अपने को लिखना और अपने समय को लिखना वैसे तो दो अलग-अलग काम हैं; पर कविता में वे अक्सर घुल-मिल जाते हैं : अपने को बिना अपने समय के लिखना मुमकिन नहीं होता और अपने समय को लिखना बिना अपने को लिखे हो नहीं पाता। भले हम विवश एकान्त में, अनायास आ गये निर्जन में, ज़्यादातर अपने ही साथ रहे पर समय ने होना स्थगित नहीं किया और न ही उसमें हो रहे हिंसा अत्याचार – घृणा – अन्याय में कोई कमी आयी। कभी लगता था कि यह अपना समय नहीं है और कभी कि हमारा समय कितना कम बदला है। ये कविताएँ अपने और अपने समय के बीच ऊहापोह की इबारतें हैं। उनमें चरितार्थ निराशा और विफलता फिर भी भाषा में विन्यस्त अपरिहार्य मानवीयता, शब्दों में रसी-बिंधी ऊष्मा और दीप्ति से, उम्मीद है, अतिक्रमित होती रही है।
About the Author:
अशोक वाजपेयी ने छः दशकों से अधिक कविता, आलोचना, संस्कृति-कर्म, कला-प्रेम और संस्था- निर्माण में बिताये हैं। उनकी लगभग 50 पुस्तकें प्रकाशित हैं जिनमें 19 कविता-संग्रह, 9 आलोचना पुस्तकें एवं संस्मरण, आत्मवृत्त और कभी-कभार से निर्मित अनेक पुस्तकें हैं। उन्होंने विश्व कविता और भारतीय कविता के हिन्दी अनुवाद के और अज्ञेय, शमशेर, मुक्तिबोध, भारत भूषण अग्रवाल की प्रतिनिधि कविताओं के संचयन सम्पादित किये हैं और 5 मूर्धन्य पोलिश कवियों हिन्दी अनुवाद पुस्तकाकार प्रकाशित किये हैं। उनकी कविताओं के पुस्तकाकार अनुवाद अनेक भाषाओं में प्रकाशित हैं। अनेक सम्मानों से विभूषित अशोक वाजपेयी ने भारत भवन भोपाल, महात्मा गाँधी अन्तरराष्ट्रीय हिन्दी विश्वविद्यालय, रज़ा फ़ाउण्डेशन आदि अनेक संस्थाओं की स्थापना और उनका संचालन किया है। उन्होंने साहित्य के अलावा हिन्दुस्तानी शास्त्रीय संगीत, आधुनिक चित्रकला आदि पर हिन्दी और अँग्रेज़ी में लिखा है।
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