Siraj-E-Dil Jaunpur

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सिराज-ए-दिल जौनपुर हिन्दी में गद्य की एक अभिनव और अनूठी पुस्तक है।

जिसमें संस्मरण और स्मृति आख्यान से लेकर ललित निबन्ध तक, गद्य की विविध मनोहारी छटाएँ हैं। ऐसे समय जब मान लिया गया है कि ललित निबन्ध की धारा सूख चुकी है, अमित श्रीवास्तव की यह किताब न सिर्फ़ ऐसी धारणा का प्रत्याख्यान है बल्कि उस धारा को नये इलाक़ों में भी ले जाती है। यों तो इस पुस्तक में संकलित ज्यादातर निबन्धों या स्मृति आख्यानों के केन्द्र में पूर्वी उत्तर प्रदेश का एक शहर जौनपुर है लेकिन लेखक ने जो रचा है वह सतही वृत्तान्त या विवरणात्मक ज्ञान के सहारे नहीं रचा जा सकता। इस रचाव के लिए बहुत कुछ विरल चाहिए: इतिहास के कोने-अन्तरे तक पहुँच, भूले-बिसरे नायकों की पहचान और उनके अवदान का ज्ञान, इतिहास और साहित्य से लेकर विज्ञान तक में रुचि, स्थानीय जीवन के रंग और विश्वबोध, आदि। इस पुस्तक को पढ़ते हुए किसी को भी हैरानी होगी कि स्थानीय खान-पान और रीति-रिवाज और गली- मोहल्लों के बारे में जिस रोचकता से स्मृति आख्यान लिखे गये हैं उसी तरह से इतिहास में गुम किरदारों और ज्ञान-विज्ञान से जुड़े प्रसंगों के बारे में भी। चाहे जौनपुर के हिन्दी भवन के बारे में लिखा गया स्मृति आख्यान हो, चाहे किसी अल्पज्ञात शख्सियत के योगदान के बारे में, चाहे साहित्य या इतिहास का कोई मसला हो, चाहे कैथी लिपि के चलन से बाहर हो जाने की पड़ताल, आप समान चाव से पढ़ सकते हैं। इन सबसे लेखक का बहुश्श्रुत और बहुपठित व्यक्तित्व उभरता है। इस पुस्तक में संकलित कई निबन्धों के मद्देनजर यह कहा जा सकता है कि ऐसा रसप्रद और खिलन्दड़ा गद्य कहीं और मुश्किल से मिलेगा। ऐसा गद्य लिखते हुए लेखक ने कई जगह नये शब्द भी रचे हैं। उम्मीद की जानी चाहिए कि इस पुस्तक में संकलित कथेतर गद्य की अभिनवता और अनूठेपन को अलक्षित नहीं किया जाएगा।

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