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शोर एवं अन्य कविताएँ – मनोज मोहन
‘शोर एवं अन्य कविताएँ’ संग्रह की कविताएँ महानगर में रहते उस कवि की कविताएँ हैं जिसे महानगर ने अपने तमाम पाशों के सहारे जकड़ रखा है। कवि बरसों पहले अपने छोटे शहर से सामुदायिकता, सहिष्णुता, सहकार जैसे तमाम मूल्यों को लेकर महानगर आया था। उसे उम्मीद रही होगी कि महानगर में उसके भीतर के ये तमाम मानवीय मूल्य व्यापक होते जाएँगे। मानो उनकी ज़द में पूरा महानगर आ जाएगा। वह उसी तरह अपने छोटे से शहर से महानगर आया था, जैसे भारत के यान्त्रिकीकरण के बाद तमाम क़स्बों और गाँवों से लोग नयी सम्भावनाओं की तलाश में देश के अनेक महानगरों में आए थे। उन लोगों की तरह ही ‘शोर’ का कवि भी महानगर आकर मानवीय मूल्यों का विस्तार देखने की जगह मूल्यों के निरन्तर विघटन का गवाह बनता है। वह इन मूल्यों के विघटन का आकस्मिक गवाह और भोक्ता है। वह इन मूल्यों को अपने बाहर टूटते देखता है और अपने भीतर उनकी प्रासंगिकता का धीरे-धीरे क्षरण होते अनुभव करता है। ‘शोर एवं अन्य कविताएँ’ ग्रामीण मूल्यों के विघटन से उत्पन्न अवसाद और उस अवसाद से बाहर आने की छटपटाहट की कविताएँ हैं। मनोज मोहन इस अवसाद और उससे बाहर निकलने की छटपटाहट को, उससे उत्पन्न हुई चीख को पूरे धीरज के साथ अपने भीतर लम्बे समय तक धारण किये रहते हैं और तब जाकर कविताएँ लिखते हैं। शायद हम यह कह सकते हैं ये कविताएँ धीरज के सरोवर में उगे चीख के फूलों की तरह हमारे सामने आयी हैं। हम इनमें अपनी सभ्यता के सामुदायिकता, सहिष्णुता, सहकार जैसे तमाम मूल्यों की रोशनी में भारत के महानगरों की सच्चाई को धीरे-धीरे खुलते हुए देखते हैं। इन्हीं मूल्यों की रोशनी में हमें आधुनिक भारतीय जीवन के परम पराभव के जब दर्शन होते हैं, हम खुद से प्रश्न करने को मजबूर हो उठते हैं। कविताओं के इस संग्रह को हम महानगरों में पारम्परिक मूल्यों और क़स्बों-गाँवों से आए नवयुवकों की जीवनगाथा के रूप में भी पढ़ सकते हैं और पढ़कर यह जान सकते हैं कि जिन महानगरों को हमने उम्मीद के स्थापत्य की तरह खड़ा किया था वे हमारे देखते-देखते ही किस तरह उम्मीदों को नष्ट करने वाली मशीनों में तब्दील हो गये हैं।
इन कविताओं को इसलिए भी पढ़ना चाहिए कि इनमें हम महानगरों के मर्सिया को भी सुन सकते हैं। – उदयन वाजपेयी
एक गैरसरकारी संगठन में थोड़े दिनों तक नौकरी। हिन्दी को साहित्यिक सांस्कृतिक दुनिया में निरन्तर सक्रिय।
कविता और लेखन में गम्भीर संच। पच्चीस साल से दिल्ली में। वर्तमान में सीएसडीएस की पत्रिका ‘प्रतिमान समय समाज संस्कृति’ के सहायक सम्पादक। कविताओं की यह पहली किताब।
Additional information
Author
Manoj Mohan
Binding
Paperback
Language
Hindi
ISBN
: 978-93-6201-543-3
Pages
119
Publication date
01-02-2025
Publisher
Setu Prakashan Samuh
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