन अवस्था में किसी अबोध के लिए घृणा का भाव तो उपजा ही था। कोई मेरे साथ कैसा व्यवहार करता है, वह उसका चरित्र था किन्तु मैं अपना चरित्र धूल-धूसरित नहीं कर सकती। इसलिए चाहती हूँ कि उसकी सुखद गृहस्थी हो, इसलिए उसकी ब्याह की जिम्मेदारी मैंने अपने हाथ ले ली है। हम लड़की देखकर घर आए ही थे कि मम्मी मुझे कोने में खींच लायी, ‘ऐय अबोली। सुन! उस लड़की के छाती थी क्या ? कमर भी दो बित्ते की थी न ?’
    – इसी पुस्तक से


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  • Jis Lahore Nai Dekhya O Jamyai Nai By Mrityunjay Prabhakar

    जिस लाहौर नइ देख्या ओ जम्याइ नइ – 

    प्रधान सम्पादक: महेश आनन्द, देवेन्द्र राज अंकुर
    सम्पादक: मृत्युंजय प्रभाकर


    असगर वजाहत कहानी, उपन्यास, आत्मकथा, यात्रा-संस्मरण, नाटक आदि अनेक विधाओं में एकसाथ सक्रिय हैं। उनके नाटकों ने शुरू से हिन्दी पाठकों व दर्शकों का ध्यान खींचा है। उनके नाटकों में जो एक बात सामान्य है, वह है उनमें निहित व्यंग्य, विडम्बना और विद्रूरूपता। नाटकों का कथानक भी इन्हीं के इर्द-गिर्द रचा गया है। नाटक ‘जिस लाहौर नइ देख्या…’ का ताना-बाना भी कुछ इसी तरह बुना गया है। पूरा नाटक यथार्थवादी है, लेकिन प्रारम्भिक दृश्य में ही व्यंग्य-विडम्बना-विद्रूरूपता से साक्षात्कार होता है। मण्टो के यहाँ भी भारत-पाक विभाजन के ऐसे ही तिलमिलाते नज़ारे मिलते हैं! विभाजन अब भी कई लोगों के लिए एक गुत्थी ही है। इतिहास में इसकी गहरी और विस्तृत छान-बीन है। साम्राज्यवादी मंसूबों से इंसानियत की तबाही तो एक जाना-माना तथ्य है, लेकिन मनुष्य का एक-दूसरे के ही ख़िलाफ़ नफ़रत, पागलपन कई बार एक अनसुलझी गुत्थी ही लगती है। इंसानियत ही जैसे खुद अपने सामने यह सवाल रखती है कि क्या एक धरती के कई टुकड़े किये जा सकते हैं? क्या कई टुकड़ों में बँटी धरती के बाशिन्दों की फ़ितरत भी बँट जाती है ?
    – इसी पुस्तक से

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  • Durasth Dampatya (Hindi Story) By Mamta Kalia

    दूरस्थ दाम्पत्य – ममता कालिया


    कथावस्तु से कथानक का निर्माण होता है। कथावस्तु की तमाम घटनाएँ हमारी जिन्दगी की जानी-पहचानी स्थितियाँ होती हैं। कथाकार अपनी संवेदना और कल्पना से जिस कथानक का निर्माण करता है वह विशिष्ट और गतिमान होता है। ममता कालिया की इन कहानियों की विशेषता है कि पाठक कथावस्तु के सूत्रों के सहारे इनकी घटनाओं को अपने जीवन का अंग मानने लगता है। उसे लगता है कि अरे! यह तो हमारे पड़ोस में रहने वाले फलाँ बाबू हैं, अरे! यह तो हमारे साथ उस बरस घटा था आदि आदि। पर पूरी कहानी अपने रचनात्मक आवेग में उसी पाठक को उस रहस्य लोक में ले जाती है, जहाँ पात्र, परिवेश, उद्देश्य सब एक हो जाते हैं। कहानी अपने प्रभाव और रचाव में जैविक एकक बन जाती है। ममता कालिया की ये कहानियाँ इसलिए भी विशिष्ट हैं कि इनकी संवेदनात्मक संरचनाएँ सुसंगठित और एकात्मक हैं। इसीलिए ये पहचान और रचनात्मक विस्मय एकसाथ निर्मित कर पाने में सक्षम होती हैं। ममता कालिया की इन कहानियों की संवेदनात्मक संरचना के एकत्व को गहराई मिलती है जीवन की दार्शनिकता और विचारपरकता से- ‘यह दो जीवन-पद्धतियों का टकराव था, साथ ही दो विचार-पद्धतियों का भी।’ यह दार्शनिकता किसी भी रचना की गहराई के लिए अनिवार्यता है। इन कहानियों में यह अलग से इसलिए रेखांकित हो रही है क्योंकि आज के कहानी लेखन में इसका अभाव सा दीख रहा है। इसके कारण इस कहानी-संग्रह की बहुआयामिता निर्मित हो रही है। वह सपाट कथन से बाहर निकलती है। ममता जी की ये कहानियाँ अपने भीतर मध्यवर्ग का जीवन्त संस्कार समेटे हुए हैं। आशा-दुराशा, जीवन स्वप्न और दुस्सह यथार्थ, आकांक्षा और अपेक्षा के बीच डोलता मध्यवर्गीय जीवन यहाँ उपस्थित है। इस उपस्थिति के प्रति रचनाकार एक करुणापूर्ण दृष्टि रखता है। यह करुणा इस तथ्य के बावजूद है कि वे अपने पात्रों से एक निरपेक्ष दूरी भी बनाने में सफल होती हैं। यह द्वैत या द्वन्द्व ही ममता जी की कहानी-कला की विरल विशिष्टता है। सघन होने के बावजूद ममता जी की कहानियाँ बोझिल या कठिन नहीं बनतीं, तो इसका कारण इनकी प्रवाहपूर्ण भाषा है। सरस गद्य और भाषा का प्रवाह इन्हें न केवल व्यंजक बनाता है अपितु पठनीय भी।

    – अमिताभ राय


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