Description
जो भी ये दावा करते हैं कि भारतीय सामाजिक-सांस्कृतिक चिन्तन के बूते पर अलग समाज-विज्ञान गढ़ा जा सकता था या है, उनसे मेरा सवाल यह है कि क्या आप मीमांसा, न्याय या सांख्य के प्रत्ययों का इस्तेमाल करके बाजार के नियम या फिर जनतन्त्र व फ़ासिम जैसी परिघटनाओं पर रोशनी डाल सकते हैं? क्या आप दुनिया भर में चल रहे पूँजीवाद-विरोधी संघर्षों और आन्दोलनों द्वारा उठाये जा रहे पेचीदा सवालों के बारे में उन प्रत्ययों के आधार पर कोई विश्लेषण प्रस्तुत कर सकते हैं? मुझे लगता है ऐसा सम्भव नहीं है। लेकिन अगर किसी को यह सम्भव लगता है तो उस ज्ञान को कालकोठरी से निकालकर सामने लाएँ और जरूर प्रकाशित करें। जमाना बदल चुका है और अब ज्ञान पर किसी की पहरेदारी नहीं चल सकती है…
– इसी पुस्तक से
About the Author:
आदित्य निगम लम्बे समय तक सेण्टर फॉर द स्टडी ऑफ डेवलपिंग सोसाइटीज (सी.एस.डी.एस.), दिल्ली से जुड़े थे और एक राजनीतिक सिद्धान्तकार होने के अलावा संस्थान के भारतीय भाषा कार्यक्रम के सदस्य व उसके द्वारा प्रकाशित पत्रिका प्रतिमान के सम्पादक मण्डल के भी सदस्य थे।
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